Wednesday, 13 February 2013

बसंत

कोई कविता गुजरती है मुझसे ,

बादलों की सतह पर फाहे सी उड़ान भरती
मधुकर के मौसम मे तितलियों सी बहकती
बासन्ती धड़कनों को टेसुओं से रंगती ,

कुछ यूं भी कि मानो
बसंत ने साँसों की साझेदारी स्वीकार ली हो
हवाओं मे सुगंध से घुली रौशनी संग ,

कविता यूं भी गुजरती है मुझसे
कि भूख पपोटों पर सूख गयी हो
फ्राक सलवार न होने की जद्दोजहद से बोझिल हो ,
जैसे कोई शाम सूरज की हथेली पर स्वाहा हो जाय
या फिर एक सुबह धूप कि जगह धुए संग जन्मी हो ,

कविता का गुजरना मात्र संवेगों का वहन भर ही नहीं
शब्दों मे ज़िंदगी को नगमा बना देने की पहल भी है
अश्क अब भी हैं आँखों मे
रंगों के  महल की तफरीह के लिए ,

बसंत दोनों ही पहलुओं से फूट पड़ा है !!!



        अर्चना राज 

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