tumhen yaad hai ??
जब हम तुम दोनों बैठे थे यूँ ही
नदी किनारे ... ख़ामोशी से,
तुमने अपनी मुस्कुराती आँखों से देखा था मुझे;
और तुम्हारी उन आँखों में
न जाने कितने जंगल ; पहाड़ ; पक्छी और दरिया
कुछ कहते से लगे थे मुझे .. अर्थ पूर्ण
और मानो सारी सृष्टि ही विहंस पड़ी थी,
अचानक ही न जाने क्या सूझा तुम्हे
की तुमने गीली मिटटी से अपना नाम
मेरी हथेलियों पे लिख दिया
और मेरी मौन हथेलियाँ
बरबस ही स्पंदित हो उठी थीं,
डूबते सूरज की लालिमा ने भी
पूरी सौजन्यता से .. मेरी हथेलियों को
एक अद्भुत आभा से भर दिया था,
तुम्हे याद है
जब विदा के वक्त .. तुमने आहिस्ता से
मेरी हथेलियों पर लिखे खुद के नाम पर
कंपकंपाती उंगलिया फेरी थीं
और तुम्हारी उद्दाम सी चाह
उनमे तरंगित हो उठी थी;
हम दोनों की नम आँखों में भी ,
रात भर मेरी हथेलियाँ
तुम्हारे नाम की मौजूदगी के अहसास से
यूँ धडकती रहीं मानो वहां तुम खुद हो;
और रात भर संभालती रही मै
तुम्हारे हाथों की छुअन को
अपनी धडकनों में,
सुबह तक तुम्हारे नाम की तपिश ने
जज़्ब कर लिया था
मेरे हाथों की लकीरों में पसरी नमी को ;
और तभी कुछ यूँ लगा की
जैसे गीली मिटटी इक रात की उम्र पार कर
तब्दील हो गई है
सुर्ख मेहंदी की रंगत में ;
और उसकी मोहक सी खुशबू बिखर रही है
तमाम कायनात में ...आहिस्ता - आहिस्ता ,
तुम्हे याद है ;
की फिर जब तुम मिले
तो किस कदर हुलसते हुए
कही थी मैंने तुमसे ये सारी बातें;
पर न जाने क्यों ..अचानक ही
एक सर्द छाया सी गुजर गयी थी ..तुम्हारे चेहरे से ;
और तुम्हारी आँखें सियाही की रंगत में बदल गयी थीं,
तुम्हारे चेहरे पर ;तुम्हारे स्पर्श में
एक साथ कितने ही
प्रश्न उग आये थे ;
कुछ कहा नहीं तुमने
बस एक बार पनीली आँखों से देखा मुझे
और चुपचाप उठकर चले गए थे;
मै भ्रमित सी बस देखती ही रह गयी थी,
तुमने तो उस वक्त ही
हमारे बीच बिखरने वालेदर्द का
एक अनचीन्हा सा आभास दे दिया था मुझे ;
पर जिसका अवश्यम्भावी होना
मैंने आज तक स्वीकार नहीं किया है,
आज तक वो दर्द
राहत का एक किनारा
पाने के इंतज़ार में सिसक रहा है;
और तुम्हारे भीतर उग आये
अनेकों प्रश्नों की वजह जानने की जिज्ञासा
एक निःशब्द चीख की तरह
मेरे चारों और गूँज रही है,
काश ! तुमने मुझे अपना ;
और अपने प्रश्नों का साझीदार बनाया होता
तो शायद
कोई दर्द ; कोई प्रश्न ; या फिर कोई काश !
इस कदर हमारे बीच
नागफनी सा ;खडा नहीं होता,
पर तुमने ऐसा नहीं किया
न जाने क्यों ?
और अब ये क्यों और तुम्हारा इंतज़ार
मेरी आदतों में शुमार है,
अब तो मेरा वजूद भी
गीली मिटटी से लिखे
तुम्हारे नाम सा हो गया है;
पर इस बार मेहँदी की रंगत ने
उसे एक सीली सी उम्मीद के बोझ से ढक दिया है;
और जिसकी खुशबू तीखी चुभन के साथ
मेरे आस पास तिरती रहती है हर वक्त,
ये सब क्या तुम्हे याद है
या फिर पता भी है ??
मेरे हम्न्फ्ज़ !!!!!
अर्चना "राज "
No comments:
Post a Comment