हवाओं की सतह पर
संदल की कलम से लिखा
ये किसका नाम है
बिखर रहा है जो आहिस्ता-आहिस्ता
तमाम कायनात में खुशबू की तरह ,
इस अदृश्य नाम का पुख्ता अहसास
जो भर देता है हम सबको
एक अज़ीम पुरसुकून बेचैन धडकनों से ,
समंदर की लहरों में भी जो
अपना निशान छोड़ जाता है
और जिसे खुद में जज्ब कर लेने की खातिर
लहरें लगातार किनारे से टकराती रहती हैं ,
ओस की चादर के फैलने से पहले ही
मानो धरती को उसकी नमी की आहट मिल जाती है
और उसका पोर-पोर अनायास ही
एक अदृश्य बेचैनी में तब्दील हो जाता है
उसके दामन में खुद को छुपा लेने की खातिर ,
ये किसका नाम है जो
तितलियों के पंखों में
सतरंगी लकीरों से लिखा नज़र आता है
और जिसकी छुअन से ही
वो घबराई हुई सी
भागी-भागी फिरती है ,
किसका नाम है ये
जो पक्षियों को भी
इस कदर विचलित करने लगा है
की वो अँधेरी रातों में भी
इसकी खोज में भटकते रहते हैं
पर जो कभी नहीं मिलता ,
किसका है ये नाम
और किसने लिखा है
क्या कोई जान पाया है अब तक
या समझ भी पाया है
की आँखें मूंदते ही वो जो इक अक्स
नज़र आता है हम सबको
उसी की गहरी खामोश आँखों में
कहीं हमारे ही नामो के शब्द तो नहीं पल रहे
न जाने कब से
और अब एक स्तब्ध कर देने वाले यकीन के साथ
ये अहसास हममे ठहर सा जाता है
की क्यों हवाओं संग संदल की खुशबू
हममे घुलती रहती है
अपनी पुरसुकून बेचैनी का पिटारा खोले !!
अर्चना "राज "
संदल की कलम से लिखा
ये किसका नाम है
बिखर रहा है जो आहिस्ता-आहिस्ता
तमाम कायनात में खुशबू की तरह ,
इस अदृश्य नाम का पुख्ता अहसास
जो भर देता है हम सबको
एक अज़ीम पुरसुकून बेचैन धडकनों से ,
समंदर की लहरों में भी जो
अपना निशान छोड़ जाता है
और जिसे खुद में जज्ब कर लेने की खातिर
लहरें लगातार किनारे से टकराती रहती हैं ,
ओस की चादर के फैलने से पहले ही
मानो धरती को उसकी नमी की आहट मिल जाती है
और उसका पोर-पोर अनायास ही
एक अदृश्य बेचैनी में तब्दील हो जाता है
उसके दामन में खुद को छुपा लेने की खातिर ,
ये किसका नाम है जो
तितलियों के पंखों में
सतरंगी लकीरों से लिखा नज़र आता है
और जिसकी छुअन से ही
वो घबराई हुई सी
भागी-भागी फिरती है ,
किसका नाम है ये
जो पक्षियों को भी
इस कदर विचलित करने लगा है
की वो अँधेरी रातों में भी
इसकी खोज में भटकते रहते हैं
पर जो कभी नहीं मिलता ,
किसका है ये नाम
और किसने लिखा है
क्या कोई जान पाया है अब तक
या समझ भी पाया है
की आँखें मूंदते ही वो जो इक अक्स
नज़र आता है हम सबको
उसी की गहरी खामोश आँखों में
कहीं हमारे ही नामो के शब्द तो नहीं पल रहे
न जाने कब से
और अब एक स्तब्ध कर देने वाले यकीन के साथ
ये अहसास हममे ठहर सा जाता है
की क्यों हवाओं संग संदल की खुशबू
हममे घुलती रहती है
अपनी पुरसुकून बेचैनी का पिटारा खोले !!
अर्चना "राज "
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