Friday, 5 February 2016

प्रेम यूँ भी

रात बुुन रही है सुंदर कविता
अलाव की लुकाठी थामे,
मिट्टी के सीने में सिहरन है
कि आसमान बस ढह पङने को है,
पहना दी जाएगी यही कविता
मिट्टी और आसमान के मिलन से उपजी
लथपथ भोर की पहली किरण को
रात की विरासत की तरह,
जिसे ओढ़ पूरा वो गुनगुनाती फिरे
किसी चिड़िया सी चहचहाती फिरे
और कर दे रूमानी धूप को भी,
शाम संधिकाल है
रात फिर होगी
अनेकों कविताओं के अदभुत प्रसव के लिए
कि अब तो सूरज को भी इंतजार है मीठी पीङाओं का,
प्रेम यूँ भी होता है
मेरे हमनफज।।

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