Friday 8 April 2016

निःशब्द

चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था 
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था

इसे सुनते ही कुछ लिखते-लिखते उंगलियाँ कंपकंपा उठीं....स्याही की एक लकीर फ़ैल गयी कागज़ पर बेतरतीब यूँ ही  ...सिहर उठा मन के भीतर का एक और मन  मानो अरसे से दबाये रखने की पूरी कोशिशों के बाद भी ज़ख्म जिंदा रह गए थे कहीं न कहीं ...आज अरसे बाद टीस महसूस हुयी थी और अरसे बाद ही उन ज़ख्मों की सजगता भी महसूस हुयी थी ...मन विचलित हो उठा था और यूँ लगा था कि क्यों अक्सर हमारे साथ जिन्दगी में वही होता है जिसका हम सामना नहीं करना चाहते पर दरअसल जितना हम नहीं चाहते हैं उससे ज्यादा कहीं हमारे अन्दर उम्मीद बनी रहती है कि काश ....काश अगर ये हो जाता ....और यही काश हमें जिन्दा रक्खे रहता है ...हममें सांस भरता रहता है ....

यूँ एक दौर में जब इस गाने को पहली बार सुना था ...अपने यहाँ नहीं बल्कि सामने वाले घर में तो लगा था कि कुछ ख़ास है  इसमें  यानि इस गाने में और इसको सुनने वाले में भी .....सुनने वाले  को मै तब तक थोडा जानने लगी थी ... न ..ये कहना गलत होगा ....मै तो बस उसे पहचानने लगी थी ...क्योंकि वो वहीँ मेरे सामने वाले घर में जो रहता था ...हम एक ही क्लास में थे ...स्ट्रीम अलग थे पर college एक ही था ...बेशक मैंने बात नहीं की थी कभी ...पर ये भी सच है कि पहली ही बार जब उसे देखा तो  कुछ हो गया था ...मेरे अन्दर कुछ बदल गया था या यूँ कहूँ कि कुछ नया नया सा जनम रहा था ...मेरे अहसासों में अंगडाइयां पनप रही थीं .....उस दौर का कोई लम्हा ऐसा नहीं होगा जब उसे मैंने अपनी धडकनों में महसूस  न किया हो ... उसके साथ की ख्वाहिश न की हो ...यहाँ तक कि मेरे घर की कोई  ऐसी संभावित जगह नहीं बची थी जहां से मैंने उसे अपलक देर तक निहारा न हो .........कई बार तो मम्मी की डांट खाने तक ( कमरे का दरवाज़ा बंद जो कर लेती थी )....

उसी दौरान एक रोज़ जब सर्दियाँ बस शुरू ही हुयी थीं और धूप में कुछ गुनागुनापन अब तक मौजूद था मै अपनी दोस्त के घर से लौट रही थी ..वो कुछ दूर तक मेरे साथ आई फिर अचानक ही मुस्कुराते हुए ठिठक गयी ....मैंने पूछा क्या हुआ ...उसने शरारतन इशारे से पलकें हिलायीं और फिर जो मैंने देखा वो मुझे कंपकंपाने के लिए पर्याप्त था ...चंद कदम की दूरी पर ही उसका घर था और वो गेट पर कुहनियाँ टिकाये हमारी ...न ...सिर्फ मेरी ओर देख रहा था ..निर्निमेष ...मेरी धडकने तो उस एक पल यूँ लगा कि मेरी मुट्ठियों में आ गयी हों ...जिस्म ठंडा हो गया था और होंठ बेतरह सूखने लगे थे ...ये कमाल बस उस एक पल कि नज़रों के टकराने का था या फिर उस कमसिन उम्र का या उस  अहसास का जो मै उसके लिए महसूस करती थी ...शायद वो भी ( ऐसा मुझे उस वक्त लगता था ....बल्कि मै तो निश्चित भी थी कि उसे ऐसा लगता ही था .....अब पता नहीं ये  सच था या नहीं ...क्योंकि कभी भी इसे परखने व् जानने की कोशिश न मैंने की थी  न उसने ). वो उम्र ही शायद सपनीली और ख्वाहिशों में डूबी हुयी होती है जब धड़कने पंखों पर सवार बेहिचक आवारगी करती हैं और जिसका अहसास मीठे नशे सा होता है कि जिसको जांचने की कभी जरूरत तक महसूस नहीं होती और यही आत्मविश्वास की अति कभी-कभी किसी के लिए उम्र भर का नासूर बन जाती है ..पर  उस वक्त  ये समझने की उम्र नहीं थी मेरी ...मै तो बस पंखों पर सवार कभी यहाँ तो कभी वहां उन्मुक्त  विचर रही थी ...

ऐसी ही सर्दियों की एक रात तकरीबन ११ बजे के आस-पास जब मै अपने बाहर वाले बरांडे में यूँ ही टहलती हुयी आई तो चौंक गयी ...क्योंकि जो देखा था वो  अप्रत्याशित तो था ही बेहद  सुखद भी था ...मेंरे ठीक सामने बस एक सड़क और 2 गेटों की दूरी पर वो अपने बरांडे के बाहर खड़ा था .... ...बिना किसी गर्म कपडे के जबकि ठण्ड उस वक्त तक अच्छी खासी पड़नी शुरू हो गयी थी ......और वो सिर्फ सफ़ेद t-shirt और नीली trouser में था ...उसे देख कर लगा कि वो काफी देर से वहां खड़ा था एकटक मेरे बरांडे की तरफ देखता हुआ ....  जबकि मेरे इस तरह, इस वक्त  वहां आने की कोई सम्भावना नहीं थी ..मै तो बस अचानक ही आ गयी थी .....पता नहीं क्यों .....उसकी आँखों में मुझे एक जिद्द , मासूमियत और ढेरों कामनाएं नज़र आयीं...उसकी आँखें उस वक्त  लाल लग रही थीं और पनीली भी कि उनको देखकर मन हर आया ...हसरतों में तूफ़ान उठा और बेईख्तियारी में आँखें भर आयीं ..बहुत रोने का मन हुआ ...रोई भी कि आंसू बहते रहे ख़ामोशी से और हम टकटकी बांधे एक दुसरे को देखते रहे.....एक दुसरे में डूबते रहे ....खोते रहे  ....पता नहीं कब तक ...बावजूद इसके कि अगले दिन हम दोनों के ही exams थे ......

फिर एक रोज़ उस बरस की होली आई .....उफ़ ..क़यामत का दिन था वो ....उस दिन उसका एक इकलौता चिर आकांक्षित चिर प्रतीक्षित स्पर्श मेरे हिस्से में आया था जो  अब भी ....इतने वर्षों बाद भी वैसे ही ताज़ा और सुरक्षित है मेरी यादों में और मेरे दर्द में भी कि जब तब वो  मेरे आंसुओं का बायस बन जाता  है ...जब तब मेरी तकलीफ को कुरेद देता है और मै घंटों-घंटों  गुम हो जाती हूँ उसी अहसास में भीगते --सिसकते ...दरअसल हुआ यूँ था कि हम सभी अपने - अपने ग्रुप के साथ होली खेल रहे थे ...कॉलोनी थी तो बाहर वालों का कोई डर भी नहीं था ...हुडदंग तो होता था पर अश्लीलता और छिछोरापन नहीं होता था ....ऐसे ही खेलते और सामने वाली सड़क से गुजरते हुए हम दोनों अचानक ही दोस्तों के साथ एक दुसरे के आमने -सामने आ गए ...वो एक पल को तो ठिठका पर अगले ही पल पॉकेट में हाथ डालकर मुट्ठी में ढेरों लाल गुलाल भरकर मेरे चेहरे को रंग दिया ...मै बेतरह सिहर उठी थी तब  ...मेरा देह मन आत्मा सब ....लगा जैसे कोई अबूझा अजाना सा ज्वार मुझे कहीं  बहाए ले जा रहा है और मै उँगलियाँ तक हिलाने की ताकत खो बैठी हूँ  .....मै स्तब्ध हो गयी थी कि तभी  मेरी दोस्त ने मुझे टहोका और देखकर मुस्कुरायी ....मैंने जैसे तैसे उसे बस रंग भर स्पर्श ही किया कि इतने में ही जान हलक तक  आ गयी थी ...वो लगातार मेरी तरफ देख रहा था ....पता नहीं क्या था उन नज़रों में कि मै उसके इस देखने और इस तरह से देखने को  संभाल नहीं पाई  और बेसाख्ता दौड़ पड़ी अपने घर की ओर जो बस कुछ कदमों  के फासले पर ही था ...मेरी दोस्त ने बताया कि मेरे गेट के अन्दर आ जाने तक वो पलटकर मुझे देखता रहा था और थोड़ी ही देर के बाद वो भी अनमना सा होकर अपने घर चला गया था .

