Tuesday 15 May 2012

माँ

मिटटी को रगड़कर जिस्म से अपने ज़रा सोचो
खुशबू है जो इसकी क्या तुम्हें खुद की नहीं लगती,
 
इसी का तत्व तुममे है जो तुम अब भी सलामत हो
इसी के आब से तुम अब भी इक ज़िंदा इबारत हो ,

सीने पर इसी के तुम खडा संसार करते हो
तो फिर क्यों आज इसके सत्य से इनकार करते हो ,

आया वक्त है कि तुम करो स्वीकार अब इसको
कि मिटटी माँ का ही प्रतिरूप है खामोश रहकर भी !!




                                           अर्चना "राज "

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