Thursday 26 April 2012

रूहानी अहसास

दो रूहानी अहसास
सदियों कैद रहे
शीशे के एक बड़े से पारदर्शी कमरे में ;
जहाँ ठीक बीचोंबीच मौजूद थी
शीशे की एक मजबूत सी दीवार भी,

देखते और महसूस करते रहे वो एक दुसरे का होना ..क़यामत की तरह ,
बेचैन धड़कने अचानक घबराकर थम सी जातीं ;
और फिर अनायास ही बेहिसाब धड्क्तीं ,

दीवार की दोनों तरफ दोनों थे ;पर आधे - आधे बंटे हुए ,
दोनों की आँखों से छलकती अब्र की बूँदें ..दोनों को
दो अलग-अलग जिस्मो के आधे -आधे बंटे हिस्से  के
एक होने का सा सुकून देते ,

अजब सी बेचैनी ; जब उनके दामन से पिघलकर
खुशबुओं सी बिखरने लगती ;
तब पास बहती नदी तक दोनों साथ जाते
एक साथ ..पर वही, आधे-आधे बंटे हुए ,

इश्क की बेईन्तहाँ  आवारगी ;उनकी उँगलियों में सिमटने लगती;
पर छूने की कोशिश में एक सर्द और कठोर दीवार से टकरा जाती,

दरअसल , वो शीशे का कमरा तो वहीँ रहता
पर बीच की दीवार इनको  नामालूम सी , इनके साथ चलती,
यहाँ भी .... बीच में ,

अहसासों के तमाम जंगलों की ख़ाक छानते ;
दिन भर यहाँ वहां भटकते ;
और फिर थककर नदी की ठंडी धारा में पैर डुबो देते,
साफ़ पानी में अपना अक्स देखते
पर फिर वही .... बंटा हुआ,

मासूमियत बगावत में बदलने लगती;  पर फिर
बेचारगी रात की स्याह चादर सी
उनकी उम्मीदों पर छा जाती ,

दोनों थके कदमो से मायूस;खामोश वापस लौटते;
और एक बार फिर कैद हो जाते ;
शीशे के उसी कमरे के अपने अपने हिस्से में;
जहाँ मौजूद थी ठीक बीचोंबीच
वही कमबख्त ..मजबूत शीशे की दीवार ,

रात भर दोनों देखते रहते तप्त आँखों से
की किस तरह लहराती सी चांदनी
इठलाती ..बलखाती; किसी के आगोश में सिमटने को
दौड़ी सी चली जाती है ,

वो उसके आगोश में होने को महसूस करते
रात भर ..पर एक दुसरे की धडकनों में.. उनकी लय में
बेचैन आँखों से देखते हुए ;
और यूँ ही सदियाँ गुजरती रहीं
रात की तन्हाई के साए सी....!!!!


                     अर्चना "राज "

Monday 23 April 2012

सपने


मिटटी की सतह पर फसल के साथ उगा करते हैं तमाम सपने भी
पलते हैं जो उसी की खाद पानी की उर्वरता के साथ ,

भोलू के सपनो में अक्सर दीखता है घर पे चमचमाता टीन का छप्पर
की जिसके होने से इस साल बारिश में राधा भीग भीगकर बीमार नहीं पड़ेगी ,
तो मनसुख की आँखों में बच्चों के पैरों में रंग बिरंगी चप्पलों और स्कूल ड्रेस का सपना है
जो उनकी फटी बिवाइयों और स्कूल न जा पाने की विवशता से उसे हरदम कचोटता रहता है ,
धनुआ बेटी की शादी इस साल कर ही देना चाहता है नहीं तो एक साल और पार करना होगा 
और फिर बात उसके रोटी -पानी की ही नहीं बल्कि धोती वगैरह के यक्ष प्रश्न से लड़ने की भी तो है ,

कईयों के सपने ऐसे ही फसलों संग हरियाते हैं , फूलते - फलते हैं ,
कभी - कभार पक भी जाया करते हैं
पर अक्सर ऐसा होता है की फसलों के काटने से पहले ही
सपने अपनी जड़ों से उखड जाया करते हैं ,
और सपनो की जगह भूख उपज आया करती है
और वो टिक्कड़ भी जो वो चटनी के आभाव में नमक से ही खा लिया करते हैं
और भरपेट पानी पीकर सोते हैं अगले सपने के जन्मने की चाह लिए ,

