सपनो का टूटना फ़िक्र की बात नहीं टूट ही जाते हैं अक्सर ,
इनका पलना जरूरी है कुंद होने से बचने की खातिर इनका बिखरना भी उतना ही जरूरी है कि हर सृजन की शुरुआत टूटे स्वप्न की बदसूरत किर्चियों से ही होती है ,
समेटने में हथेली ही नहीं सीना भी छलनी हो जाता है सुर्ख धार दर्द की कलम के हिस्से आती है फिर लिखा जाता है कोई सूत्र वाक्य जीवन का अपनाया जाता है व्यक्ति तब बनता है इन्सा सही मायनों में हर तकलीफ और दर्द की सतह से ऊपर रचता हुआ जिन्दगी का काव्य-गद्य!!
चाँद सहमा रहा बादलों में जैसे बूँदें चिपक गयी हों हथेली से हवाओं में थरथराहट कंपकंपा उठी सीने में बेचैनी प्यास उतर आई रूहों तक पर मिलना फिर मुल्तवी हो गया जो उसने कहा मै लौट कर आता हूँ !!
सिगरेट शराब देह तुम्हारे लिए ही क्यों सुविधाजनक हो ओ पुरुष ----मेरे लिए क्यों नहीं कि अब जियूंगी मै भी स्त्री जीवन की तमाम वर्जनाओं को खुलेआम ,
प्रकृति इच्छाओं में भेद नहीं करती फिर समाज क्यों कि यदि नैतिक हो तो सभी के लिए अनैतिक भी तो सभी के लिए बिना किसी भेद के ,
दुभाषिये के चश्मे से मापदंडों को अस्वीकार करती हूँ तुम भी करो स्त्री बढ़ो एक कदम और बंधन मुक्ति की राह में !!