Thursday 21 December 2017

गुस्सा

समझ नहीं पाई
ये गुस्सा तुम्हें ही क्यों आता है
मुझे क्यों नहीं आता ,
घनघोर किस्म के गुस्से में भी 
बस मुट्ठियाँ ही कसीं
कहर कभी नहीं हुयीं मेरी आँखें
कभी फेंक नहीं पायी मै खाने की थाली
कभी ग्लास या कप नहीं तोडा
कभी नहीं फेंकी तड़ाक से कोई भी घडी
या मोबाइल
कभी दरवाज़ा नहीं पटका
गालियाँ भी नहीं दीं
पता नहीं क्यों ,
शायद मेरा गुस्सा संस्कारी है
आपे से बाहर नहीं जाता
बस अन्दर से खुद को कडा कर देता है
जैसे कडा कर देता है ज्वालामुखी का असीमित ज्वार
काली सुन्दर चट्टानों को
कुछ रुखा कुछ कड़वा भी
मुझे चुप कर देता है
और तुमसे मेरी आत्मा को कुछ और दूर ,
ये ख़ामोशी मुझे डराती है
इसलिए नहीं
कि मै क्रोध संयमित करने में भी अग्नि का इस्तेमाल करती हूँ
इसलिए
कि एक दिन कहीं यही अग्नि तुम्हारे लिए अग्निकुंड न साबित हो
साथी |

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