दरअसल हमारे सपने शहर की चकाचौंध में नहीं
बल्कि गाँव के सन्नाटों में जन्मा करते हैं ,
सरकार की किन्हीं नीतियों में नहीं
पेट पर कपडा बांधे सोने की नाकाम कोशिश करती हुई आँखों में पलते हैं,
किसी भी GDP GROWTH या सालाना TURN OVER से नहीं
बल्कि फसल काटने की उम्मीद में आगे बढ़ते हैं ,
और किसी भी ANNUAL REPORT से नहीं बल्कि
एक बारिश या सूखे से ही अपने अंजाम को पहुँचते हैं ,

ये मेरे और आपके सपने हैं
जो भूख से उपजते हैं और मरोड़ पर आकर ख़त्म हो जाते हैं ,

एक बार फिर से जन्मने के लिए
क्योंकि ये तो सपने हैं जिन्हें देखना अब तक  TAX FREE है !!




                                      अर्चना "राज "



मनुष्यत्व 2

रिश्तों में अनजाने  ही  उगने लगी है अब मौत की परछाइयां
अचानक लील जाती है जो पूरी शिद्दत से एक पूरे आशियाने को ,



घर घर में पसरने लगी  है अब बेचारगी की अमरबेल भी ऐसे
और जैसे ख़त्म होने लगा है अब आँखों में यूँ  सपनो का उगना  ,


अपनी नकारात्मकता को ही  हमने अपना सर्वस्व बना डाला है 
कि मनुष्य होने के असली मायने तक समझ नहीं आते हमको ,



फिर से आहट सुनाई पड़ने लगी है अब एक और समुद्रमंथन की  
और आज फिर जरूरत महसूस होने लगी है एक साकार शिव की ,


वो शिव जो समाज का तमाम गरल ग्रहण कर नीलकंठी बन सकें  
और वो शिव भी जो मुस्कुराते हुए ही हमें जीवन दर्शन समझा सकें !!







                                 अर्चना "राज "

Saturday 21 April 2012

बचपन सुहाना

बहुत याद आता है बचपन सुहाना

गाँवों के रस्ते पे मिटटी उड़ाना
भरी दुपहरी में अमराई जाना
अमिया के चक्कर में बाज़ी लगाना
यूँ गिरते पड़ते ही मौजें मनाना
बहुत याद आता है बचपन सुहाना ,

भाई बहनों संग मिलकर हंगामा मचाना
जलती धूप में नंगे पैरों भटकना
माँ का वो कसकर इक चांटा लगाना
रोते हुए ही फिर मुझको मनाना
बहुत याद आता है बचपन सुहाना ,

वो अंधी बुढ़िया को हरदम सताना
खीझे जो वो तो ठहाके लगाना
उसकी लाठी को लेकर फिर दौड़ जाना
गलियां उसकी सुनकर भी उसको चिढाना
बहुत याद आता है बचपन सुहाना ,

खेतों की मेड़ों पे चक्कर लगाना
गेहूं की बाली से दाने चुराना
भाई का हंसकर यूँ आँखे दिखाना
फिर खुद ही हाथों में भरकर थमाना
बहुत याद आता है बचपन सुहाना ,

बरगद के नीचे गुड्डे - गुडिया बनाना
सखियों संग मिलकर फिर ब्याह रचाना
बिदाई के वक्त कुछ आंसू बहाना
इक दूजे संग फिर खूब खिलखिलाना
बहुत याद आता है बचपन सुहाना ,

बहुत याद आता है बचपन सुहाना !!

अर्चना "राज "

Thursday 19 April 2012

व्यथा

मेरे दर्द की अदृश्य सतह से गुजरकर
मेरी रूह को इस कदर ज़ख़्मी किया है तुमने
की मेरी रूहानियत भी अब गहन पीड़ा के तबस्सुम से नम हो गयी है ,

पर मै अब भी तुम्हारे  अक्स को हवाओं के कोरे पन्नो पर उकेरकर 
यूँ ही लगातार घंटों अपलक निहारती रहती हूँ 
और अनायास ही एक लहर न जाने कब आहिस्ता से मेरी धडकनों में उतर आती है
और मै सिहर उठती हूँ ,

