मै हूँ स्त्री
मुझमे रहती है एक नदी
और रहता है प्रेम
दोनों ही व्यवस्थित दोनों ही व्यस्त
अपनी अपनी परिकल्पनाओं के निर्वाह में ,
भयंकर एकरसता व् उब से उपजे समय में
दोनों परिवर्तित होते हैं
बदल लेते हैं अस्तित्व एक-दूजे से ,
प्रेम विगलित हो नदी हो जाता है
नदी हो उठती है उदासी ,
इस एक वक्त मै स्त्री काष्ठ कि हो जाती हूँ
भाव व् अभिव्यक्ति से परे ,
कुछ पलों के मनबहलाव की वेदना के साथ दोनों
फिर लौट आते हैं अपनी -अपनी निजता में
बिना किसी अपराधबोध के
परिकल्पनाओं के निर्वहन हेतु ,
मै स्त्री फिर स्त्री हो जाती हूँ
पर कहीं कहीं रह जाते हैं मुझमे काष्ठ के बारीक कण
चुभते रहते हैं समय-असमय
भरती रहती हूँ मै यातना से धीरे-धीरे अपना अंतर्मन
रिसते-रिसते एक दिन मै स्त्री स्वयं नदी हो जाती हूँ
और प्रेम हो जाता है जल का मीठापन !!
मुझमे रहती है एक नदी
और रहता है प्रेम
दोनों ही व्यवस्थित दोनों ही व्यस्त
अपनी अपनी परिकल्पनाओं के निर्वाह में ,
भयंकर एकरसता व् उब से उपजे समय में
दोनों परिवर्तित होते हैं
बदल लेते हैं अस्तित्व एक-दूजे से ,
प्रेम विगलित हो नदी हो जाता है
नदी हो उठती है उदासी ,
इस एक वक्त मै स्त्री काष्ठ कि हो जाती हूँ
भाव व् अभिव्यक्ति से परे ,
कुछ पलों के मनबहलाव की वेदना के साथ दोनों
फिर लौट आते हैं अपनी -अपनी निजता में
बिना किसी अपराधबोध के
परिकल्पनाओं के निर्वहन हेतु ,
मै स्त्री फिर स्त्री हो जाती हूँ
पर कहीं कहीं रह जाते हैं मुझमे काष्ठ के बारीक कण
चुभते रहते हैं समय-असमय
भरती रहती हूँ मै यातना से धीरे-धीरे अपना अंतर्मन
रिसते-रिसते एक दिन मै स्त्री स्वयं नदी हो जाती हूँ
और प्रेम हो जाता है जल का मीठापन !!
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