कहाँ हो तुम....
खोजती रहती हैं मेरी आँखे
तुम्हारी परछाइयों के सिरे तक को भी
अनंत में आँखें गडाए----पर तुम नज़र नहीं आते ,
बाट जोहती रहती हूँ मै---पल के सौवें हिस्से में भी
तुम्हारे आने की; टकटकी लगाए
सडक के उस आखिरी किनारे तक ,
गतिहीन सी हो जाती हैं साँसें
जब अनायास ही सिसक उठता है दर्द मेरा;
अब तो पथरीली ज़मीन पर भी
मेरे कदमो के निशान गहराने लगे हैं ,
हवाओं संग कितने ही संदेशे भेजे तुमको
और जुगनुओं संग ज़ख्मो का दस्तावेज़ भी
जिससे अँधेरे के हवाले का बहाना भी शेष न रहे ;
सख्त इम्तहान से गुजरा है इंतज़ार मेरा
और खुश्क आँखें ख़ामोशी से बस बिलखती रही हैं ,
एक रोज हवाओं ने कुछ मोतियों को
हिफाजत से मेरे दुप्पट्टे में समेट दिया ;
मै सारी रात उन्हें महसूसती रही
कि कहीं ये मेरे वही तमाम अश्क तो नहीं
जो तुम्हारे सर्द अहसासों में अब तक पलते रहे थे;
या फिर मेरी चाहतों को ही तुमने
अपनी विरक्ति का सफ़ेद जामा पहना कर
लौटा दिया है वापिस मुझको ,
एक दिन मेरे ज़ख्मो के दस्तावेज़ भी
बैरंग वापस लौट आये ..अनछुए से;
जुगनुओं कि रौशनी भी तुम्हारी उपेक्षा से मृतप्राय सी थीं;
मै स्तब्ध रह गयी फिर भी स्वीकार लिया इन सबको
आहत भाव के साथ
क्योंकि इनमे अब भी तुम्हारे नज़र की तासीर बाकी है
बेशक वो उपेक्षा से ही क्यों न जन्मी हो ,
समेट लिया है इन सबको तुम्हारी ही अमानत समझकर
पर न जाने क्यों अब भी टिकी रहती हैं
मेरी धडकती नज़रें
सडक के उस आखिरी किनारे पर...!!
अर्चना "राज "
खोजती रहती हैं मेरी आँखे
तुम्हारी परछाइयों के सिरे तक को भी
अनंत में आँखें गडाए----पर तुम नज़र नहीं आते ,
बाट जोहती रहती हूँ मै---पल के सौवें हिस्से में भी
तुम्हारे आने की; टकटकी लगाए
सडक के उस आखिरी किनारे तक ,
गतिहीन सी हो जाती हैं साँसें
जब अनायास ही सिसक उठता है दर्द मेरा;
अब तो पथरीली ज़मीन पर भी
मेरे कदमो के निशान गहराने लगे हैं ,
हवाओं संग कितने ही संदेशे भेजे तुमको
और जुगनुओं संग ज़ख्मो का दस्तावेज़ भी
जिससे अँधेरे के हवाले का बहाना भी शेष न रहे ;
सख्त इम्तहान से गुजरा है इंतज़ार मेरा
और खुश्क आँखें ख़ामोशी से बस बिलखती रही हैं ,
एक रोज हवाओं ने कुछ मोतियों को
हिफाजत से मेरे दुप्पट्टे में समेट दिया ;
मै सारी रात उन्हें महसूसती रही
कि कहीं ये मेरे वही तमाम अश्क तो नहीं
जो तुम्हारे सर्द अहसासों में अब तक पलते रहे थे;
या फिर मेरी चाहतों को ही तुमने
अपनी विरक्ति का सफ़ेद जामा पहना कर
लौटा दिया है वापिस मुझको ,
एक दिन मेरे ज़ख्मो के दस्तावेज़ भी
बैरंग वापस लौट आये ..अनछुए से;
जुगनुओं कि रौशनी भी तुम्हारी उपेक्षा से मृतप्राय सी थीं;
मै स्तब्ध रह गयी फिर भी स्वीकार लिया इन सबको
आहत भाव के साथ
क्योंकि इनमे अब भी तुम्हारे नज़र की तासीर बाकी है
बेशक वो उपेक्षा से ही क्यों न जन्मी हो ,
समेट लिया है इन सबको तुम्हारी ही अमानत समझकर
पर न जाने क्यों अब भी टिकी रहती हैं
मेरी धडकती नज़रें
सडक के उस आखिरी किनारे पर...!!
अर्चना "राज "
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