 सदियों तक मैंने तिरस्कृत धरती का भाग्य जिया है 
बस एक तुम्हारी उम्मीद की ऊँगली थामे 
कि कभी तो तुम बरसोगे....मेरे लिए 
पर जब भी तुम बरसे तो यूँ लगा 
की ज़ज्ब होने से पहले ही तुम भाप बनकर जुदा हो गए ,

फिर भी तुम्हारी सारी उपेक्षाओं से  ही मैंने 
अपनी सतह पर फैली तमाम दरारों को पाटने की पूरी कोशिश की है 
पर तुम न जाने क्यों उन्हें भी रह-रहकर अग्नि में परिवर्तित कर देते हो  ,
शायद अंतहीन पीड़ा से ही कभी सुख का अभ्युदय हो  
यही सोचकर मै सारा दावानल अंतस में सहेज लेती हूँ ,

इस अग्नि को मै खुद में परत दर परत इकट्ठा करती रही हूँ 
उस दिन के इंतज़ार में जब मै बेसाख्ता अपनी सतह से बाहर निकल कर फट पडूँगी 
और तब तुम चाहकर भी खुद को बरसने से रोक नहीं पाओगे 
और उस दिन ये तमाम कायनात भी उस  बर्फीले ज्वालामुखी के सैलाब में सराबोर हो जाएगा ,

धरती के व्यथा की परिणति तब उसके चरम सुख की अनुभूतियों में  होगी
 और तब उस दिन एक नए इतिहास की भी  रचना होगी !!




              अर्चना "राज "


Tuesday 17 April 2012

तुम्हारी ख़ामोशी

तुम अब भी खामोश हो ...........
ख़ामोशी क्या अब भी तुम्हे शब्दों से ज्यादा सुकून देती है
या फिर इसकी ओट में तुम मुझसे वो सब कहने से
खुद को रोक पाते हो जो मै बहुत शिद्दत से सुनना चाहती हूँ ,

क्या मेरा चाहना तुम्हारे लिए रेत के उस घरौंदे की तरह है
जो बनते हुए ही बार-बार, न जाने कितनी बार बिखर जाया करता है
या फिर सहरा में उडती उस अदृश्य लहर की तरह
 जिसका न थमना भी रेत के समन्दर के लिए कोई मायने नहीं रखता ,

बासंती हलचलों से तुम क्यों इस कदर घबरा जाया करते हो
और क्यों पक्षियों का कलरव भी तुम्हें शोर सा लगता है ,
दिन की गुनगुनी धुप भी तुम खुद में नहीं संभाल पाते
और न ही चाँद की आशिकमिजाजी को नज़र भर देखने की चाह रखते हो ,

आसमान पर लहराता सिन्दूरी आँचल भी क्यों कभी तुममे उमंगें नहीं जगाता
और क्यों तुम तमाम प्राकृतिक हरियाली को मेरी साड़ी के किनारे पर 
गोटे सा लगाने की ख्वाहिश नहीं रखते ,

क्या मै तुम्हारे लिए इस कदर अस्तित्वहीन हूँ कि
तुम्हारी ठहरी हुई आँखों में मुझे देखकर कभी कोई विचलन नहीं होती
या फिर तुम्हारी भावनाएं ही इस कदर नियंत्रित और जड़ हैं 
कि जिनमे मेरी बेचनी भी कभी कोई हलचल नहीं जगा पाती,


परन्तु तुम तो अब तक भी खामोश हो 
शायद तुम्हें खुद का मेरे साथ होने से मेरा सामने होना ज्यादा सुकून देता है 
और ये भी तो हो सकता है कि तुम्हारा तटस्थ मौन ही तुम्हारे प्रेम का सबसे सबल प्रमाण हो .
पर न जाने क्यों एक बार फिर  तुम्हारी ख़ामोशी 
 मुझे  दर्द के  समन्दर में तब्दील करती जा रही है !!




