Tuesday, 17 July 2012

बारिश की धरोहर

अब भी ठहरा हुआ है
बारिश की इक शाम के महफूज़ गोशे में
मेरी पहली बेताब धडकनों का कुछ हिस्सा
जब भीग रही थी मै छत पर पूरी अल्हड़ता से
सखियों संग हंसती - खिलखिलाती बेलौस उमंगों के साथ  ,

और तभी एक गुजरती हुई सी आहट थम गयी थी ठिठककर 
नज़र पड़ते ही दो खामोश आँखों की तीव्र तपिश को महसूस किया मैंने 
और जड़ हो गयी थी  ...उसकी तमाम कंटीली सिहरन के साथ ,

आहिस्ता से झिझकते हुए जब देखा मैंने उन आखों में 
तो उस पल से ही उसका तमाम अनकहा मेरी रगों में उतर गया 
इश्क बनकर ....जिसने मुझे बेहद अहम् बना दिया ...उसका बना दिया ,

पर तब से अब तक वो नज़र नहीं लौटी 
न जाने कहाँ गुम है
और तब से ही मैंने बारिशों में भीगना बंद कर दिया है ,



हर बार ...हर बारिश में मेरा दर्द और मेरा इन्जार भी 
उम्मीदों के साए में फुहारों की खुशबू संग मिलकर धडक उठता है 
साथ ही उन नज़रों का अनकहा यथार्थ भी मेरी रगों को अनायास तप्त कर देता है ,


पर हर साल बेहद मायूसी से  अनजाने ही 
मै कुछ और बड़ी ...कुछ और अहम् हो जाती हूँ खुद में
एक और पूरे साल तक उन नज़रों की तासीर को जीते रहने के लिए  
एक और साल तक बारिश में एक ठिठकी हुई आहट के लिए !!










                                   अर्चना राज




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