Wednesday, 11 July 2012

अग्नि / प्रेम

न जाने कितनी सदियों पहले
स्वयं अग्नि ने ही जिया था प्रेम को
परन्तु फिर भी
तब से अब तक अनगिनत बार
उसने ही पथरीले सैलाबों से अवरोधित किया है
प्रेम की अनुभूति को
न जाने क्यों ,

अपने तप्त और तल्ख़ खयालातों के साए में
उसने जितना ही खुद को ढंकने की कोशिश की है
बार-बार उतना ही नाकाम होता रहा है उसका ये प्रयास
क्योंकि हर बार उसके सुर्ख दर्द के चट्टान पर 
बेहद सहजता से उग आते हैं
प्रेम की खुशबू से परिपूर्ण
अनगिनत रंगों वाले फूल
जिनका मतवालापन सारी सृष्टी में 
आहिस्ता-आहिस्ता बिखरता रहता है ,

शायद इसलिए भी कि
उसकी बर्फीली तटस्थता में भी 
प्रकृति का जिद्दी प्रेम लगातार सुलगता रहा है
बेहद स्वाभाविकता से 

उसके न चाहते और 
खुद को संयमित रखने की पूरी मर्मान्तक चेष्टा के बावजूद भी ,

बजाय इसके की अग्नि अपनी पूरी सख्ती से 
प्रेम के अस्तित्व को नकार सके 
उसकी कठोरता ने अनजाने ही अनायास 
प्रेम को अग्नि में परिवर्तित कर दिया है ,

और अब एक बार फिर अग्नि पूरी तरह तत्पर है 
प्रेम का गरिमापूर्ण स्वागत करने 
 और प्रकृति से अपने मिलन को 
कुछ और चंचल,मदहोश ,और उद्दात्त बनाने के लिए !!







              अर्चना राज

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