Thursday, 4 February 2016

सुकून

सुकून टूटकर सितारों सा जा छिपा है
आसमां पर
कि मानो आसमां पर कोई मोरपंख छीजा पडा हो
लहूलुहान----- लम्बे अरसे से ,
ज़मीन की जड़ों से निकलकर कोई कीड़ा
लहू में फुंफकारता है
देह पीली पड़ जाती है
जबकी जहर का असर तो नीला होता है
महत्त्व भी नीला ही होता है
पर यहाँ रंगों का उलटफेर
दर्द की कवायद को कम नहीं करता
बढा देता है उलटे
कि जब मौसम इन्द्रधनुषों के निकलने का हो
ठीक उसी वक्त निकल आता है सूरज अपनी खोह से
अपने तीव्रतम ताप का पिटारा खोले
ठीक उसी वक्त तमाम घोंसले सुलगती राख का मटमैला आइना हो जाते हैं
और हो जाते हैं तमाम गीले ज़ख्म पपडियाये से
कि जैसे झरने से काँटों का कोई सोता फूट पड़े
कि जैसे हवाओं से साँसों का सम्पर्कसूत्र ही खो जाए
कि जैसे गुलाब से खुशबू का वास्ता ही न रहे
इस कदर की विभक्ति परिणामतः भयानक ही होती है
पर होती है ,
यूँ तो सुकून स्वीकार्य की परिणति है
संतोष का मित्र है
पर यही दो तत्व अक्सर वहां नहीं होते
जहां होता है प्रेम मेरे हमनफ़ज़ !!

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