Monday, 16 April 2012

मनुष्यत्व

सोच की शब्दों से एक मित्रवत जंग जारी है
सृष्टि के आरम्भ से ही ;
बस कभी कभी आवाज़ ने ही खुद को रोक रक्खा है
इसमें साझेदारी से ,

शब्दों की दुनिया में विचारों की सेंधमारी ने
अकल्पनीय बौखलाहट पैदा की है
तो शब्दों ने भी कलम की मदद से सोच की लकीरों को उकेरकर
उसे उकसाना जारी रक्खा है ;
पर ये कोशिशें  व्यर्थ हैं  तब तक
जब तक की इनकी मित्रता में आवाज़ की भागीदारी न हो ,

सोच ,शब्द और आवाज़ की तिकड़ी  ने ही
जन्म दिया है अब तक
न जाने कितने महायुध्हों और महान क्रांतियों को ,
तो विचारों को बचाए रखने और पालने पोसने का जिम्मा
नीली सियाही से धडकती कलम ने उठा रक्खा है ,

 पर आज न जाने क्यों आवाज़ ने खुद को समेट लिया है
 गले की परिधि के भीतर ही
 पूरी मर्मान्तक चेष्टा के साथ ;
और खुद के कर्तव्य भी
उसे अनाधिकार और अनावश्यक से लगने लगे हैं
न जाने क्यों उसकी चेतना ने
अतिसंयम का लौह बाना पहन रक्खा है ,

परन्तु आज उसे भी ये समझना होगा 
कि हनन और कष्ट तो इंसानों के लिए हैं
क्योंकि उन्ही की मृत्यु निश्चित है ,

परन्तु कभी भी कोई सोच ,कोई शब्द या कोई आवाज़ नहीं मरती;
.रंगों कि लाल - नीली लकीरों में वो हमेशा जीवित रहती है
परिवर्तन की मशाल जलाए रखने के लिए और
क्रांति के  जागृत होने  का आधार बनने के लिए भी ;
और ये उस वक्त तक के लिए है जब तक कि
संसार में मनुष्यता की विचारधारा
एक अधिकारबोध के रूप में कायम है !!


                   अर्चना "राज "





















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