Thursday 16 April 2015

छोटी कवितायेँ

बड़ा विकल था रात समन्दर भर - भर आंसू रोया था 
चाँद भी था बेचैन बहुत संग जिसके बादल सोया था 
बारिश थी संग किरणों के जो बौराई सी फिरती थीं 
जाने अब महबूब कहाँ था किसके दामन खोया था !!



सितारों को ज़मीं की बात करने दो 
हवाओं को नमी की बात करने दो 
बहुत जंगल कटे हैं उसके सीने में 
उसे अपनी कमी की बात करने दो !!



ओह्ह सुख
अप्रतिम अद्भुत प्रेम का ,
राग जैसे गा रहा मधुकर स्वयं ही
गीत जैसे लिख रहा मौसम स्वयं ही ,
भेदती हैं सांस को आहट किसी की
रेंगती हैं रक्त में चाहत किसी की ,
भीग मन जाता यहाँ मिटटी सरीखा
भीग तन जाता यहाँ बादल सरीखा ,
ओह्ह सुख
अप्रतिम अद्भुत प्रेम का !!



भीगी सी हंसी उसकी
कल बरस उठी मेरे शहर में
शहर हंस पडा
मै रो उठी ,
गीली वेदना से अभिभूत !!



कई बार उदासियों की सीवन उधड जाती है
सिला जाना जरूरी नहीं होता
पर हाँ ढके रहना चाहिए ,
कि जरूरत देखकर 
खुशियाँ भी मोहताज़ बना देती हैं
खुद का !!


भर अंजुरी वेदना फफक पड़ी खुली हथेलियों में 
कि जैसे रच रही हो चित्रकारी 
तमाम पश्चातापों की ...अधूरी ख्वाहिशों की 
जन्मदाता के मस्तक पर 
सदा-सर्वदा के लिए !!


गुलाबी सरहदों पर ढेरों चिनार सजने दो
उगने दो बुरांश के जंगल विस्तृत ,
हम तुम तो बस परिवर्तित होते रहें निरंतर
कथाओं में प्रेम होकर 
पर्याप्त है !!



जब वो हंस के कहता है
कोई नहीं यार घूम कर आता हूँ
यूँ लगता है कि दरांती का असर ताज़ा है .
कुछ ज़ख्मो में उसके 
तो बाकि के मेरे अश्कों में !!



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