Friday, 4 January 2013

अधूरी ख़्वाहिश



जिस्म के छीले जाने का कहर बाकी है अभी साँसों मे
सांस सहम-सहमकर उठती है ,
वेदना असीम है पर जीवन फिर भी सुखद है
जीना है मुझे ,
नहीं चाहती घिरना मौत के अंधेरे साये मे
कि माँ ----- तन्हा डर सा लगता है ,
तुम्हारे आँचल कि खुशबू तुम्हारी हथेलियों का संबल प्रेरित करता है मुझे हर बार लड़ने को
इस बार भी ,

क्रूर पशुओं से हारना नहीं चाहती
उनकी हैवानियत कि उलझी स्याह रेखाओं मे भी मै सूरज तलाश लूँगी
कदम दर कदम सपनों के सोपान मुझे ज़िंदगी के हर धुरी का अर्थ समझाएँगे
मै भी उन्हें अपने जीवन कि मुश्किलों से वाकिफ करवाऊँगी
इस तरह ही ये सफर अपनी मंज़िल को पहुंचेगा
हौसला है मुझमे ,

माँ -- मै जीना चाहती हूँ
अब ये चाह इस देश मे सम्मान कि ऊर्जा का श्रोत है !!

अर्चना राज

2 comments:

  1. देश देशवासी .... नहीं जानती इनकी चाह तह तक
    पर मैं जीना चाहती हूँ
    अपने होने का मूल्य !!! .......... चाह तो था चुकाना

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  2. धन्यवाद रश्मि प्रभा जी

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