गूँजती रहती हैं चीखें अनवरत सी
शब्द जगता है धरा से कांप उठती हैं शिराएँ
व्यर्थ है पर ,
बेसबब यूं चीखना और शोर करना
नाम आंदोलन का लेकर हो भले आह्वान करना
कैद है सब बेड़ियों मे वक्त की ;
सब भुला देंगे तुम्हें भी संग तुम्हारे
कि शब्द की सीमा है इक ,
कुछ तो है चुभता हुआ सा पर जहन मे
जोड़ देता है जो मानव को उसी से
खोज करनी है उसी की ---सुर मे लाना है उसी को
कोशिशें की अनगिनत और गंवाया भी बहुत कुछ
तब समझ आया है ये -----
शब्द बदलें ये नहीं है कोई मुद्दा
सोच बदलें तब ही है उत्थान संभव !!
शब्द जगता है धरा से कांप उठती हैं शिराएँ
व्यर्थ है पर ,
बेसबब यूं चीखना और शोर करना
नाम आंदोलन का लेकर हो भले आह्वान करना
कैद है सब बेड़ियों मे वक्त की ;
सब भुला देंगे तुम्हें भी संग तुम्हारे
कि शब्द की सीमा है इक ,
कुछ तो है चुभता हुआ सा पर जहन मे
जोड़ देता है जो मानव को उसी से
खोज करनी है उसी की ---सुर मे लाना है उसी को
कोशिशें की अनगिनत और गंवाया भी बहुत कुछ
तब समझ आया है ये -----
शब्द बदलें ये नहीं है कोई मुद्दा
सोच बदलें तब ही है उत्थान संभव !!
No comments:
Post a Comment