Sunday, 6 January 2013

कविता

कविता की कोई सूरत नहीं होती
कोई आकार कोई रेखाचित्र भी नहीं
कोई रंग कोई गंध कोई स्वाद भी नहीं ;
खयाल हो ;कल्पना या फिर झंझावात
शब्दों मे ढलकर खुद ही संवर जाती है
जन्म लेती है कोई कविता ,

लड़कर -थककर; सहकर -जूझकर जब पिघल जाती हैं समवेदनाएं
तब स्वयं ही चुपके से जनम जाती है कोई कविता ,

हर चीख के पन्नो मे दर्ज़ है कोई कविता
हर आँसू हर मुस्कान हर धड़कन की ताबीर है कोई कविता
हर दर्द का आसमान है कोई कविता ,

कविता का होना कोई ऐतिहासिक घटना नहीं
पर कविता है इसलिए ही इतिहास अस्तित्वमान है अब तक
हर बीते पल घटना और भावों का साक्ष्य है कोई कविता !!


   अर्चना राज

2 comments:

  1. लड़कर -थककर; सहकर -जूझकर जब पिघल जाती हैं समवेदनाएं
    तब स्वयं ही चुपके से जनम जाती है कोई कविता।
    बहुत ही संवेदनशील प्रस्तुति, अपने ब्लॉग के बारे में नहीं बताया कभी, आज वटवृक्ष के माध्यम से यहाँ पहुंचा। मेरे ब्लॉग पर आपके सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी।

    -नीरज

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  2. शुक्रिया नीरज जी ..... अवश्य

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