Monday, 26 March 2012

बेड़ियाँ

 ठहरो ज़रा
सवालों का सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है 
करो इंतज़ार जवाबों के आने का  ज़रा कुछ और अभी ,

 सवालों को
अभी कुछ और पकने दो
जलने दो
कुछ और सुलगने दो वक्त की भट्ठी में ,

जवाबों की दहलीज़ अभी बहुत दूर है
टिकी है जो हालातों के काँधे पर सर टिकाये ,

संस्कारों औए परम्पराओं की कड़ियाँ
एक-एक कर बांधती रही हैं
अब तक सोच और शब्दों की आज़ादी को
और सिमटते रहे हैं तमाम क्यों
डायरी के पन्नो तक ही
उस दिन का इंतज़ार करते हुए
जिस दिन ये क्यों
वक्त की भट्ठी से निकलकर
या फिर कसी बेड़ियों के धीरे - धीरे बिखरने की उम्मीद में
जवाबों की दहलीज़ के नज़दीक पहुँच जाएँगे  ,

जहां सवाल सिर्फ सवाल होंगे
संदेह के शीशे से बना चश्मा नहीं
और जवाब भी सिर्फ जवाब होगा
शायद की सतह पर बिखरी रेत नहीं 
 जो भी होगा  मुकम्मल होगा  ..आधा- अधूरा नहीं ,

ये सवाल दर सवाल उलझती जिन्दगी 
जवाबों की दहलीज़ कभी न कभी तो पार करेगी ही 
जहां खिली धूप सा यकीन बाहें पसारे खडा होगा 
और जो सभी जनमते सवालों पर आश्वस्ती के 
मुस्कानों को चस्पां कर देगा ,


जिन्दगी फिर किसी सवालों के दायरे में बंधी नहीं होगी
बल्कि उन्मुक्त उड़ान के लिए तमाम आसमान भी 
जहां बाहें पसारे इंतज़ार में ठहरा होगा ...!!








                  अर्चना "राज "


















 







 










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