मिटटी को रगड़कर जिस्म से अपने ज़रा सोचो
खुशबू है जो इसकी क्या तुम्हें खुद की नहीं लगती,
इसी का तत्व तुममे है जो तुम अब भी सलामत हो
इसी के आब से तुम अब भी इक ज़िंदा इबारत हो ,
सीने पर इसी के तुम खडा संसार करते हो
तो फिर क्यों आज इसके सत्य से इनकार करते हो ,
आया वक्त है कि तुम करो स्वीकार अब इसको
कि मिटटी माँ का ही प्रतिरूप है खामोश रहकर भी !!
अर्चना "राज "
खुशबू है जो इसकी क्या तुम्हें खुद की नहीं लगती,
इसी का तत्व तुममे है जो तुम अब भी सलामत हो
इसी के आब से तुम अब भी इक ज़िंदा इबारत हो ,
सीने पर इसी के तुम खडा संसार करते हो
तो फिर क्यों आज इसके सत्य से इनकार करते हो ,
आया वक्त है कि तुम करो स्वीकार अब इसको
कि मिटटी माँ का ही प्रतिरूप है खामोश रहकर भी !!
अर्चना "राज "
No comments:
Post a Comment