बंद आँखों के गलियारों से
अब भी गुजर जाता है
बचपन का वो हसीन मंजर
जब बरामदे की जाली से दिखता था
ठीक सामने एक विशाल पहाड़ ;
जिस पर नज़रें बारहा ठहर जाती थीं
उमगने लगता था यूँ ही कुछ सीने में
बेमतलब सा
और जब ठंडी हवाओं के छूकर गुजरने भर से
रूमानियत गुदगुदाया करती थी ,
तब उम्र नहीं थी कि
उस पहाड़ के तल्ख़ दर्द के पाताल में उतर सकूं
और समझ सकूं
कि पहाड़ के जिस्म से उगा
वो लहराती पत्तियों वाला दरख़्त
दरअसल मिटटी के गीले दर्द कि
हरी पैदाइश भर है ,
बस उस दरख्त की
तटस्थ मुस्कुराहट ही नज़र आती
पहाड़ के मौन दर्द का तो
अनुमान भी नहीं होता था ज़हन में ,
उगते सूरज की पहली किरण
पहाड़ पर जब हर तरफ बिखरने लगती
और वो अंगडाइयां लेता हुआ
आहिस्ता-आहिस्ता जगता
तब भी उन उनींदी आँखों से
रात का अलसाया दर्द छलक उठता;
रात भर उसने दर्द के प्यालों से
जो हमजोलियाँ निभाई थीं
वही अब उसकी आँखों में
सुर्ख रंगत सा नज़र आता ,
दिन भर की तमाम गतिविधियों के दौरान भी
उसकी वो बेचैन निगाहें टिकी रहतीं
बेहद ग़मगीन सी
मेरे घर के ठीक सामने से गुजरती हुई सड़क पर
जो न जाने कहाँ से आती थी
और न जाने कहाँ तक जाती थी ,
दोपहर की तेज़ धूप में भी
जो बेतरह जलाया करती थी उसे
बेहद पुरसुकून अंदाज़ में ;
वो लगातार निर्निमेष आँखों से
उस चमकती काली सड़क को ही निहारा करता ;
मै देखती उसे यूँ ही चुपचाप
और कभी-कभी अनजाने ही
उसकी ख़ामोशी मेरे अश्कों में झलक उठती
बे-वजह .. बे - मकसद ,
गोधूली में जब हर कोई
वापस लौटता अपने आशियाने को
तब भी वो पहाड़
चुपचाप टकटकी लगाए रहता
उसी धूल भरी सड़क पर
मानो कोई समाधिस्थ योगी
अपने इष्ट के इंतज़ार में
सदियों से बिना पलक झपकाए बैठा हो ,
ख़ामोशी से उस पहाड़ को देखते हुए
अनगिनत प्रश्न उठा करते मन में
कि ऐसा क्यों है ?
क्यों इस पहाड़ के अंतस में
एक बेचैन लहराता सा
समंदर नज़र आता है ?
क्यों इसकी आँखें
सुर्ख सन्नाटे को जिन्दा रखती हैं ?
क्यों नहीं ये भी बारिश में खुद को
खुल कर भीग जाने देता ?
क्यों नहीं ठंडी हवाओं कि सिहरन
अपने अन्दर महसूस कर पाता ?
या फिर बसंत में भी
इस पर उगा दरख़्त
क्यों इस कदर
सूना ही रहता है
न इस पर रंग बिरंगे फूल आते हैं
न ही पक्छियों का जमावड़ा और उनका शोर गुल
मधुर स्वर लहरी सा सुनाई देता है ?
पर अब जब तुम अचानक
बिना कुछ कहे सुने
मुझे यूँ एक प्रश्नचिन्ह सा
तनहा छोड़ गए हो
तब मै ये समझ पाई हूँ
मेरे हमनफज
कि कैसे सिर्फ एक अहसास
एक पूरी जिन्दगी पर
दर्द के अब्र सा छा जाता है ;
कैसे वो किसी के अस्तित्व के
मायने बदल देता है;
कि कैसे एक दर्द
किसी की खुशियों और उम्मीदों पर
अमरबेल सा पसर जाता है
शेष उम्र भर के लिए ,
अब वो पहाड़ और मै
एक ही दर्द के साझीदार हैं
शायद अनंतकाल तक ...!!
