Sunday, 5 February 2012

dhoop

धूप...
तुम बिन तरसता है मन ;
मायके में पसरी पड़ी हो
पिया घर आती क्यों नहीं ,

धूप...
तुम बिन तरसता है मन;
वहां आम के पत्तों से
लिपट -चिपटकर
बचकर -छनकर
आ जाती हो ;
पूरे आँगन में
निढाल प्रियतमा सी
छा  जाती हो;
जबरन कमरों में सरक जाती हो ,
खिडकियों को धकेलकर
उनके बीच से होते हुए
मेरे बिस्तर पर छा जाती हो ;
तुम्हारी ही थपकियाँ
सुलाती हैं मुझे ;
तुम ही तो छूकर
जगाती मुझे,

पर धूप ....
पिया घर आती क्यों नहीं;
यहाँतुम बिन तरसता है मन ;
छूने को बेकल
पाने से मजबूर ;
तुम्हें झांकती - ताकती रहती हूँ मै;
बाट जोहती ..... अब आओगी ...
शायद अब तो आ जाओ ...
पर तुम
बगल की छत से गुजर जाती हो
बिना देखे - बिना पलटे
किसी मानिनी की तरह ,
और मै
फिर अगले दिन की राह देखती हूँ ,

क्या तुम मुझसे रूठी हो
या फिर आना नहीं चाहती
मेरे पास - मेरे घर ...
यहाँ न आम के पत्ते हैं
न आँगन
न खिड़की की जाली है
न सोने को वक्त...
क्या इसीलिए तुम नहीं आती हो ,

तो फिर ठीक है .. न आओ
पर मै तुम्हे चाहती रहूंगी
अँधेरे की तरह ..
अपना कर्तव्य पूरा कर
हर रात जिसके आगोश में सिमटने को
तुम बेचैन सी दौड़ी चली जाती हो ,

कभी तो अँधेरा और मै
एकाकार होंगे ;
और तुम मेरे आगोश में
सोने आओगी
तब सारी  अभिलाषाएं पूरी होंगी ,
पर धूप
अभी तो तुम बिन तरसता है मन ...!!!


           अर्चना राज !!

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