Tuesday 29 March 2016

प्रेम यूँ भी

पलकें हौले से कांपी थी उसकी ....नमी से आँखें भर जो आई थीं कि जो समाता नहीं है वो बिखर जाता है चाहे आंसू हो या प्रेम ....ये जरूर  है कि आंसुओं का बिखरना दिख जाता  है पर प्रेम का बिखरना बस महसूस होता है ...आंसू सामने वाले पर असर छोड़ता है पर प्रेम अन्दर ही अन्दर छीलता रहता है खुद को  .... तोड़ता रहता है ...भर देता है घुटन से ...घुटन जो जीने नहीं देती ...मरने भी तो नहीं देती ...बस उम्मीद सी पलती रहती है सीने में ..आँखों में ..किसी एक पल के सुकून की ज़मीन सी या फिर कुछ रूहानी राहत की तस्कीन सी कि जब नसों में पडी गांठें धीरे-धीरे खुलने लगेंगी और लहू बेबाकी से  ह्रदय में अठखेलियाँ कर सकेगा ...

ऐसा ही कुछ था पूजा के साथ कि वो जिन्दा तो थी पर जिन्दा नहीं थी ...कि वो शामिल तो थी जिन्दगी में पर खोयी हुयी सी ...उसके अन्दर  भी कहीं कुछ टूटा हुआ था ..गहरे ..बहुत गहरे ...कभी कभी कुछ सुर्ख सा झलक आता जो उसकी सियाहियों से तो सवालिया नज़रें तन जातीं पर फिर वैसे ही मिट भी जातीं कि उसे जो भी देखता पुरसुकून पाता ....खुशमिजाज़ पाता ........ जहन में शक के लिए कोई वजह नहीं बचती क्योंकि उसके अंतस का दुःख उसके लहू में बेशक टूटता-फूटता रहे पर उसे वो कभी ज़ाहिर नहीं करती....संभाले रखती ...सेती रहती किसी खजाने सा कि जो उसका था ...केवल उसका अपना निजी ...

प्रेम यूँ ही तो खास नहीं हुआ करता न ..... इसमे जिंदगियों को कैद करने या शासित करने का स्वाभाविक गुण होता है ....कि इसकी थरथराहट अमृत भर देती है और इसकी उदासी ....वो तो धीमे जहर की तरह जिन्दगी की मुस्कुराहटों को निगल जाती है

पूजा की जिन्दगी में भी यही मसला था कि उसे प्रेम हुआ था ...बेहद प्रेम ...गहरा प्रेम ....रूहानी प्रेम ....पर वो उसे हासिल न हो सका ...और फिर एक निश्चित उदासी का अनिश्चित दौर उस पर छा गया ...दिन भर सबके सामने ..सबके साथ वो सहज होती सरल होती ...जिंदादिल होती पर तन्हाई में उसके अन्दर का एक शख्स उसके पहलू में होता जिसे वो सांस-सांस महसूस करना चाहती ....जिसकी हरारत से वो भर जाना चाहती कि जिसके कम्पनो से वो पिघल जाना चाहती ...पर वो सिर्फ कल्पनाओं का आईना भर बनकर ठहर जाता  जिसमे अक्स तो नज़र आ सकता है पर स्पर्श नहीं होता ......और इसी स्पर्श की अनुपस्थिति उसे कुंठित करती ...करती रहती लगातार और उसके सीने का पत्थर हर बार कुछ और भारी हो जाता ...होता रहता निरंतर ..

जब वो मिला था तब भी पूरा नहीं  मिला था ...और जब वो गया तब भी पूरा नहीं जा पाया ...रह गया थोडा या शायद बहुत ....उससे भी कहीं ज्यादा कि जब वो हासिल था क्योंकि अगर प्रेम कि किस्में होती हैं तो ये एक ख़ास किस्म का प्रेम था जिसमे शब्दों की अदला-बदली उँगलियों पर गिनी जा सकती थी ...कि जिसमे पत्रों की संख्या शून्य थी  ( उस दौर में मोबाइल ,इन्टरनेट या whatsapp जैसी तकनीकी सुविधाएँ मौजूद नहीं थीं ) ...बस एक फ़ोन हुआ करता था कमबख्त जो सबकी नज़रों की जद में होता और इसी वजह से उससे बात करना मुमकिन नहीं हो पाया कभी ...वैसे हिम्मत भी  नहीं हुयी कभी ...कि आवाज़ सुन पाने की कल्पना से ही जिस्म कंपकंपाने लगता ..हलक सूख जाता और उंगलियाँ गलत नंबर पर टिक जातीं ...पर हाँ ..निगाहों से जितनी बातें की जा सकनी मुमकिन थीं वो सब हुयी थीं ...कसमे-वादे ,शिकायतें इज़हार रूठना मनाना ख़ुशी आंसू बेचैनी ख्वाहिश ....इन सबको बांटा गया था ..और इसी अधूरी थाती को बूँद बूँद पीकर उसने लहू में घोल दिया है कि जिससे उसकी हर धड़कन तपती रहे ...तडपती रहे ...कसकती रहे ..रोती  रहे ....सिसकती रहे ...कि उसकी प्रीत उसमे पलती रहे .