क्या था ये ...क्यों था ये जो हम दोनों ही महसूस कर तो रहे थे पर शायद समझ नहीं पा रहे थे  इसीलिए कह भी नहीं पा रहे थे ....यही बात शायद उसे भी परेशां कर रही थी मेरी तरह क्योंकि कई दफे वो भी बड़ा  उलझा-उलझा दिखता था और बड़ी उलझन से मुझे देखता था पर हाँ ..उसने कभी भी नज़रें झुकाई नहीं और न ही कभी मुझसे पहले नज़रें हटायीं ...जब भी देखता तो उसकी तेज़ तर्रार शफ्फाक नज़र सीधा दिल पर असर करती और मै हर बार बस कांपकर और सहमकर रह जाती ...पता नहीं क्या था उन निगाहों में कि मै एक आश्वस्ति महसूस करती ...एक सुकून महसूस करती ...ढेरों अनजानी अनकही बेचैनियों के बावजूद भी ...


पर ये क्या ...कुछ रोज़ से वो चुपचाप सा रहने लगा था ( जबकि हमेशा ही वो बेहद बिंदास होता था ) जब भी मेरी तरफ देखता कुछ खोया-खोया सा  लगता ......यूँ लगता कि जैसे उसका कहीं कुछ छूट रहा है ....कई बार यूँ लगा कि शायद वो कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं पा रहा ...या फिर शायद ये मेरा  भ्रम ही है ...मै भी क्या-क्या सोचती रहती हूँ ... यही सोचकर मै हर बार बात को टालती रही पर तकरीबन १० दिन के बाद ही उसमे अचानक आये इस परिवर्तन का रहस्य सामने आया .....और जो आया वो मुझे स्तंभित करने और पीड़ा से भर देने के लिए काफी था ...... मेरी खुशियों  ,कल्पनाओं  ,उम्मीदों सब पर उदासियों की झीनी चादर चढ़ने जा रही थी तमाम उम्र के लिए ....वो जा रहा था.... वो जिसके लिए मन में बेहद कोमल और नशीले अहसास थे ....वो जो मेरे मन में उमंगें जगाता था ....वो जो मेरे सपनों को पंख देता था ...वो जो मेरी हर तकलीफ में राहत का सबब था...वो जा रहा था . ... जा रहा था हमेशा के लिए शायद क्योंकि उसका पूरा परिवार भी जा रहा था और इसका मतलब ये था कि उससे भविष्य में मिलना तो दूर शायद उसे देखना भी मुमकिन न हो ...इस सच के भान के साथ ही ऐसा लगा जैसे कोई सीने से खींचकर जान  निकाल रहा है और मुट्ठियों में भींच रहा है  ........गहरी पीड़ा से अंतर्मन भर गया...कहीं कुछ दरकने लगा था भीतर  ...वैसे  इस पीड़ा को हर वो व्यक्ति महसूस कर सकता है जिसका पहला अहसास अधूरा रह गया हो ...वजह चाहे कुछ भी हो पर ये अधूरे रह गए अहसास ही कई बार हमारी जिंदगियों की आतंरिक दिशा तय कर देते हैं कि  जिसकी धार पकड़ कर जीना पहले हमारी मजबूरी ,फिर आदत और अंत में नियति बन जाती है ...कई बार ये तकलीफदेह होते हुए भी सुखद महसूस होता है क्योंकि हमें आदतन प्रेम पीडाएं अच्छी लगने लगती हैं और हम उसी में खोये रहकर खुद को तलाश करते रहते हैं ...खैर   .... ..मेरी दोस्त कुछ भ्रमित भी थी और कुछ शर्मिंदा भी क्योंकि उसको भी इस बात का पता नहीं चला था जबकि उसका भाई और वो दोनों साथ ही क्लब जाते थे ( शायद उसके भाइ ने इसे बताना जरूरी न समझा हो )....वो शायद कुछ अपराधबोध महसूस कर रही थी इसीलिए लगातार मेरी ठंडी हथेली को अपनी मुट्ठी में पकड़ी रही ....इधर सामान ट्रकों में भरा जा रहा था ...कुछ मिलने -जुलने वाले हितैषी वहां आ चुके थे .......मै अन्दर ही थी कि तभी मम्मी ने कहा कि बेटा , आंटी बुला रही हैं ...जाओ मिल लो ...और मै जैसे कुछ सोच समझ ही नहीं पा रही थी ...दिमाग सुन्न हो गया था ...फिर भी मेरी दोस्त के साथ मै गयी ...विदाई के कुछ शब्द कहे गए दोनों तरफ से ...वो फिर अपने दोस्तों के साथ दूर खडा सिर्फ मुझे देख रहा था ...जलती आँखों से जो लग रहा था जल्दी ही पिघल जाने वाली हैं  .... अब मुझे आश्चर्य होता है अपने उस दिन के धैर्य पर कि मै किस तरह से मुस्कुरा कर सबसे मिली और फिर बस एक ठहरी हुयी सी नज़र उसपर डालकर चुपचाप घर वापस आ गयी ....दुबारा मैंने पलट कर नहीं देखा ...मै चुपचाप बिस्तर पर लेट गयी ...मेरी दोस्त शायद मेरी मनोदशा समझ रही थी ...वो कुछ देर तक मेरे पास बैठी रही फिर अपने घर चली गयी ...यकीन मानिए उस दिन एक कतरा आंसू भी मेरी आँखों से नहीं बहा .... बस सिर बहुत तेज़ दुखने लगा था और दुखता रहा था  कई दिनों तक ...और कई दिनों तक मै वाकई नहीं रोई पर कुछ दिनों अचानक ही जो बाँध टूटा तो मै रोई ...खूब रोई ....अपने दोस्त के गले लगकर रोई ...उसकी हथेलियों में रोई ...तकिये पर सिर रखकर रोई ....रोती रही बस ...इतना कि एक दिन आंसू सूख गए ...और रह गयीं बस पीडाएं ...अपने पूरे अधिकार ...पूरी गरिमा के साथ ....

कभी कभी मैंने ये भी सोचा कि क्यों .....आखिर क्यों ये दुःख ....क्यों ये पीड़ा ...उसने कहा तो था नहीं कुछ मुझे कभी भी ....कोई वादा नहीं किया था ...कोई कसम नहीं खाई थी ...फिर आखिर क्या था कि जिसके नहीं रहने पर इतना घनघोर दुःख .....इतनी घनी पीड़ा 

पर नहीं ...था ...सब कुछ था ...उसने कहा था ...कई बार कहा था .... कि जब जब भी वो प्रेम से मेरी तरफ देखता था ....तब तब  उसने कहा था कि उसे मुझसे प्रेम है  ... उसने वादे भी किये थे और कसमे भी खाई थीं कि जब वो रात के अँधेरे में लैंप पोस्ट की रौशनी में अपने बरांडे के बाहर सिर्फ मुझे देखने के लिए इंतज़ार किया करता था और पहरों मेरी निगाहों में घुलता रहता था तब तब उसने वादों और कसमों की सौगात दी थी  मुझे और जब उसने मेरे चेहरे को अचानक ही लाल रंग से भर दिया था ...मुझे स्पर्श किया था उसी पल  उसने मेरी देह और मेरी आत्मा दोनों को छू  लिया था और इसके साथ ही ताउम्र साथ  का वचन भी दिया था ..फिर उसने इसे निभाया क्यों नहीं ....क्यों ....आखिर क्यों .....


