Friday, 11 May 2012

क्षणिकाएं ---मार्च १२

दर्द बेहद हो तो कराह उठता है बेमकसद भी
करार आता नहीं फकत मौत नज़र आती है !!

फलक पे चाँद ठहरा था ज़मीं पे तुम नज़र आये
तो यूँ सोचा तेरे दामन में सारी शब् गुजर जाए !!

 इश्क यूँ होने और न होने के बीच की कशमकश भी है
 गुजर जाती है उम्र अक्सर इस समझ की आज़माइश में !!

पुकारा था तुमने इक रोज मेरा नाम बड़ी शाइस्तगी से
ठहरा हुआ है हवाओं में जो अब तक ख़ामोशी बनकर !!

हवाओं के दामन में देखो कितने ही ज़ख्म पला करते हैं
फिरती रहती हैं फिर भी ये अश्कों को आँचल में सहेजे !!

लगा था उम्र यूँ ही गुजर जायेगी तन्हाइयों से लड़ते हुए
सितारा फलक से टूटा तो आसमा हमदम लगने लगा !!

मुस्कुराहट अपने लबों पर अब सारी उम्र यूँ ही बिखरने दो
उदासिया तो तुम्हारे शहर की तमाम मै समेट लायी हूँ !!

सहमकर उस पल ही दर्द मेरा थम सा गया था
जिस पल तेरी आँखों में मैंने चाहत को पिघलते देखा !

ठहरो ज़रा की मै थाम लूं इन धडकनों के राग को
जो बिखर गए ये फिजां में तो फिर रागिनी बन जायेंगे !!

जला करते हैं जब अरमान मुहब्बत के
तो भला किसको ये ख़याल आता है
बेचैनियों का कारवाँ तो अक्सर ही
बस अश्कों के सैलाब से गुजर जाता है !!

उदासियों की चादर बनाकर
मुझे ओढने - बिछाने दो
सिमटने दो खुद को
इनके तल्ख़ दामन में

मेरी ही पीड़ा से जन्मी है ये
मुझमे ही फना होने के लिए !!


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