Saturday 9 December 2017

मुमकिन

मुमकिन है
कुछ सालों बाद तुम समझ पाओ
कि रेशम भी छीजता है
नदी भी टूटती है
और बदरंग होती है हल्दी की गाँठ भी ,
अगरबत्तियां झड जाती हैं
कुरेद कर लिखे नामो में सीलन भर जाती है
काली हो जाती हैं सुंदर आँखें
उँगलियाँ सख्त हो जाती हैं
मुमकिन है
तुम कहो उसे वक्त की बदमिजाजी
कहो चश्मे को बदला हुआ
या समझ की तस्वीर को धुंधला कहो ,
ये सब कहा जाना बेकार है मेरे हमनफ़ज़
कि टूटने के बाद आइना खुद का नहीं होता
कि टूटने के बाद बेशक चेहरे भी कई हो जाते हैं
पर भूलना मत कि वो तकसीम भी हो जाते हैं ,
भुलावों पर प्रेम नहीं टिकता
तुम चाहो तब पर भी नहीं |

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