Monday 23 April 2012

सपने


मिटटी की सतह पर फसल के साथ उगा करते हैं तमाम सपने भी
पलते हैं जो उसी की खाद पानी की उर्वरता के साथ ,

भोलू के सपनो में अक्सर दीखता है घर पे चमचमाता टीन का छप्पर
की जिसके होने से इस साल बारिश में राधा भीग भीगकर बीमार नहीं पड़ेगी ,
तो मनसुख की आँखों में बच्चों के पैरों में रंग बिरंगी चप्पलों और स्कूल ड्रेस का सपना है
जो उनकी फटी बिवाइयों और स्कूल न जा पाने की विवशता से उसे हरदम कचोटता रहता है ,
धनुआ बेटी की शादी इस साल कर ही देना चाहता है नहीं तो एक साल और पार करना होगा 
और फिर बात उसके रोटी -पानी की ही नहीं बल्कि धोती वगैरह के यक्ष प्रश्न से लड़ने की भी तो है ,

कईयों के सपने ऐसे ही फसलों संग हरियाते हैं , फूलते - फलते हैं ,
कभी - कभार पक भी जाया करते हैं
पर अक्सर ऐसा होता है की फसलों के काटने से पहले ही
सपने अपनी जड़ों से उखड जाया करते हैं ,
और सपनो की जगह भूख उपज आया करती है
और वो टिक्कड़ भी जो वो चटनी के आभाव में नमक से ही खा लिया करते हैं
और भरपेट पानी पीकर सोते हैं अगले सपने के जन्मने की चाह लिए ,

दरअसल हमारे सपने शहर की चकाचौंध में नहीं
बल्कि गाँव के सन्नाटों में जन्मा करते हैं ,
सरकार की किन्हीं नीतियों में नहीं
पेट पर कपडा बांधे सोने की नाकाम कोशिश करती हुई आँखों में पलते हैं,
किसी भी GDP GROWTH या सालाना TURN OVER से नहीं
बल्कि फसल काटने की उम्मीद में आगे बढ़ते हैं ,
और किसी भी ANNUAL REPORT से नहीं बल्कि
एक बारिश या सूखे से ही अपने अंजाम को पहुँचते हैं ,

ये मेरे और आपके सपने हैं
जो भूख से उपजते हैं और मरोड़ पर आकर ख़त्म हो जाते हैं ,

एक बार फिर से जन्मने के लिए
क्योंकि ये तो सपने हैं जिन्हें देखना अब तक  TAX FREE है !!




                                      अर्चना "राज "



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