Saturday, 15 November 2014

प्रेम ..... अनेक

गैर जरूरी है तुम्हारा आना हर उदास लम्हे में
मायूसी बिखर जाती है
हर कोना कुछ और सिमट जाता है
दीवारें तक चुप लगा जाती हैं
हर कोशिश करती हूँ तब 
मै कहीं दूर चली जाऊं
निकल पड़ती हूँ यादों के जंगल में
तुम्हारा हाथ थामे .... यूँ ही भटकने को
थकने को --- थकते रहने को ,
उदासियों का डर नहीं अब
मुस्कुराहटें मेरे पास है !!

प्रेम ,
तुम विकट हो
हथेलियों में उग आते हो ,
छूने से डरती हूँ किसी को 
कहीं भूलवश संप्रेषित न हो जाए
मेरी दुर्दमनीय तकलीफ उसकी खुशियों में !!



पत्थरों के शहर में रूह सी कैद है सिसकियाँ
आहें गूंजती है जलतरंग सी
इंतज़ार हर बार अगली बार के लिए तैयार होता हुआ सा
और दुआयें
घंटियों सी बजती है और बिखर जाती है दूर तलक शब्दों में घुलकर ,
आओ ------ आ भी जाओ
मुझे प्रेम है तुमसे !!




उगता सूरज बाँध के मुट्ठी रख लूं भीतर 
रहूँ सुलगती मीठा -मीठा 
दिन-भर -हर क्षण !!



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