अर्चना राज !!
अब भी गुजर जाता है
बचपन का वो हसीन मंजर
जब बरामदे की जाली से दिखता था
ठीक सामने एक विशाल पहाड़ ;
जिस पर नज़रें बारहा ठहर जाती थीं
उमगने लगता था यूँ ही कुछ सीने में
बेमतलब सा
और जब ठंडी हवाओं के छूकर गुजरने भर से
रूमानियत गुदगुदाया करती थी ,
तब उम्र नहीं थी कि
उस पहाड़ के तल्ख़ दर्द के पाताल में उतर सकूं
और समझ सकूं
कि पहाड़ के जिस्म से उगा
वो लहराती पत्तियों वाला दरख़्त
दरअसल मिटटी के गीले दर्द कि
हरी पैदाइश भर है ,
बस उस दरख्त की
तटस्थ मुस्कुराहट ही नज़र आती
पहाड़ के मौन दर्द का तो
अनुमान भी नहीं होता था ज़हन में ,
उगते सूरज की पहली किरण
पहाड़ पर जब हर तरफ बिखरने लगती
और वो अंगडाइयां लेता हुआ
आहिस्ता-आहिस्ता जगता
तब भी उन उनींदी आँखों से
रात का अलसाया दर्द छलक उठता;
रात भर उसने दर्द के प्यालों से
जो हमजोलियाँ निभाई थीं
वही अब उसकी आँखों में
सुर्ख रंगत सा नज़र आता ,
दिन भर की तमाम गतिविधियों के दौरान भी
उसकी वो बेचैन निगाहें टिकी रहतीं
बेहद ग़मगीन सी
मेरे घर के ठीक सामने से गुजरती हुई सड़क पर
जो न जाने कहाँ से आती थी
और न जाने कहाँ तक जाती थी ,
दोपहर की तेज़ धूप में भी
जो बेतरह जलाया करती थी उसे
बेहद पुरसुकून अंदाज़ में ;
वो लगातार निर्निमेष आँखों से
उस चमकती काली सड़क को ही निहारा करता ;
मै देखती उसे यूँ ही चुपचाप
और कभी-कभी अनजाने ही
उसकी ख़ामोशी मेरे अश्कों में झलक उठती
बे-वजह .. बे - मकसद ,
गोधूली में जब हर कोई
वापस लौटता अपने आशियाने को
तब भी वो पहाड़
चुपचाप टकटकी लगाए रहता
उसी धूल भरी सड़क पर
मानो कोई समाधिस्थ योगी
अपने इष्ट के इंतज़ार में
सदियों से बिना पलक झपकाए बैठा हो ,
ख़ामोशी से उस पहाड़ को देखते हुए
अनगिनत प्रश्न उठा करते मन में
कि ऐसा क्यों है ?
क्यों इस पहाड़ के अंतस में
एक बेचैन लहराता सा
समंदर नज़र आता है ?
क्यों इसकी आँखें
सुर्ख सन्नाटे को जिन्दा रखती हैं ?
क्यों नहीं ये भी बारिश में खुद को
खुल कर भीग जाने देता ?
क्यों नहीं ठंडी हवाओं कि सिहरन
अपने अन्दर महसूस कर पाता ?
या फिर बसंत में भी
इस पर उगा दरख़्त
क्यों इस कदर
सूना ही रहता है
न इस पर रंग बिरंगे फूल आते हैं
न ही पक्छियों का जमावड़ा और उनका शोर गुल
मधुर स्वर लहरी सा सुनाई देता है ?
पर अब जब तुम अचानक
बिना कुछ कहे सुने
मुझे यूँ एक प्रश्नचिन्ह सा
तनहा छोड़ गए हो
तब मै ये समझ पाई हूँ
मेरे हमनफज
कि कैसे सिर्फ एक अहसास
एक पूरी जिन्दगी पर
दर्द के अब्र सा छा जाता है ;
कैसे वो किसी के अस्तित्व के
मायने बदल देता है;
कि कैसे एक दर्द
किसी की खुशियों और उम्मीदों पर
अमरबेल सा पसर जाता है
शेष उम्र भर के लिए ,
अब वो पहाड़ और मै
एक ही दर्द के साझीदार हैं
शायद अनंतकाल तक ...!!
अर्चना राज !!
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