                                   अर्चना "राज "





























 








































Monday 16 April 2012

मनुष्यत्व

सोच की शब्दों से एक मित्रवत जंग जारी है
सृष्टि के आरम्भ से ही ;
बस कभी कभी आवाज़ ने ही खुद को रोक रक्खा है
इसमें साझेदारी से ,

शब्दों की दुनिया में विचारों की सेंधमारी ने
अकल्पनीय बौखलाहट पैदा की है
तो शब्दों ने भी कलम की मदद से सोच की लकीरों को उकेरकर
उसे उकसाना जारी रक्खा है ;
पर ये कोशिशें  व्यर्थ हैं  तब तक
जब तक की इनकी मित्रता में आवाज़ की भागीदारी न हो ,

सोच ,शब्द और आवाज़ की तिकड़ी  ने ही
जन्म दिया है अब तक
न जाने कितने महायुध्हों और महान क्रांतियों को ,
तो विचारों को बचाए रखने और पालने पोसने का जिम्मा
नीली सियाही से धडकती कलम ने उठा रक्खा है ,

 पर आज न जाने क्यों आवाज़ ने खुद को समेट लिया है
 गले की परिधि के भीतर ही
 पूरी मर्मान्तक चेष्टा के साथ ;
और खुद के कर्तव्य भी
उसे अनाधिकार और अनावश्यक से लगने लगे हैं
न जाने क्यों उसकी चेतना ने
अतिसंयम का लौह बाना पहन रक्खा है ,

परन्तु आज उसे भी ये समझना होगा 
कि हनन और कष्ट तो इंसानों के लिए हैं
क्योंकि उन्ही की मृत्यु निश्चित है ,

परन्तु कभी भी कोई सोच ,कोई शब्द या कोई आवाज़ नहीं मरती;
.रंगों कि लाल - नीली लकीरों में वो हमेशा जीवित रहती है
परिवर्तन की मशाल जलाए रखने के लिए और
क्रांति के  जागृत होने  का आधार बनने के लिए भी ;
और ये उस वक्त तक के लिए है जब तक कि
संसार में मनुष्यता की विचारधारा
एक अधिकारबोध के रूप में कायम है !!


                   अर्चना "राज "





















Sunday 8 April 2012

ख्वाहिश

मै तुम्हारे घर के दहलीज़ की
वो चौखट हो जाना चाहती हूँ
जो तुम्हारे कदमो के स्पर्श से
न जाने कितनी बार सिहर उठा होगा
पर रुक कर जिसे एक नज़र देखना भी
तुमने कभी गवारा नहीं किया ,

मै एक लम्बी सडक का
वो हिस्सा भी होना चाहती हूँ
जहां तुम हर रात टहलते हुए
कुछ पलों की तन्हाई को जिया करते हो
और जहां तुम्हारे कदमो की थपकियाँ
हर बार मेरी धडकनों में
कुछ और स्पंदन जगा देती हैं ,

मै मील का वो पत्थर होने को भी तैयार हूँ
जहां से तुम हर बार
अनायास ही अपने घर की दूरी नाप लिया करते हो
पर जिसका बदरंग होना तुम्हें नज़र नहीं आता
और न ही दिनों दिन मेरा उम्रदराज़ होना ,

मै तुम्हारे कल्पनाओं की
वो सरहद भी हो जाना चाहती हूँ
जहां तुम्हारी  सोच का हर सिरा
मुझ तक ही आकर थम जाया करे
और मै हर बार
तुम्हारे ख्यालों की रहगुजर से गुजर कर
खुद को गर्वित महसूस कर सकूं ,

तुम्हारी ख़ामोशी से उपजी
वो एक मौन आह भी मै होना चाहती  हूँ
जो तुम्हारे अहसासों में बसकर 
तुम्हारी धडकनों में दर्द की अभिव्यक्ति हो जाया करती है ,


और इसी एकांत  से उपजा
वो एक अश्क भी मै ही होना चाहती हूँ
जो पूरी शिद्दत से थामे रखने के बावजूद भी
तुम्हारी आँखों से छलक ही जाती है
और एक बार फिर मेरा यकीन मुझमे
और गहराने लगता है
की जिस तरह मै भीतर-बाहर से
सिर्फ "तुम "हो जाना चाहती हूँ
शायद वैसे ही तुमने भी मुझे
अपने अंतर्मन में दर्द सा संभाल रक्खा है


और यही सुकून मेरी साँसों में बस जाता है
सदियों तलक तुममे ज़ज्ब हो जाने के लिए !!






                        अर्चना "राज "





















































Friday 6 April 2012

एक शाम

उदासियों से भरी एक शाम
तेरी सोच ने फिर से
दस्तक दी मेरे ख्यालों में ,

तुझे खुद में समेटूं
या तुझमे ही खोई रहूँ
सोचते हुए ही पूरी शाम
ख़ामोशी से गुजर गयी !!



