Monday, 28 January 2013

प्रेम

हर ज़र्रे मे प्रेम है ,

धूप मे ,बारिशों मे , और कड़कती ठंड मे भी प्रेम है
प्रेम माने ख़लिश की चौहद्दी पर अटकी  कोई ख़्वाहिश ,

बचने की हर संभव कोशिश के बाद भी चुभती जरूर है
कभी पैरों मे ,सीने मे तो कभी आँखों मे
कभी जहन मे भी या शायद जहन मे नहीं ,

प्रेम समझ नहीं रखता
वर्गीकरण भी नहीं करता जाति -धर्म का ,रंग का या फिर धन का
ये तो आवारा होता है ----सर्वोत्कृष्ट जज़्बे के साथ
हर किसी के साथ गलबहियाँ करता फुदकता फिरता है
इसे स्वीकारने के बाद फिर आवारगी नहीं होती
जहां होती है वहाँ प्रेम नहीं होता
बड़ा आसान सा गणित है ,

किसी नेता ,अफसर या बाहुबलियों का रोजनामचा नहीं है प्रेम
अगर है ------तो बस देह और जरूरतें
बेबसी से जन्मी पीड़ाओं का एक वृहद वृत्ताकार भी
प्रेम समझने की भूल न करें इसे ,
यहाँ देह प्रेम को लील जाता है ,

जहां प्रेम सर्वाधिक है
वहाँ सफ़ेद साड़ियों की बहुलता है
एक सिलसिलेवार घुटन कि त्रासदी भी ,
वहाँ की मिट्टी लाल है
कि वहाँ की हवाओं मे लहू कि खुशबू आती है
अनवरत ----------- !!!



     अर्चना राज 

1 comment:

  1. प्रेम की अनुपम परिभाषा और प्रेम की पराकाष्ठा को उजागर करती, प्रेम पूर्ण शब्द सागर है ये रचना!

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