Thursday 19 April 2012

व्यथा

मेरे दर्द की अदृश्य सतह से गुजरकर
मेरी रूह को इस कदर ज़ख़्मी किया है तुमने
की मेरी रूहानियत भी अब गहन पीड़ा के तबस्सुम से नम हो गयी है ,

पर मै अब भी तुम्हारे  अक्स को हवाओं के कोरे पन्नो पर उकेरकर 
यूँ ही लगातार घंटों अपलक निहारती रहती हूँ 
और अनायास ही एक लहर न जाने कब आहिस्ता से मेरी धडकनों में उतर आती है
और मै सिहर उठती हूँ ,

 सदियों तक मैंने तिरस्कृत धरती का भाग्य जिया है 
बस एक तुम्हारी उम्मीद की ऊँगली थामे 
कि कभी तो तुम बरसोगे....मेरे लिए 
पर जब भी तुम बरसे तो यूँ लगा 
की ज़ज्ब होने से पहले ही तुम भाप बनकर जुदा हो गए ,

फिर भी तुम्हारी सारी उपेक्षाओं से  ही मैंने 
अपनी सतह पर फैली तमाम दरारों को पाटने की पूरी कोशिश की है 
पर तुम न जाने क्यों उन्हें भी रह-रहकर अग्नि में परिवर्तित कर देते हो  ,
शायद अंतहीन पीड़ा से ही कभी सुख का अभ्युदय हो  
यही सोचकर मै सारा दावानल अंतस में सहेज लेती हूँ ,

इस अग्नि को मै खुद में परत दर परत इकट्ठा करती रही हूँ 
उस दिन के इंतज़ार में जब मै बेसाख्ता अपनी सतह से बाहर निकल कर फट पडूँगी 
और तब तुम चाहकर भी खुद को बरसने से रोक नहीं पाओगे 
और उस दिन ये तमाम कायनात भी उस  बर्फीले ज्वालामुखी के सैलाब में सराबोर हो जाएगा ,

धरती के व्यथा की परिणति तब उसके चरम सुख की अनुभूतियों में  होगी
 और तब उस दिन एक नए इतिहास की भी  रचना होगी !!




              अर्चना "राज "


No comments:

Post a Comment