Sunday, 31 January 2016

कवितायेँ

मुक्त होने की पीङा दुरूह है
बंधन चैन देता है,
नियंत्रित होना अनियंत्रण से बेहतर है
सीमाएं सुरक्षित रहती हैं,
पर उन खुशबुओं का क्या करें
जो प्रेम सी तिरती हैं
हवाओं में
उन्मुक्त.... आवारा
पीङाओं का मीठा बोझ थामे।।



उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।


कवितायेँ

कई दफे इंतजार खुद घायल दिखा है,
कि टिकी नजर जहां पर थी
वहां आहट किसी की है
कि जिसे चाहता था वो 
उसे चाहत किसी की है,
कभी कभी इश्क यूँ भी
मेरे हमनफज।।


इश्क के भी साइड इफेक्ट्स होते हैं
कभी मीठे कभी तीखे
तो कभी चरपरे,
इश्क कभी बेस्वाद नहीं होता 
मेरे हमनफज।।


बहुत हैरान मत हो
वही हूँ मैं,
लथपथ खून में सिमटी
इंतिहा दर्द में लिपटी
सिंकी सदियों हूँ आंसू में
बिकी सदियों हूँ पैसों में
मैं अपनो की शिकायत हूँ
मैं नफरत की रवायत हूँ,
मैं हूँ इंसानियत
लेकिन नही उनकी
कि जिनके हाथ में तलवार है
फकत उनकी
कि जिनकी गरदनों पर वार है,
सुना तुमने कुलीनों।।

कविता

चुनो
चुनो दर्द या खुशी
प्रेम या अ प्रेम
( प्रेम का विलोम नहीं होता)
सांस या शांति 
उम्र या जिंदगी,
चुनाव तुम्हारा होगा
व्यक्तिगत,
इसलिए चुनो
अन्य सब दरकिनार कर
अपने लिए मात्र,
इस सत्य के साथ
कि एक के साथ एक मुफ्त है
जैसे अ प्रेम के साथ खुशी
और प्रेम के साथ पीङा
असहनीय,
मेरे हमनफज।।




रात बुुन रही है सुंदर कविता
अलाव की लुकाठी थामे,
मिट्टी के सीने में सिहरन है
कि आसमान बस ढह पङने को है,
पहना दी जाएगी यही कविता
मिट्टी और आसमान के मिलन से उपजी
लथपथ भोर की पहली किरण को
रात की विरासत की तरह,
जिसे ओढ़ पूरा वो गुनगुनाती फिरे
किसी चिड़िया सी चहचहाती फिरे
और कर दे रूमानी धूप को भी,
शाम संधिकाल है
रात फिर होगी
अनेकों कविताओं के अदभुत प्रसव के लिए
कि अब तो सूरज को भी इंतजार है मीठी पीङाओं का,
प्रेम यूँ भी होता है
मेरे हमनफज।।

कवितायेँ

प्रेम को चक्खा कभी जब
था बहुत तीखा कसैला
ज्यों किसी ने भर दी हो हुक्के की पूरी आग
मेरी पसलियों में,
प्रेम क्या होता है मीठा भी कभी
जैसे शहद के ढेरों छत्ते।।


कई दफे मुँडेर से धूप उठाकर
बुन देती हूँ तुम्हें,
हर बार तुम मुसकुरा देते हो
हरारत से 
हर बार मैं हो जाती हूँ कुछ सुरमई सी
तुम्हारी पीठ में चेहरा छुपाये,
कि प्रेम यूँ भी तो है न मेरे हमनफज।।



वक्त थक रहा है उम्र का बोझ लादे
सफ़र लम्बा है शायद
कि अब वक्त को कूबड़ निकल आया है
कोई कोई आहट कराह उठती है
कोई टकरा जाती है
और उम्र का एक हिस्सा गिर जाता है वहीँ पर
चिपक जाता है सतह पर coaltar सा
कुरेदने में उम्र ज़ख्मी हो जाती है
वक्त उसे मायूसी व कुछ राहत से वहीँ छोड़ आगे बढ़ जाता है
ज़ख्म धीरे-धीरे ज़मीन की नमी में सीझता रहता है
पकता है परिपक्व होता है,
सुखाने की तमाम कोशिशे सूर्य को लाचार कर रही हैं
परन्तु ज़ख्म अब सूर्य पर साए सा है,
ज़ख़्मी उम्र मुस्कुराती है खिलखिलाती है
और अब तो करती है प्रेम भी
कि ज़ख्म अब उम्र के प्रेम का पैमाना हो गया है ,
शुक्रिया वक्त , तुम्हारी अनथक कोशिश
और तुम्हारे बदसूरत कूबड़ों के लिए
और इसलिए भी कि
प्रेम अब अपने सही अर्थों में सार्थक हो रहा है!!




मन

मन टूटता रहता है छोटे छोटे टुकड़ों में
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
उस रोज भी टूटा था 
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
ऐसे हर एक लम्हे में वो कछुआ हो जाती
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!

प्रिय

बूँद भर कॉफ़ी की रख दो
उसके होठों पर
तुम अपने होठों से ,
फिर खुली बारिश में तुम 
देखो चटकना सूर्य का
हो मुग्ध प्रियवर !!




हम्न्फ्ज़

सुकून टूटकर सितारों सा जा छिपा है
आसमां पर
कि मानो आसमां पर कोई मोरपंख छीजा पडा हो
लहूलुहान----- लम्बे अरसे से ,
ज़मीन की जड़ों से निकलकर कोई कीड़ा
लहू में फुंफकारता है
देह पीली पड़ जाती है
जबकी जहर का असर तो नीला होता है
महत्त्व भी नीला ही होता है
पर यहाँ रंगों का उलटफेर
दर्द की कवायद को कम नहीं करता
बढा देता है उलटे
कि जब मौसम इन्द्रधनुषों के निकलने का हो
ठीक उसी वक्त निकल आता है सूरज अपनी खोह से
अपने तीव्रतम ताप का पिटारा खोले
ठीक उसी वक्त तमाम घोंसले सुलगती राख का मटमैला आइना हो जाते हैं
और हो जाते हैं तमाम गीले ज़ख्म पपडियाये से
कि जैसे झरने से काँटों का कोई सोता फूट पड़े
कि जैसे हवाओं से साँसों का सम्पर्कसूत्र ही खो जाए
कि जैसे गुलाब से खुशबू का वास्ता ही न रहे
इस कदर की विभक्ति परिणामतः भयानक ही होती है
पर होती है ,
यूँ तो सुकून स्वीकार्य की परिणति है
संतोष का मित्र है
पर यही दो तत्व अक्सर वहां नहीं होते
जहां होता है प्रेम मेरे हमनफ़ज़ !!