                         अर्चना "राज "

उलझन

ठहरी हुई दो आँखों की  तासीर
अब भी जगा देती है मुझमे वो तमाम हलचल
जो मुझे लगा था मै वर्षों पीछे छोड़ आई हूँ,

उन दो अदृश्य कदमो की आहट भी सुनाई पड़ती है मुझे
जो मेरे पीछे न जाने कितने पलों की परछाई में बदल जाती थी
जब भी मै भटकती थी यहाँ से वहां अनायास ही ...बेमकसद ,

थमी हुई हवाओं की सरहद
अब भी मौजूद है हमारे बीच सदियों के फासले सी
पर तुम्हारा स्पर्श महसूस हो ही जाता है मुझे
तुम्हारी भिंची मुट्ठियों मे
जो तुमने पलटकर जाने से पहले टांक दिया था
मेरे दर्द के आसमान पर सितारे सा ,

तुम्हारे अक्स में झलकती वो जिद्द भी
मुझे प्रश्नों के सिहरन से भर देती है
जो बार - बार तुम्हें मुझ तक लाती तो रही थी
पर हर  बार तुमने खुद को थाम रक्खा था पूरी शिद्दत से
न जाने क्यों ,

तुम्हारे अहसासों की धूप
जिसे टुकड़े-टुकड़े जोड़कर एक साये में तब्दील कर दिया है मैंने
अब भी भर देता है मेरी सर्द तन्हाई को
अपनी बेचैन गुनगुनी तपिश से ,

तुम अब भी मुझमे ही धडकते और बिखरते हो
सिमटने और खुद को संयमित करने की
अनेकों कोशिशों के बावजूद भी;
और तब मै उस बर्फीले पहाड़ सी हो जाती हूँ
जो लगातार पिघलता तो है
पर कभी भी पूरी तरह दरिया नहीं बन पाता,

यही कशमकश धीरे-धीरे मुझे तुम्हारी
और तुम्हें खुद की तल्ख़ उलझनों में
बदल दिया करती है
हमनफज मेरे !!



                  अर्चना "राज "






































Thursday 5 April 2012

तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए मै खुद को
धूप का एक ख़ास टुकड़ा बना लेना चाहती हूँ
जो हर रोज मेरे सामने से ही नहीं
मेरे अहसासों से भी गुजरता रहता है
और जो तुम तक
मेरी उत्तप्त साँसों का संदेशवाहक भी  होगा ,

हवाओं की आवारगी भी
मै खुद में सहेजने को तैयार हूँ 
बशर्ते की तुम मुझे अपने आगोश में
संभाले रखने का भरोसा दो ,

बादलों का एक पूरा सैलाब बनना भी मुझे मंजूर है
अगर तुम खुद को
मुझमे भीग जाने की इजाजत दो
बेशक कुछ पलों के लिए ही सही ,

मै वो उद्दाम  नदी भी बनना चाहूंगी
जो हर उस वक्त तुम्हारे अंतस में
पूरे वेग से गुजरे
जब भी तुम खुद को तनहा पाओ ,

मै पहाड़ों की वो धूल बनने को भी राजी हूँ
जो तुम उस पर बैठते वक्त
अपने हाथों से हटाओगे
और तब मै तुम्हारे हथेलियों के स्पर्श में
तुम्हें महसूस कर सकूंगी ,

मै बारिश की वो बूँद भी बन जाना चाहती हूँ
जो अपनी पहली फुहार के साथ
मिटटी में ज़ज्ब होकर
एक अद्भुत खुशबू बिखेरती है
और जिसे तुम अपनी साँसों में भरकर
 अपनी धडकनों का हिस्सा बना सको
और मेरे अस्तित्व की सार्थकता को
एक नया आयाम दे सको ,

मै तुममे यूँ ही घुलकर तुम्हें जीवन
और तुम्हें खुद में समेटकर
खुद को प्रकृति बना लेना चाहती हूँ !!



      अर्चना "राज "








Monday 2 April 2012

jeena

सहरा की रेत में
मेरे नाम की लकीरें सुलग जाती हैं

समन्दर की लहरों में
मेरी तस्वीर बिखर जाती है

चाहो तो मान लो
कि अब तलक जिन्दा हूँ मै

वरना जीने में
यूँ तो इक उम्र गुजर जाती है !!


           अर्चना "राज "