Friday 17 April 2015

तकलीफ

आहिस्ता से चूमकर आँखों को छू गया
सदियों की तकलीफ कोई ,
हथेलियों की बेचैनियों को थामकर सहलाकर
दुआओं का हाथ हो गया कोई ,
कतरा-कतरा दर्द यूँ रेज़ा-रेज़ा बिखर गया
जब टूटकर बिलखकर कह उठा कोई ,
खुदाया माफ़ करना मुझे मेरे बेहिसपने के लिए
उन आंसुओं के लिए कि जिनका सुकून नहीं
जरिया मै ही था
उन तकलीफों के लिए कि जिनका जानकार नहीं
वजह मै ही था
उस इश्क के लिए कि जिसका गुनाहगार नहीं
इबादत मै ही था ,
वो गिरकर रोता रहा
मैंने दिलासे दिए
दिलजोइयाँ कीं
फिर पलटकर चल दी तमाम उधडे ज़ख्मो को थामे
कि जो रिसने लगे थे अरसे बाद आज फिर से बेपर्दा होकर
कि जिनके फफोले मेरे सीने पर गुलाब की टहनियों से उभर आये थे
कि जिनके दर्द मेरी आँखों में मोतियाबिंद से उतर आये थे ,
किसी के सपनो के टूटने का बोझ अपनी इंसानियत पर लादे
वो एक शख्स देखता रहा दूर तक मुझे
कि जब तक मेरी पीठ पर कूबड़ नज़र नहीं आया
कि जब तक मेरी कमर दोहरी होकर मुझे अपाहिज नहीं कर गयी
कि जब तक मेरी झुर्रियां मेरे कदमो के निशानों में गहरे नहीं पैठ गयीं ,
फिर वो धीरे-धीरे खारी बूँद होता रहा
मै धीरे-धीरे कांच सी रेत ,
समन्दर में आज भी फूल नहीं उगा करते !!

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