पर कहते हैं न कि ये जिन्दगी है और इसमें ढेरों काश और अनगिनत क्यों भरे पड़े हैं ....हम सब अपने आप में अपनी उम्मीदों और अपनी पीडाओं से लड़ रहे हैं ....अंततः हारकर स्वीकार कर लेते हैं इसकी कडवाहट और तकलीफों को ...कभी कभी बदल देते हैं इसे आदतों में और खुश रहने का दिखावा करते रहते हैं ...और जो नहीं कर पाते हैं वो हरियाते रहते हैं कैक्टस से और एक दिन अपनी ही आगोश में गुम हो जाते हैं !!

अनकही ....निःशब्द प्रेम कहानियों का अक्सर यही अंजाम होता है

कि मेरी रूह में तकलीफ के मोती जड़ें हैं 
कि मेरा आइना मुझको हंसीं बताता है !!








Tuesday 29 March 2016

प्रेम यूँ भी

पलकें हौले से कांपी थी उसकी ....नमी से आँखें भर जो आई थीं कि जो समाता नहीं है वो बिखर जाता है चाहे आंसू हो या प्रेम ....ये जरूर  है कि आंसुओं का बिखरना दिख जाता  है पर प्रेम का बिखरना बस महसूस होता है ...आंसू सामने वाले पर असर छोड़ता है पर प्रेम अन्दर ही अन्दर छीलता रहता है खुद को  .... तोड़ता रहता है ...भर देता है घुटन से ...घुटन जो जीने नहीं देती ...मरने भी तो नहीं देती ...बस उम्मीद सी पलती रहती है सीने में ..आँखों में ..किसी एक पल के सुकून की ज़मीन सी या फिर कुछ रूहानी राहत की तस्कीन सी कि जब नसों में पडी गांठें धीरे-धीरे खुलने लगेंगी और लहू बेबाकी से  ह्रदय में अठखेलियाँ कर सकेगा ...

ऐसा ही कुछ था पूजा के साथ कि वो जिन्दा तो थी पर जिन्दा नहीं थी ...कि वो शामिल तो थी जिन्दगी में पर खोयी हुयी सी ...उसके अन्दर  भी कहीं कुछ टूटा हुआ था ..गहरे ..बहुत गहरे ...कभी कभी कुछ सुर्ख सा झलक आता जो उसकी सियाहियों से तो सवालिया नज़रें तन जातीं पर फिर वैसे ही मिट भी जातीं कि उसे जो भी देखता पुरसुकून पाता ....खुशमिजाज़ पाता ........ जहन में शक के लिए कोई वजह नहीं बचती क्योंकि उसके अंतस का दुःख उसके लहू में बेशक टूटता-फूटता रहे पर उसे वो कभी ज़ाहिर नहीं करती....संभाले रखती ...सेती रहती किसी खजाने सा कि जो उसका था ...केवल उसका अपना निजी ...

प्रेम यूँ ही तो खास नहीं हुआ करता न ..... इसमे जिंदगियों को कैद करने या शासित करने का स्वाभाविक गुण होता है ....कि इसकी थरथराहट अमृत भर देती है और इसकी उदासी ....वो तो धीमे जहर की तरह जिन्दगी की मुस्कुराहटों को निगल जाती है

पूजा की जिन्दगी में भी यही मसला था कि उसे प्रेम हुआ था ...बेहद प्रेम ...गहरा प्रेम ....रूहानी प्रेम ....पर वो उसे हासिल न हो सका ...और फिर एक निश्चित उदासी का अनिश्चित दौर उस पर छा गया ...दिन भर सबके सामने ..सबके साथ वो सहज होती सरल होती ...जिंदादिल होती पर तन्हाई में उसके अन्दर का एक शख्स उसके पहलू में होता जिसे वो सांस-सांस महसूस करना चाहती ....जिसकी हरारत से वो भर जाना चाहती कि जिसके कम्पनो से वो पिघल जाना चाहती ...पर वो सिर्फ कल्पनाओं का आईना भर बनकर ठहर जाता  जिसमे अक्स तो नज़र आ सकता है पर स्पर्श नहीं होता ......और इसी स्पर्श की अनुपस्थिति उसे कुंठित करती ...करती रहती लगातार और उसके सीने का पत्थर हर बार कुछ और भारी हो जाता ...होता रहता निरंतर ..

जब वो मिला था तब भी पूरा नहीं  मिला था ...और जब वो गया तब भी पूरा नहीं जा पाया ...रह गया थोडा या शायद बहुत ....उससे भी कहीं ज्यादा कि जब वो हासिल था क्योंकि अगर प्रेम कि किस्में होती हैं तो ये एक ख़ास किस्म का प्रेम था जिसमे शब्दों की अदला-बदली उँगलियों पर गिनी जा सकती थी ...कि जिसमे पत्रों की संख्या शून्य थी  ( उस दौर में मोबाइल ,इन्टरनेट या whatsapp जैसी तकनीकी सुविधाएँ मौजूद नहीं थीं ) ...बस एक फ़ोन हुआ करता था कमबख्त जो सबकी नज़रों की जद में होता और इसी वजह से उससे बात करना मुमकिन नहीं हो पाया कभी ...वैसे हिम्मत भी  नहीं हुयी कभी ...कि आवाज़ सुन पाने की कल्पना से ही जिस्म कंपकंपाने लगता ..हलक सूख जाता और उंगलियाँ गलत नंबर पर टिक जातीं ...पर हाँ ..निगाहों से जितनी बातें की जा सकनी मुमकिन थीं वो सब हुयी थीं ...कसमे-वादे ,शिकायतें इज़हार रूठना मनाना ख़ुशी आंसू बेचैनी ख्वाहिश ....इन सबको बांटा गया था ..और इसी अधूरी थाती को बूँद बूँद पीकर उसने लहू में घोल दिया है कि जिससे उसकी हर धड़कन तपती रहे ...तडपती रहे ...कसकती रहे ..रोती  रहे ....सिसकती रहे ...कि उसकी प्रीत उसमे पलती रहे .

प्रेम यूँ भी होता है ....प्रेम यूँ ही होता है ..कि जब उसे प्रेम कहा जाता है ...कहा जा सकता है कि जिसे रूहों से बांधकर माथे पर सज़ा लिया जाता है .



















कुछ क्षण

कुछ शब्द रात के माथे पर खुदे है
कुछ चाँद के सीने पर
कुछ सितारों के आँचल पर
तो कुछ परछाई के भीतर,
तासीर सबकी पर एक सी
थोड़ी गरम, थोड़ी तीखी
कुछ कसैली सियाह सी,
कि मानो इश्क ने खुद को
कहवे सा बना डाला है
पीती हूँ जिसको घूँट -घूँट मैं
पीता है जिसको घूँट -घूँट वो,
जिन्दगी की तरह जीने के लिए।।


शाम की हथेली में दर्द घिस दिया है
शाम पीली हो उठी
कि जैसे शादी में हल्दी की रस्म ,
शाम खुद ब खुद निखरने लगी 
शाम खुद ब खुद डरने लगी ,
शाम भ्रम में थी
दर्द और हल्दी के बीच ,

अमूमन तकलीफ कम हो जाती है हल्दी के बाद
पर यहाँ जायका कुछ कसैला निकला
कुछ क्या बेहद ,
शाम धीरे-धीरे स्याह हो उठी
मानो आज दर्द ने कब्ज़ा लिया हो
तमाम पीले सुकून को
जो कभी अमलतास सा होता था
तो कभी सूरजमुखी सा ,
शाम फिर भी हंस रही है
चाँद काला पड गया है !!

