Monday 23 April 2012

मनुष्यत्व 2

रिश्तों में अनजाने  ही  उगने लगी है अब मौत की परछाइयां
अचानक लील जाती है जो पूरी शिद्दत से एक पूरे आशियाने को ,



घर घर में पसरने लगी  है अब बेचारगी की अमरबेल भी ऐसे
और जैसे ख़त्म होने लगा है अब आँखों में यूँ  सपनो का उगना  ,


अपनी नकारात्मकता को ही  हमने अपना सर्वस्व बना डाला है 
कि मनुष्य होने के असली मायने तक समझ नहीं आते हमको ,



फिर से आहट सुनाई पड़ने लगी है अब एक और समुद्रमंथन की  
और आज फिर जरूरत महसूस होने लगी है एक साकार शिव की ,


वो शिव जो समाज का तमाम गरल ग्रहण कर नीलकंठी बन सकें  
और वो शिव भी जो मुस्कुराते हुए ही हमें जीवन दर्शन समझा सकें !!







                                 अर्चना "राज "

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