Monday, 7 January 2013

मानवता

शाम थी कितनी अकेली
रात बाहों  मे थी खेली
स्वप्न खुद फिरता रहा बेज़ार सा
तुम मगर फिर भी न रोई ,

हौसलों से तुमने थामा सूर्य को
जांच ली उसके लिए दीवानगी
तप्त सी किरने भी गुजरीं फिर लहू से
तुम मगर फिर भी न रोई ,

आस थी जगती जो मन मे
नैन थे सहमे सहन मे
डर भले चक्कर लगाए बावरा सा
तुम मगर फिर भी न रोई ,

आज फिर क्यों आसुओं की धार है
हर नसों मे फूटता चीत्कार है
है लहू भी दग्ध जैसे कोई ज्वाला
शब्द गूँजे यूं पिये जैसे हों हाला ,

घाव उसका है तुम्हें भी टीसता सा
दर्द उसका है तुम्हें भी पीसता सा
हो यहाँ शामिल भी तुम अब वृक्ष बनकर
है खड़ी बहती नदी के बीच जो मानव सी होकर !!




अर्चना राज

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