Wednesday, 3 February 2016

कवितायेँ

अनगिनत शामों के
तमाम हसीन लम्हों को कुचलकर
किसी ने लिख दिया है उसीसे
आंसू,
कहीं दूर कोई एक और शख्स
लिख रहा है अब तक
बस प्रेम
बच गयी यादों को थामे,
दोनों अपने -अपने दर्द को समेटे लङ रहे हैं
खुद ही खुद से।।


हर बात मेरी हर बार रही
आधी -आधी,
पूरे थे अहसासात मगर
पूरे थे सब जज्बात मगर,
मैं यूँ थी कि
जिस राह चली वो राह रही
आधी -आधी।।


मै प्रेम में हूँ
वो खुद से कहती
पर फिर पाती खुद को संभ्रम में ,
लम्बी बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रियाओं से 
अंततः बोझिल व् उदास हो वो थक गयी
और छोड़ दिया ये कहना ,

बरसों बाद बेहद अनपेक्षित
पर एक बार फिर उसने सुना खुद को कहते
मै प्रेम में हूँ
और अब आश्चर्य तो देखिये ,
इस बार वो सचमुच प्रेम में है
गहन गंभीर गरिमामय प्रेम की नदी में
हर सांस -सांस डूबी
एक संभ्रांत सुसंस्कृत महिला ,
क्या ये चरित्रहीनता है ?

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