Thursday 16 April 2015

ईश्वर हंस पड़ा

बारूद के ढेर पर खड़े शहर हंस रहे थे
मुस्कुरा रहे थे
जीवन की तमाम उर्जाओं से लथपथ ,
नहीं जानते थे खत्म बस होने को हैं 
नहीं जानते थे विनष्ट बस होने को हैं,
हर क्षण रच रहे थे ढेरों कविता
गा रहे थे सुरीले नज़्म
कर रहे थे बेहतरीन चित्रकारी
भर रहे थे मानव को असीम तृप्तिबोध से ,
ईश्वर स्तब्ध हो उठा
चकित भ्रमित आशंकित भी
फिर धीरे ---धीरे परिवर्तित करने लगा
बारूदों को
मिटटी में जल में वायु में
सौंप दिया शहर को फिर
शहर खिलखिलाया उन्मुक्त होकर
झडने लगे ढेरों बीज ख़ुशी के
ज़ज्ब होने लगे मिटटी के सीने में ,
एक रोज़ वहां कुछ फूल उगे
नीले-पीले लाल- गुलाबी
और असंख्य हो बिखरते रहे
समस्त धरा पर ,
इस बार ईश्वर हंस पड़ा
नम आँखों से !!

No comments:

Post a Comment