Thursday, 21 December 2017

स्वप्न

रात देखा
वो भाई का कमरा ठीक कर रही थीं
बिखरी आलमारी में
सब कुछ तह कर खूब करीने से रख रही थी
बिस्तर की तुड़ी मुड़ी सिलवटें एक एक कर कितने जतन से मिटा रही थी 
एकदम परफेक्ट कर रही थीं सब कुछ
हमेशा की तरह बुदबुदाते हुए
बहुत लापरवाह है
पता नहीं कैसे संभालेगा खुद को
नीचे गिरी नयी नीली शर्ट पर नज़र पड़ते ही
झुंझला पडीं
ज़रा भी कदर नहीं किसी चीज की
सब कुछ फेंका रहता है
पर इस दरमियान उनकी नज़रें सूक्ष्मता से मुआयना करती रहीं
उसके बटन और काज़ का
फिर सुई धागे का डिब्बा निकाला
चश्मा आँखों पर चढ़ा नीले धागे को पिरोने लगीं
आँखें सिकोड़ बार बार धागे का सिरा सुई में डालने की कोशिश करने लगीं
फिर कुछ मायूस
उफ्फ्फ .....दिखाई भी नहीं पड़ता अब कायदे से
मुझसे हंसकर चिरौरी की
बेटा ज़रा धागा डाल दो
मै नखरे करने लगी
मटकने फुदकने लगी फिर वो थोडा कसकर बोलीं
सुना नहीं तुमने कह रही हूँ न धागा डाल दो
खिसियाई हुयी सी मुंह फुलाए आकर मुझे धागा डालना पड़ा
वो हंसीं और चूम लिया मुझे ,
अपनी उम्र भर वो यही तो करती रहीं
हमें संभालना संवारना perfect बनाने की कोशिश करते रहना
हमारे दुखों का कांधा बनना
हमारी निराशा की उम्मीद बनना
हमारी खुशियों में खिलखिलाहट हो जाना
उपलब्धियों में गर्व हो जाना
कहीं कोई चूक नहीं कोई भूल नहीं कभी भूले से भी ,
फिर ये कैसे हो गया
जो नहीं बताया उन्होंने कभी कि दुःख के पहाड़
आत्मा की घुटन भी हो सकते हैं
कभी नहीं सिखाया
कि हँसते हुए जब कभी कराह निकले तो कैसे छिपाऊं उसे
कि आंसू जब नसों में छाले सा दंश दें तब क्या करूँ
तब भी क्या करूँ जब अपनी जगह मै अपने बच्चों को खड़ा पाऊं
खुद को उनकी जगह ,
पर अब यूँ जीना भी जरूरी है
कि कतरा कतरा ये दुःख पीना भी जरूरी है
सांस लेनी जो है ,
और हाँ वो रात नहीं सपना था
और कमरा भी भाई का नहीं मेरा अपना था |

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