उदासी को निचोड़कर भर लिया है बोतल में
जब-तब छुआ करती हूँ
तब भी जब मन हंस रहा होता है
और तब भी जब मौसम हंस रहा होता है ,
कभी - कभी दिन के खाली पन्ने पर कुछ उकेर देती हूँ
गुडहल का लिसलिसापन मिलाकर
या चांदनी की कुछ पंखुड़ियां चिपकाकर ,
कभी-कभी रात में भी धूप चुनती हूँ
तमाम सितारों के झुण्ड गर्मी में बदल देती हूँ
तमाम बेचैन बिखरी किरणों को कैमरे की फ़्लैश लाइट में ,
इन चुनिन्दा पलों में सहेजी उदासी खूब काम आती है
कि जब अक्स खुलकर मुस्कुरा रहा होता है
उदासी अंतस में सहारे सी हो जाती है !!








प्रेम

प्रेम
तमाम काजल को सुनहरा कर देता है
आंसुओं को मीठा
चुभलाता रहता है दर्द को
जब तक बीच की गिरी स्वाद में नहीं उतरती
और नहीं उतरता चटपटापन मुस्कानों में ,

प्रेम ,
धूप की जिद्द को शाम में बदल देता है
तीखी लहर से तैयार करता है दस्तावेजों को
उम्र के आखिरी दौर में पढ़े जाने के लिए
कुछ लम्हों को भी स्थिर कर देता है
जिन्दगी के कैमरे में स्टिल फोटोग्राफी की तरह
कि जब जब उदासी सतह तक उतरे
तब तब रचा जा सके एक सुंदर पैनोरमा इफेक्ट
झुर्रियों के आर-पार ,

प्रेम ,
मुश्किल विषयों को आसन कर देता है
अंकगणित के मायने समझाता है
जब बार बार रूठना उँगलियों पर न गिना जा सके
और रेखागणित तो विषयान्तर से ही झलक जाता है
जब पैरों के नीचे की मिटटी पाँव की छाप होने लगे
या कहीं आंचल का किनारा
इंडेक्स फिंगर में उतर दे एक गहरा निशान


एकाकी नदी

उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।

Friday 5 February 2016

सौदा

आँखों की चिमनियों में धुआँ है 
कि रात चूल्हे का उधार काट लाई थी 
पुरजा पुरजा हवाओं की बदमिजाजी से लङा 
थका और उदासी के चीथङे में गमककर सो गया 
मिट्टी ढेरियों की शक्ल में लुढ़कती रही 
तब तक
जब तक कि मेरी रूह के रेशे ने उसे बांध न लिया
और मै खुद धङकनो की उधारियों का हिसाब लगाते बेसुध पङी हूँ
कि मुझे जब भी याद करना तो रेशम के कीड़े सा जिसे कोकून के लिए खौलते पानी के इम्तिहान से गुजरना होता है
अपनी सासों का सौदा करके।।

प्रेम यूँ भी

रात बुुन रही है सुंदर कविता
अलाव की लुकाठी थामे,
मिट्टी के सीने में सिहरन है
कि आसमान बस ढह पङने को है,
पहना दी जाएगी यही कविता
मिट्टी और आसमान के मिलन से उपजी
लथपथ भोर की पहली किरण को
रात की विरासत की तरह,
जिसे ओढ़ पूरा वो गुनगुनाती फिरे
किसी चिड़िया सी चहचहाती फिरे
और कर दे रूमानी धूप को भी,
शाम संधिकाल है
रात फिर होगी
अनेकों कविताओं के अदभुत प्रसव के लिए
कि अब तो सूरज को भी इंतजार है मीठी पीङाओं का,
प्रेम यूँ भी होता है
मेरे हमनफज।।

Thursday 4 February 2016

प्रेम

वक्त थक रहा है उम्र का बोझ लादे
सफ़र लम्बा है शायद
कि अब वक्त को कूबड़ निकल आया है
कोई कोई आहट कराह उठती है
कोई टकरा जाती है
और उम्र का एक हिस्सा गिर जाता है वहीँ पर
चिपक जाता है सतह पर coaltar सा
कुरेदने में उम्र ज़ख्मी हो जाती है
वक्त उसे मायूसी व कुछ राहत से वहीँ छोड़ आगे बढ़ जाता है
ज़ख्म धीरे-धीरे ज़मीन की नमी में सीझता रहता है
पकता है परिपक्व होता है,
सुखाने की तमाम कोशिशे सूर्य को लाचार कर रही हैं
परन्तु ज़ख्म अब सूर्य पर साए सा है,
ज़ख़्मी उम्र मुस्कुराती है खिलखिलाती है
और अब तो करती है प्रेम भी
कि ज़ख्म अब उम्र के प्रेम का पैमाना हो गया है ,
शुक्रिया वक्त , तुम्हारी अनथक कोशिश
और तुम्हारे बदसूरत कूबड़ों के लिए
और इसलिए भी कि
प्रेम अब अपने सही अर्थों में सार्थक हो रहा है!!

मन

मन टूटता रहता है छोटे छोटे टुकड़ों में
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
उस रोज भी टूटा था 
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
ऐसे हर एक लम्हे में वो कछुआ हो जाती
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!

सुकून

सुकून टूटकर सितारों सा जा छिपा है
आसमां पर
कि मानो आसमां पर कोई मोरपंख छीजा पडा हो
लहूलुहान----- लम्बे अरसे से ,
ज़मीन की जड़ों से निकलकर कोई कीड़ा
लहू में फुंफकारता है
देह पीली पड़ जाती है
जबकी जहर का असर तो नीला होता है
महत्त्व भी नीला ही होता है
पर यहाँ रंगों का उलटफेर
दर्द की कवायद को कम नहीं करता
बढा देता है उलटे
कि जब मौसम इन्द्रधनुषों के निकलने का हो
ठीक उसी वक्त निकल आता है सूरज अपनी खोह से
अपने तीव्रतम ताप का पिटारा खोले
ठीक उसी वक्त तमाम घोंसले सुलगती राख का मटमैला आइना हो जाते हैं
और हो जाते हैं तमाम गीले ज़ख्म पपडियाये से
कि जैसे झरने से काँटों का कोई सोता फूट पड़े
कि जैसे हवाओं से साँसों का सम्पर्कसूत्र ही खो जाए
कि जैसे गुलाब से खुशबू का वास्ता ही न रहे
इस कदर की विभक्ति परिणामतः भयानक ही होती है
पर होती है ,
यूँ तो सुकून स्वीकार्य की परिणति है
संतोष का मित्र है
पर यही दो तत्व अक्सर वहां नहीं होते
जहां होता है प्रेम मेरे हमनफ़ज़ !!

उदासियाँ

उदासियों के अक्स से नकाब नोंचकर फेंक दी है
नज़र आते हैं पीड़ा से भरपूर कोटर कई
छिछला गयी चमडियों के फर्श
और ढेरों पसरी मनहूस काई,
इन्हें मिटाने की कोई शीघ्रता नहीं
वरन पाले जाने का जूनून है
एक और जिद्द भी
तकलीफों के गह्वर से सुकून के तलाश की,
इनका पाला जाना आवश्यक भी है
खुद को जीवंत कहे जाने का भ्रम सहेजने को
और मशहूर करने को खुद को खुद के जटिल अंतर्मन में,
बाह्य स्वप्न काईयों में तितलियाँ सहेजते हैं
अंतरतम के स्वप्न कोटरों में मधुमक्खी
दोनों मिलकर ही रचते हैं छिछलाई हुयी चमड़ियों में मीठी चंचलता
और ये सहज खेला अनवरत प्रवाहित होता है ढेरों कोकूनो की लुगदी के नीचे
ढका छिपा निरंतर इतिहास रचता,
उदासियाँ यूँ ही सम्मान के काबिल नहीं बनतीं
हमनफ़ज मेरे !!

