Friday 17 April 2015

कवितायेँ

तुमसे
जब भी बातें करती हूँ
मन भीगा-भीगा हो उठता है ,
तारी हो जाता हैं ज़लज़ला साँसों में 
आवाज़ बह निकलती है ,
बेहद मुश्किल से ही फिर सैलाब को
थामना होता है ,
इसलिए मै चुप रहती हूँ .....
अक्सर
मेरे हमनफ़ज !!


वो
चाय पिलाता है पहले
फिर उधेड़ता है बखिया तहों की
एक एक कर ,
बड़े कायदे से फिर मुस्कुराता है
मेहरबानियों जैसा ,
हर बार सोचती हूँ करूंगी कुछ अच्छी बातें
कहूँगी कुछ
जो उसे खुशगवार करे ,
पर हर बार उठती हूँ कोफ़्त के साथ
उसे कोसते हुए .
मन
तू क्यों न हुआ मेरे जैसा
मेरे लिए !!


हथेलियों पर उगने लगे हैं पंख
सतह ज़ख़्मी है
टीसती नहीं पर न जाने क्यों ,
श्वेत कोमल भाव रचती रहती हैं कल्पनाएँ 
उछाह रंग भरते हैं
हौसला भी ,
पर टपक रही सुर्खी
हर बूँद के साथ गढ़ती है एक नयी रूमानियत
एक नयी तस्वीर परछाइयों के पोर्ट्रेट सी
दर्द के दस्तावेज़ सी भी ,
डायरी पीली पड चुकी है ....पन्ने भूरे
कमजोर इतने कि मसल दें गर तो लहू फिसल पड़े ,
श्वेत पंखों में गुलाबियत उतरने लगी है हौले से
ख़ामोशी चीख उठी
पर आवाज़ अब भी बंदिशों पर कायम है !!





















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