Monday, 1 February 2016

उदास कविता

आज कविता उदास है
कि कल तो रात भी ग़मगीन थी
बेहद ,
सीढियों से उतरकर भटक गयी थी आहट
ज़ख्मो की
सिलते वक्त मानो धागा कच्चा निकला हो
या पड़ गयीं हो गांठें उन्हें बांधते वक्त बीच में ही
लाल आंसू फिसल पड़े थे,
फिसल पडा था जैसे वक्त मुट्ठियों की दरारों से
टाइम मशीन की रफ़्तार लेकर
बच रही थी धूल बस और कुछ कण लम्हों के
और साथ ही बस रहा था विश्व का विशालतम जंगल
प्रेम के अभाव से
या यूँ कहें कि प्रेम के बचे रहे गए बीजकणों से
बेहद उर्वरा होकर भूरा जामा पहने,
बूँद-बूँद पीड़ा रेत हो रही थी
चमक रही थी कि सूरज मेहरबान था आज
कि नमी कि तमाम कोशिशों को नाकाम कर रहा था आज
बावजूद इसके कि उसकी किरणों में भी सिहरन थी बहुत
कि उसका अंतस भी डूबा हुआ था ,
आज कविता उदास है
कि उसके शब्दों में रंग मसले हुए फूलों के हैं
कि उसकी कलम तकलीफ की अस्थियों से बनी है
जो रच रही है लगातार दर्द को, दूरियों को, सहनशक्तियों को ,
कभी-कभी प्रेम यूँ भी मेरे हमनफ़ज !!

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