Wednesday 3 February 2016

इश्क

उलझने की हद तक इश्क करो
तब तक जब तक की उनकी गांठें मजबूत न हो जाएँ
और उन पर एक अलीगढ़ी ताला कसकर न जड़ा जा सके
जब तक उन्हें उन आलों में सुरक्षित न रखा जा सके
जहां से उन्हें उतार पाना लगभग नामुमकिन हो 
या फिर उस अलगनी से कसकर न बाँध दिया जाए
जो कमरे के एकदम किनारे के अंधेरों में कितने ही सालों से
चुपचाप लटक रही है ऐसे ही चुनिन्दा किस्सों को संभाले ,
इश्क करो तब तक जब तक कि
बौराये आम की टहनी सूख कर किसी नवेले चूल्हे में भभक न पड़े
या फिर कदम्ब के ढेरों फल इमली के स्वाद में न बदल जाएँ
तब तक भी कि जब तक धूप अपना मीठापन मुझमे बिखेरने से बाज़ आये
हवाएं अपनी आवारगी छोड़ शराफत से एक जगह थम जाएँ
नदी बहते-बहते हिमालय के शिखर तक जा पहुंचे
और मेरा आँगन एक बार फिर कच्ची मिटटी की आतिशी महक से भर जाए,
इश्क करो तब तक भी कि
जब तक कि मेरी रूह सात जन्मो का सफ़र तय कर वापिस मुझ तक न लौट आये
कि जब तक मौसमों का सलीका हिमाकत में न बदल जाए
कि जब तक फूलों की खुशबू अब्र में न घुल जाए
कि जब तक ये महुए का नशा इंसानी उम्र की औषधि न बन जाए
तब तक ----- तब तक इश्क करो मुझसे
मेरे बेचैन मन !!

kavitayen

देर तक सूरज पका आज फिर
शक की देगी में
अंगीठी उम्र जितनी लम्बी थी
आंच सांस जैसी घुटन लिए कसी हुयी,
टुकड़ा-टुकड़ा चांदनी बदलती रही
कोयले में
सितारे भी चिंगारी होते रहे
पर मौसम बारिशों का था
सो धूएँ की ढेरों गंध सीली ही रही ,
सूरज बेशक खूब पका हो देर तक
पर स्याह नहीं हुआ
न ही फीका
कि इस बार उसकी मुस्कान पारिजात सी थी
खिली-खिली और बेतरह बिखरी,
इस बार शक ने उसे सुगन्धित कर दिया था
आश्वस्त भी प्रेम के प्रति
जैसे तुम्हें
मेरे हमनफ़ज !!



चुप्पियों के दौरान
कशमकश की रस्सी थामे
कोई उस पार उतर गया,
कोई रह गया वहीँ पर 
बनने को राह का पत्थर
या फिर शिलालेख सा ही कुछ,
अब ये वक्त को तय करने दो
उसकी नियमावली के अनुसार।।


कभी ठहरकर कभी बरसकर
वो लिख रहा है
बस चंद लम्हे मोहब्बतों के,
हर एक लम्हा उदास है कुछ जरा सा टूटा 
मगर खनकता,
उन्हें समेटूं उतार लूँ खुद में
जैसे कोई नदी उतरती समंदरों में
विलीन होने हदों से आगे,
फिर कोई बादल है आज भी
देखो इतना तनहा
था जैसे ठिठका वो बरसों पहले
उसी सङक के उसी मोङ पर
कि जैसे तुम हो।।



पारे से इतर भी एक पैमाना है
ताप जांचने का
निर्धारित करने का उसकी तीव्रता बिना अंकों के,
कमाल तो ये कि वो जांच के साथ ही इलाज़ भी है
कि वो तकलीफ के साथ सुकून भी है
सरगश्तगी की तमाम उलझनों के बाद भी ,
पर्याप्त होता है एक स्पर्श भर ही मौजूदगी का किसी के
कि जिससे घुल जाती है घुटन की ठंडी सफेदी
कि जिससे धुल जाते हैं आँखों के ढेरों जाले
कि जिससे पिघल जाते हैं दर्द के दावानल कई,
ताप कच्चे मोम सा हो जाता है फिर
जिससे रच लेते हैं हम ढेरों राहत से भरे भाव -अक्स
कल्पनाओं के क्षितिज पर मुस्कुराते ठहराव- अक्स
और कुछ थोड़े से रगों में सरगोशी के लिए बेचैन -अक्स ,
समाधान अक्सर आविष्कारों में नहीं प्राकृतिक सहजताओं में छुपे होते हैं !!












हवा भी

हवा भी सांस हो पाने से पहले
कुछ ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से
सीने में मेरे फिर वो उतरती है,
घिरी धङकन भी रहती है यूँ अब
संशय के घेरे में
घिरी श्रद्धा भी रहती है यूँ अब
जैसे अंधेरे में,
कहीं कोई जहर ही हो न शामिल
अब दुआओं में
कहीं ढेरों असर ही हो न कामिल
अपनी मांओं में,
ये डर लगता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को
यही चिंता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को,
कहीं भूले से भी न चूक हो जाये
कभी उससे
हवाओं के किसी दूजे के हिस्से को
मुझे सौंपे,
रहे घुलता फिर वो सदियों तलक
कालिख के दरिया में
सिसकता ही रहे सदियों तलक
आंसू के दरिया में,
कि जो मुझसे भी हो सकती है ऐसी भूल
फिर कैसे
कोई इंसान सारी उम्र रह सकता है पाकीजा
वही इंसान कि जिसको भी मैंने खुद बनाया है
वही इंसान कि धरती पे जो बस मेरा साया है,
इसी अहसास से शायद हवा पहले ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से सीने में मेरे फिर वो उतरती है।।

कवितायेँ

अनगिनत शामों के
तमाम हसीन लम्हों को कुचलकर
किसी ने लिख दिया है उसीसे
आंसू,
कहीं दूर कोई एक और शख्स
लिख रहा है अब तक
बस प्रेम
बच गयी यादों को थामे,
दोनों अपने -अपने दर्द को समेटे लङ रहे हैं
खुद ही खुद से।।


हर बात मेरी हर बार रही
आधी -आधी,
पूरे थे अहसासात मगर
पूरे थे सब जज्बात मगर,
मैं यूँ थी कि
जिस राह चली वो राह रही
आधी -आधी।।


मै प्रेम में हूँ
वो खुद से कहती
पर फिर पाती खुद को संभ्रम में ,
लम्बी बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रियाओं से 
अंततः बोझिल व् उदास हो वो थक गयी
और छोड़ दिया ये कहना ,

बरसों बाद बेहद अनपेक्षित
पर एक बार फिर उसने सुना खुद को कहते
मै प्रेम में हूँ
और अब आश्चर्य तो देखिये ,
इस बार वो सचमुच प्रेम में है
गहन गंभीर गरिमामय प्रेम की नदी में
हर सांस -सांस डूबी
एक संभ्रांत सुसंस्कृत महिला ,
क्या ये चरित्रहीनता है ?