प्रेम यूँ भी होता है ....प्रेम यूँ ही होता है ..कि जब उसे प्रेम कहा जाता है ...कहा जा सकता है कि जिसे रूहों से बांधकर माथे पर सज़ा लिया जाता है .



















कुछ क्षण

कुछ शब्द रात के माथे पर खुदे है
कुछ चाँद के सीने पर
कुछ सितारों के आँचल पर
तो कुछ परछाई के भीतर,
तासीर सबकी पर एक सी
थोड़ी गरम, थोड़ी तीखी
कुछ कसैली सियाह सी,
कि मानो इश्क ने खुद को
कहवे सा बना डाला है
पीती हूँ जिसको घूँट -घूँट मैं
पीता है जिसको घूँट -घूँट वो,
जिन्दगी की तरह जीने के लिए।।


शाम की हथेली में दर्द घिस दिया है
शाम पीली हो उठी
कि जैसे शादी में हल्दी की रस्म ,
शाम खुद ब खुद निखरने लगी 
शाम खुद ब खुद डरने लगी ,
शाम भ्रम में थी
दर्द और हल्दी के बीच ,

अमूमन तकलीफ कम हो जाती है हल्दी के बाद
पर यहाँ जायका कुछ कसैला निकला
कुछ क्या बेहद ,
शाम धीरे-धीरे स्याह हो उठी
मानो आज दर्द ने कब्ज़ा लिया हो
तमाम पीले सुकून को
जो कभी अमलतास सा होता था
तो कभी सूरजमुखी सा ,
शाम फिर भी हंस रही है
चाँद काला पड गया है !!

उदासी को निचोड़कर भर लिया है बोतल में
जब-तब छुआ करती हूँ
तब भी जब मन हंस रहा होता है
और तब भी जब मौसम हंस रहा होता है ,
कभी - कभी दिन के खाली पन्ने पर कुछ उकेर देती हूँ
गुडहल का लिसलिसापन मिलाकर
या चांदनी की कुछ पंखुड़ियां चिपकाकर ,
कभी-कभी रात में भी धूप चुनती हूँ
तमाम सितारों के झुण्ड गर्मी में बदल देती हूँ
तमाम बेचैन बिखरी किरणों को कैमरे की फ़्लैश लाइट में ,
इन चुनिन्दा पलों में सहेजी उदासी खूब काम आती है
कि जब अक्स खुलकर मुस्कुरा रहा होता है
उदासी अंतस में सहारे सी हो जाती है !!








प्रेम

प्रेम
तमाम काजल को सुनहरा कर देता है
आंसुओं को मीठा
चुभलाता रहता है दर्द को
जब तक बीच की गिरी स्वाद में नहीं उतरती
और नहीं उतरता चटपटापन मुस्कानों में ,

प्रेम ,
धूप की जिद्द को शाम में बदल देता है
तीखी लहर से तैयार करता है दस्तावेजों को
उम्र के आखिरी दौर में पढ़े जाने के लिए
कुछ लम्हों को भी स्थिर कर देता है
जिन्दगी के कैमरे में स्टिल फोटोग्राफी की तरह
कि जब जब उदासी सतह तक उतरे
तब तब रचा जा सके एक सुंदर पैनोरमा इफेक्ट
झुर्रियों के आर-पार ,

प्रेम ,
मुश्किल विषयों को आसन कर देता है
अंकगणित के मायने समझाता है
जब बार बार रूठना उँगलियों पर न गिना जा सके
और रेखागणित तो विषयान्तर से ही झलक जाता है
जब पैरों के नीचे की मिटटी पाँव की छाप होने लगे
या कहीं आंचल का किनारा
इंडेक्स फिंगर में उतर दे एक गहरा निशान


एकाकी नदी

उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।