Thursday, 21 December 2017

संशय

उन्हें नहीं पता
इन तमाम नदियों के बीच
उनकी जगह कहाँ है ,
तमाम नदियाँ हंसती हैं 
मुस्कुराती हैं
किल्लोल करती हैं आपस में ही
कसकर एक दुसरे की लहर में उलझी हुयी
गुंथी हुयी ,
तमाम नदियाँ फिजां में लिखती हैं सुंदर सरल कवितायेँ
फिर अपनी ही गोष्ठियों में उसे गाती हैं सुनाती हैं
हर नदी उत्फुल्ल मुक्त कंठ गान करती है
हर नदी सुनती है सराहती फिर प्रतिदान करती है
जगत में फ़ैल जाता है फिर इनका सुन्दर गान व् प्रतिदान
जगत आह्लादित है
आह ! कितनी सुंदर रचनाएँ हैं ये इश्वर की
अद्भुत अप्रतिम
दोनों बाहें पसारे करता है जगत स्वागत इनका
पुरस्कृत करता है
सम्मानित करता है
अपने भावों के बुरांश उन्हें अर्पित करता है
कुछ कचनार के सुन्दर पुष्प
कुछ रंग बिरंगे गुलाब की सुन्दर पंखुडियां
तो कुछ निर्मल निश्छल पवन दूब ही भेंट करते हैं
नदियाँ विनम्रता से दोहरी हुयी जाती हैं
फिर एक उछाल लेती हैं गर्वोक्ति की
विशिष्टता बोध की
इससे अनजान
कि कुछ धाराएँ अभी चिन्हित नहीं हुयी हैं
नहीं हो सकी हैं
पर सजग हैं चिंतातुर हैं
चिन्हित किये जाने को
सृष्टि की मोहकता में अविरल बहते जाने को
उनकी ही ओर देखती
उम्मीद की डोर सहेजती
कि वे इसे उनका कर्तव्य मानती हैं ,
फिलहाल तो
उन्हें नहीं पता
उनकी जगह कहाँ है ,
क्या वो लावारिस हैं ?

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