कब

कहते हैं कि मेरा देश आज़ाद हुआ है
यूँ लगता भी है
कि ये लालकिला अपना है
ये ताजमहल ये मांडू ये पटना शहर अपना है
कि अपना है यूँ तो कश्मीर भी 
कन्याकुमारी और फूलों का शहर अपना है ,
ये राज अपना है तख़्त ओ ताज अपना है
सरकार अपनी है अधिकार अपना है ,
बरस बीते मगर न जाने कितने ये सोचते
ये ढूंढते करते खोज -बीन
कि जो लडे आजादी को वो कौन थे
किस प्रान्त किस भाषा के थे
भारत माँ के किस हिस्से किस आशा के थे ,
कि अब भी दिख जाता है कोई ये साबित करता हुआ
कि वो भी अपना है तब भी था
कि आज़ाद भारत ही जिसका अंतिम सपना था
कि जिसको कह देता है कोई विकृति से
कि अच्छा साबित करो
या फिर जाओ अपने प्रान्त और वहा ठोको दावा
और कोई दास हो उठता है आहत
होता है आहत एक और व्यक्ति भी
फिर उतार देता है चित्रपट पर
एक दास ...बेहद ख़ास दास की दास्तान सरेआम ,
आहत दास थोड़ी राहत थोड़ी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा उठते है
हंसकर कहते हैं
मेरे देश तू आज़ाद दिखता तो है पर महसूस कब होगा ??

कवितायेँ

कई दफे उदासी बड़ी सूखी सी महसूस होती है
खुरदरी और दरकी हुयी भी ,
हर दफे तोड़कर रख लेती हूँ खुद में हर टुकड़ा उसका
साल बीतने तक भर जाता है हर एक गोशा 
पूरे गले तक ....पूरे नशे तक ,
इंतज़ार रहता है बस सावन का कि जो बरसे
तो भिगो दूं भर दूं हर दुकड़ा हर दरार
कि डूब जाए हर उदास लम्हा फिर रूमानियत में
उम्र भर के लिए
भिगोती हूँ भरती भी हूँ हर बार
न जाने कैसे पर रह जाता है फिर भी अछूता
एक कोना मन का ,
कि उसके लिए बारिश शायद बेवजूद है बेमायने है
कि उसके लिए राहत नहीं बूँद भर भी
इस उम्र में या अनेक उम्रों तक
कौन जाने !!



कल बेहद उदास थी रात
सागौन से टिकी पडी रही खामोश
उधेड़ती रही खुद को सितारों के क्रोशिये से
तब तक जब तक कि ज़ख्म जलने नहीं लगे
तब तक भी कि जब तक उनमे कुछ सोंधापन नहीं जागा ,
लिपटी रही तमाम मीठे लम्हाती सिक्कों के साथ
बीच-बीच में टूटी भी फिर खुद ही खुद को जोड़ा खुद से
खुद ही खुद का स्पर्श किया और उनींदी हो चली
भोर की राहतें सूरज की मुस्कुराहट में तब्दील हो उतर रही थीं
अलविदा कहने हौले से ,
रात ओस में बदल गयी और छुप गयी
नुकीली घास के नीचे
कि मिटटी बांह खोले थी उसे खुद में संजोने को ,
रात के दर्द भर हिस्सा जल उठा मिटटी का
पर वो हंस पड़ी माँ के से सुकून से और थामे रखा उसे दिन भर
देती रही थपकियाँ ... सहलाती रही दुलराती रही
फिर कर दिया विदा शाम ढलने पर ,
कि आज फिर बेहद उदास है रात
कि आज फिर टिकी पडी रहेगी सागौन से
चुपचाप ...... खामोश !!

एक दफे हथेली पर एक ज़ख्म उभरा
हलकी लालिमा लिए पर सब्ज़
हलकी हलकी टीस देता
कभी मीठी तो कभी नुकीली सी
कुछ दिनों बाद उनमे एक बिंदु नज़र आया 
जैसे आँख हो किसी की
या फिर कोई बहुत छोटा सा कैमरा हो
जो हर पल कैद कर रहा हो मुझे
कि मेरे हर लम्हे पर जिसकी नज़र हो ,

एक रोज़ अचानक ही भूरा हो गया
फिर स्याह और स्याह फिर धीरे-धीरे सूख गया
रह गया उस जगह ज़ख्म की याद दिलाता
बस एक कौला मांसल गोल घेरा
और रह गयी कुछ बेहद टीसती यादें ,
तुम्हारा जाना इस कदर तो जरूरी नहीं था न
हमनफ़ज मेरे !!

इश्क

रात की उनींदी आंखों ने कुछ गुनाह लिखे
कर दिया मुहब्बत के हवाले उसे
रख दिया वैसे ही वक्त की लाइब्रेरी में
जिंदगी के बाकीे अहम दस्तावेजों के साथ,
अब गुनाह भी इन प्यासी गलियों का किस्सा है
अब शर्म भी इस अजीम अहसास का हिस्सा है,
सुबह की धूप ने कुछ और सियाह कर दिया है उसे
फेर दी है मनहूसियत की कूची उसपर
बोझ फलक तक है
तकलीफ हलक तक
पर निजात दिखती नहीं कहीं,
कि यूँ ही डूबे रहना है तमाम उम्र तक
सिर झुकाए
दर्द का वाहियात बोझ उठाये
लिखते रहना है एक गीत मुहब्बत का
जिसकी एक पंक्ति इबादत की हो
एक माफी की 

कवितायेँ

मीठी घूँट की तरह उतर आए हो
तीखी धूप में भी तुम
जब-तब मैं भर लेती हूं असीम राहत सा तुम्हें
चुभलाती रहती हूँ देर तक
जब तक घुलता रहता है तुम्हारा मीठापन 
अंतर्मन में अंतिम बूंद तक
कि जब तक रातें थककर सुबह नहीं हो जातीं
कि जब तक अंगडाईयां सुकून से नहीं भर जातीं
तब तक भी कि जब तक
सितारों से मुट्ठियाँ नहीं जगमगातीं,
कि यूँ तो शरबतों सा होकर हलक में
राहत हुए हो
जो कभी दामन हो जाओ मीठे चश्मे सा
तो करार आ जाये मुझको
हमनफज मेरे।।


सहती रही अरसे तक
फिर फट पडी धरती पूरी उत्तेजना से
समस्त वेग से ,
{हो सकता है विज्ञान में ये होना सुनिश्चित हो या सामान्य प्रक्रिया भी }
सहम गया इंसान
डरा रोया चिल्लाया गिडगिडाया
वो नहीं मानी
भरती रही फुंकार रह -रहकर
थर्राती रही इंसानियत हर बार मौत के खौफ से
लहू दिखाती रही फट गए देह और विनष्ट संसार भी स्वयं का ,
धरती नहीं पसीजी पर
दिखाती रही रौद्र क्रोध अपना
मचाती रही तबाही
इन सबके बीच कहीं छोटा ... और छोटा होता रहा इंसान
निरंतर किन्तु बड़ी होती रही प्रकृति अपनी सम्पूर्ण उर्जा के साथ !!
रहम ईश्वर !!!!!!!!!!

Tuesday 2 February 2016

अधूरी लड़कियां

अधूरी होती हैं वो लड़कियां
जिनके गीले ज़ख्मो से प्रेम नहीं रिसता
जिनकी आँखों में भाप नहीं बनती
जिनकी चाय बनते - बनते कई बार आधी नहीं होती
या जिनकी हथेलियाँ अक्सर रोटियों से नहीं जला करतीं ,
वो भी कि जिनकी आलमारी का एक कोना
किसी ख़ास किस्म की गंध का वाकिफ नहीं होता
एक ख़ास किस्म के दर्द का साझी नहीं होता
जिनकी डायरियां सहज सुलभ होती हैं
या जिनमे कविताओं को जीने का माद्दा नहीं होता ,
वो भी जो तितलियों को
पकड़ते-पकड़ते सहम कर छोड़ देती हैं
या फूलों पर मंडराती आवाज़ से खौफ खाती हैं
डरती हैं जो रात के सन्नाटे में अकेले सड़क पर टहलने से
या कई दफे जो खींच लेती हैं आंचल सलीके से
अजनबी परछाइयों को देखते ही ,
शाम होते ही घरों पर ताले लगा लेती हैं
होमवर्क करवाती हैं न्यूज़ सुनती हैं डिनर करती हैं
फिर सो जाती हैं सबसे नज़दीकी अनजान आदमी के साथ
सोती रहती हैं हर रात किसी वाजिब रस्म की तरह
खालीपन महसूस किये बिना ही ,
टूटकर जिए बिना समझा नहीं जा सकता प्रेम को
प्रेम के अधूरेपन को
जो हड्डियों में गांठों सा हो जाता है
जी लेने पर सीने में साँसों सा !!

