Thursday, 16 April 2015

मै हूँ स्त्री

मै हूँ स्त्री 
मुझमे रहती है एक नदी 
और रहता है प्रेम 
दोनों ही व्यवस्थित दोनों ही व्यस्त 
अपनी अपनी परिकल्पनाओं के निर्वाह में ,
भयंकर एकरसता व् उब से उपजे समय में
दोनों परिवर्तित होते हैं
बदल लेते हैं अस्तित्व एक-दूजे से ,
प्रेम विगलित हो नदी हो जाता है
नदी हो उठती है उदासी ,
इस एक वक्त मै स्त्री काष्ठ कि हो जाती हूँ
भाव व् अभिव्यक्ति से परे ,
कुछ पलों के मनबहलाव की वेदना के साथ दोनों
फिर लौट आते हैं अपनी -अपनी निजता में
बिना किसी अपराधबोध के
परिकल्पनाओं के निर्वहन हेतु ,
मै स्त्री फिर स्त्री हो जाती हूँ
पर कहीं कहीं रह जाते हैं मुझमे काष्ठ के बारीक कण
चुभते रहते हैं समय-असमय
भरती रहती हूँ मै यातना से धीरे-धीरे अपना अंतर्मन
रिसते-रिसते एक दिन मै स्त्री स्वयं नदी हो जाती हूँ
और प्रेम हो जाता है जल का मीठापन !!

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