Wednesday, 9 May 2012

क्षणिकाएं

तुम्हारे अंतस से उपजी पीड़ा छलक उठती है मेरी आँखों से

तुम्हारे दर्द का दरिया मैंने खुद में कुछ यूँ थाम रक्खा है !!



धडकती आह के साए में पलता दर्द अब थकने लगा है

सुनाई पड़ने लगी है आहट भी अब इक खामोश सफ़र की !!




बिस्तर की सिलवटों में किसकी हैं ये बेचैनियाँ

ये कौन है जो रात भर सज़दे में बस रोता रहा !!



बस चाँद की उम्मीद में हर रात वो जगती रही

आया भी जो कमबख्त तो पहलू बदलकर सो गया !!



नज़रों से यूँ बाजीगरी दिखाया नहीं करते

करते हैं अगर इश्क तो रुलाया नहीं करते

कह दो बस एक बार की हो तुम भी बस मेरे

ना कहके मुझे हर बार यूँ सताया नहीं करते !!

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