Monday 1 February 2016

उदास कविता

आज कविता उदास है
कि कल तो रात भी ग़मगीन थी
बेहद ,
सीढियों से उतरकर भटक गयी थी आहट
ज़ख्मो की
सिलते वक्त मानो धागा कच्चा निकला हो
या पड़ गयीं हो गांठें उन्हें बांधते वक्त बीच में ही
लाल आंसू फिसल पड़े थे,
फिसल पडा था जैसे वक्त मुट्ठियों की दरारों से
टाइम मशीन की रफ़्तार लेकर
बच रही थी धूल बस और कुछ कण लम्हों के
और साथ ही बस रहा था विश्व का विशालतम जंगल
प्रेम के अभाव से
या यूँ कहें कि प्रेम के बचे रहे गए बीजकणों से
बेहद उर्वरा होकर भूरा जामा पहने,
बूँद-बूँद पीड़ा रेत हो रही थी
चमक रही थी कि सूरज मेहरबान था आज
कि नमी कि तमाम कोशिशों को नाकाम कर रहा था आज
बावजूद इसके कि उसकी किरणों में भी सिहरन थी बहुत
कि उसका अंतस भी डूबा हुआ था ,
आज कविता उदास है
कि उसके शब्दों में रंग मसले हुए फूलों के हैं
कि उसकी कलम तकलीफ की अस्थियों से बनी है
जो रच रही है लगातार दर्द को, दूरियों को, सहनशक्तियों को ,
कभी-कभी प्रेम यूँ भी मेरे हमनफ़ज !!

एकाकी नदी

उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।

Sunday 31 January 2016

कवितायेँ

मुक्त होने की पीङा दुरूह है
बंधन चैन देता है,
नियंत्रित होना अनियंत्रण से बेहतर है
सीमाएं सुरक्षित रहती हैं,
पर उन खुशबुओं का क्या करें
जो प्रेम सी तिरती हैं
हवाओं में
उन्मुक्त.... आवारा
पीङाओं का मीठा बोझ थामे।।



उम्र के समंदर में वक्त नदी है
उसमें मौजूद ढेरों सुंदर अवांछित शैवालों को
सहलाती रहती है
उसकी अनेकों तीखी विषमताओं के बावजूद
अपनी नरम हथेलियों से वक्त बेवक्त 
खारेपन से राहत देती है कुछ पलों के लिए ही सही
शैवाल मुसकुरा देते हैं
नदी कुछ और करीब कुछ और खास हो जाती है
समंदर के ---- समंदर के लिए,
यद्यपि कि नदी अंततः समंदर ही हो जाती है
अपने समस्त प्रेम,एकाधिकार व समर्पण के साथ
परंतु वो पुनः नदी होना नहीं भूलती
शीतल व शांत होना नहीं भूलती
प्रेम करना व प्रेम बांटना नही भूलती
नहीं भूलती अविरल होना चंचल होना निश्छल होना,
अपनी पूरी जिजीविषा व उत्कंठा के साथ
समंदर में मुक्त होकर --- खोकर खुद को
वो फिर फिर लौटती है वापस नदी होने
प्रेम होने ----- जीवन होने,
एक बार फिर समंदर तक की यात्रा का लक्ष्य लेकर
असीमित प्यास लेकर
एकाकी नदी।।


कवितायेँ

कई दफे इंतजार खुद घायल दिखा है,
कि टिकी नजर जहां पर थी
वहां आहट किसी की है
कि जिसे चाहता था वो 
उसे चाहत किसी की है,
कभी कभी इश्क यूँ भी
मेरे हमनफज।।


इश्क के भी साइड इफेक्ट्स होते हैं
कभी मीठे कभी तीखे
तो कभी चरपरे,
इश्क कभी बेस्वाद नहीं होता 
मेरे हमनफज।।


बहुत हैरान मत हो
वही हूँ मैं,
लथपथ खून में सिमटी
इंतिहा दर्द में लिपटी
सिंकी सदियों हूँ आंसू में
बिकी सदियों हूँ पैसों में
मैं अपनो की शिकायत हूँ
मैं नफरत की रवायत हूँ,
मैं हूँ इंसानियत
लेकिन नही उनकी
कि जिनके हाथ में तलवार है
फकत उनकी
कि जिनकी गरदनों पर वार है,
सुना तुमने कुलीनों।।

कविता

चुनो
चुनो दर्द या खुशी
प्रेम या अ प्रेम
( प्रेम का विलोम नहीं होता)
सांस या शांति 
उम्र या जिंदगी,
चुनाव तुम्हारा होगा
व्यक्तिगत,
इसलिए चुनो
अन्य सब दरकिनार कर
अपने लिए मात्र,
इस सत्य के साथ
कि एक के साथ एक मुफ्त है
जैसे अ प्रेम के साथ खुशी
और प्रेम के साथ पीङा
असहनीय,
मेरे हमनफज।।




रात बुुन रही है सुंदर कविता
अलाव की लुकाठी थामे,
मिट्टी के सीने में सिहरन है
कि आसमान बस ढह पङने को है,
पहना दी जाएगी यही कविता
मिट्टी और आसमान के मिलन से उपजी
लथपथ भोर की पहली किरण को
रात की विरासत की तरह,
जिसे ओढ़ पूरा वो गुनगुनाती फिरे
किसी चिड़िया सी चहचहाती फिरे
और कर दे रूमानी धूप को भी,
शाम संधिकाल है
रात फिर होगी
अनेकों कविताओं के अदभुत प्रसव के लिए
कि अब तो सूरज को भी इंतजार है मीठी पीङाओं का,
प्रेम यूँ भी होता है
मेरे हमनफज।।

कवितायेँ

प्रेम को चक्खा कभी जब
था बहुत तीखा कसैला
ज्यों किसी ने भर दी हो हुक्के की पूरी आग
मेरी पसलियों में,
प्रेम क्या होता है मीठा भी कभी
जैसे शहद के ढेरों छत्ते।।


कई दफे मुँडेर से धूप उठाकर
बुन देती हूँ तुम्हें,
हर बार तुम मुसकुरा देते हो
हरारत से 
हर बार मैं हो जाती हूँ कुछ सुरमई सी
तुम्हारी पीठ में चेहरा छुपाये,
कि प्रेम यूँ भी तो है न मेरे हमनफज।।



वक्त थक रहा है उम्र का बोझ लादे
सफ़र लम्बा है शायद
कि अब वक्त को कूबड़ निकल आया है
कोई कोई आहट कराह उठती है
कोई टकरा जाती है
और उम्र का एक हिस्सा गिर जाता है वहीँ पर
चिपक जाता है सतह पर coaltar सा
कुरेदने में उम्र ज़ख्मी हो जाती है
वक्त उसे मायूसी व कुछ राहत से वहीँ छोड़ आगे बढ़ जाता है
ज़ख्म धीरे-धीरे ज़मीन की नमी में सीझता रहता है
पकता है परिपक्व होता है,
सुखाने की तमाम कोशिशे सूर्य को लाचार कर रही हैं
परन्तु ज़ख्म अब सूर्य पर साए सा है,
ज़ख़्मी उम्र मुस्कुराती है खिलखिलाती है
और अब तो करती है प्रेम भी
कि ज़ख्म अब उम्र के प्रेम का पैमाना हो गया है ,
शुक्रिया वक्त , तुम्हारी अनथक कोशिश
और तुम्हारे बदसूरत कूबड़ों के लिए
और इसलिए भी कि
प्रेम अब अपने सही अर्थों में सार्थक हो रहा है!!




मन

मन टूटता रहता है छोटे छोटे टुकड़ों में
कभी उदासी कभी एकांत तो कभी तकलीफ का बहाना लेकर
थोडा फलसफाना होकर,
उस रोज भी टूटा था 
जब गिट्टियों के लिए हुई लड़ाई हार गयी थी वो
और एकहथेली सांत्वना स्वरुप उसकी मुट्ठियों पर कस आई थी
उस रोज भी कि जब उसके चाय की प्याली
सरका दी गयी थी धीरे से किसी अज़ीज़ की ओर बिना उससे पूछे
मुस्कुराकर---- बदले में वो भी मुस्कुराई थी बढ़ी हथेलियों को पीछे खींचते हुए
चेहरे पर अचानक घिर आई अदृश्य परत को संभाले हुए भी
उस रोज भी कि जब सिनेमा देखना बस इसलिए मना हुआ कि वो लेट नाईट था
और २५ पारिवारिक लोगों में कोई एक ऐसा था जो अवांछित था
अप्रिय था---- पर किसके लिए ----- क्यों
उस रोज भी कि जब कोई मुस्कुराता सा उसकी तरफ देखते-देखते
किसी और की तरफ देखने लगा था
और उसकी पीड़ा पारे की तरह सीने से होते हुए आँखों तक नज़र आई थी
और फिर एकांत के थर्मामीटर में खामोश कैद हो गयी थी
अनेकों बार तब भी कि जब उसके बेहद छोटे-छोटे मामूली से सुख
परिवार की विराट मर्यादाओं के यज्ञ का ईधन हो गए थे,
ऐसे हर एक लम्हे में वो कछुआ हो जाती
दुबक जाती अपने महत्त्वहीन अपहचान अस्वीकार्य असम्मान के सुरक्षित मजबूत खोल के भीतर
पर मन ------वो चिड़िया हो जाता
इन तमाम अनगिनत लम्हों के छोटे-छोटे टुकड़ों को तिनकों सा कर बुन देता
अपने घोंसले की एक और पंक्ति
जिसके तमाम कमरों में से एक कमरा बुना जाना बाक़ी है अभी
कि जिसमे वो रखना चाहती है
बचपन से अब तक के तमाम उन लम्हों के पीड़ा जनित अपमान की जिज्ञासा
उनके तमाम प्रश्नवाचक चिन्ह
कि जब वो न रहे शायद तब कोई समझ सके , महसूस कर सके और देना चाहे
असंख्य भावपूर्ण प्रश्नों के ईमानदार जवाब
और पालना चाहे कोई चिड़िया
बना सके उसके लिए एक घोंसला मजबूत सुरक्षित और सम्मानजनक
और सुन सके वो तमाम गीत उससे
जो लिखे जा रहे हैं अनवरत दर्द के पन्नों पर
नमक की स्याहियों से !!

प्रिय

बूँद भर कॉफ़ी की रख दो
उसके होठों पर
तुम अपने होठों से ,
फिर खुली बारिश में तुम 
देखो चटकना सूर्य का
हो मुग्ध प्रियवर !!




हम्न्फ्ज़

सुकून टूटकर सितारों सा जा छिपा है
आसमां पर
कि मानो आसमां पर कोई मोरपंख छीजा पडा हो
लहूलुहान----- लम्बे अरसे से ,
ज़मीन की जड़ों से निकलकर कोई कीड़ा
लहू में फुंफकारता है
देह पीली पड़ जाती है
जबकी जहर का असर तो नीला होता है
महत्त्व भी नीला ही होता है
पर यहाँ रंगों का उलटफेर
दर्द की कवायद को कम नहीं करता
बढा देता है उलटे
कि जब मौसम इन्द्रधनुषों के निकलने का हो
ठीक उसी वक्त निकल आता है सूरज अपनी खोह से
अपने तीव्रतम ताप का पिटारा खोले
ठीक उसी वक्त तमाम घोंसले सुलगती राख का मटमैला आइना हो जाते हैं
और हो जाते हैं तमाम गीले ज़ख्म पपडियाये से
कि जैसे झरने से काँटों का कोई सोता फूट पड़े
कि जैसे हवाओं से साँसों का सम्पर्कसूत्र ही खो जाए
कि जैसे गुलाब से खुशबू का वास्ता ही न रहे
इस कदर की विभक्ति परिणामतः भयानक ही होती है
पर होती है ,
यूँ तो सुकून स्वीकार्य की परिणति है
संतोष का मित्र है
पर यही दो तत्व अक्सर वहां नहीं होते
जहां होता है प्रेम मेरे हमनफ़ज़ !!

कवितायेँ

बूँद भर लफ्ज़ सौंप दिया था तुम्हें
तुम्हारी हथेली में
सूखकर तिल सा उभर आया है अब जो
लाल तिल ,
काला तो भाग्य का अग्रदूत होता है
पर लाल रंग में ऐसा कोई मुगालता नहीं ,
दिनों दिन तुम्हारी हथेली
एक बड़े से सूर्य के आसमां सी हो रही है
जैसे दिनों दिन मेरा मौन
मेरे दर्द में विस्तार पा रहा हो
पनाह के साथ ही !!



उदासियों के अक्स से नकाब नोंचकर फेंक दी है
नज़र आते हैं पीड़ा से भरपूर कोटर कई
छिछला गयी चमडियों के फर्श
और ढेरों पसरी मनहूस काई,
इन्हें मिटाने की कोई शीघ्रता नहीं
वरन पाले जाने का जूनून है
एक और जिद्द भी
तकलीफों के गह्वर से सुकून के तलाश की,
इनका पाला जाना आवश्यक भी है
खुद को जीवंत कहे जाने का भ्रम सहेजने को
और मशहूर करने को खुद को खुद के जटिल अंतर्मन में,
बाह्य स्वप्न काईयों में तितलियाँ सहेजते हैं
अंतरतम के स्वप्न कोटरों में मधुमक्खी
दोनों मिलकर ही रचते हैं छिछलाई हुयी चमड़ियों में मीठी चंचलता
और ये सहज खेला अनवरत प्रवाहित होता है ढेरों कोकूनो की लुगदी के नीचे
ढका छिपा निरंतर इतिहास रचता,
उदासियाँ यूँ ही सम्मान के काबिल नहीं बनतीं
हमनफ़ज मेरे !!



ICU में ढेरों विचित्र औषधीय गंधों
ढेरों बिधी सुईयों, उनसे जुड़े ट्यूब के जालों
व रह रहकर
सिरींज भर खून निकाले जाने की
तकलीफदेह प्रक्रियाओं से 
बिना पीडा बिना शिकवा जाहिर किए
जूझते हुए भी,
कि जब पहचान करने में नाकाबिल करार हों
तब उनका एकदम से मुझे देख मुस्कुराना
और कहना ----मेरी बेटी
पुकारना मेरा नाम
अदभुत सुख संतोष और उतनी ही पीङा से भी भर गया मुझे,
आज मैंने भी अपने अंदर की माँ को जाना
पहचाना,
और अपनी बेटी को भी
पहले से कहीं बेहतर,
यूँ लगा कि नीले कपड़ों में लिपटी गुङमुङाई मेरी माँ
आज सुंदर शब्दों से सजी कविता का इंद्रधनुषी भावार्थ बन गयीं।।

ताप

पारे से इतर भी एक पैमाना है
ताप जांचने का
निर्धारित करने का उसकी तीव्रता बिना अंकों के,
कमाल तो ये कि वो जांच के साथ ही इलाज़ भी है
कि वो तकलीफ के साथ सुकून भी है
सरगश्तगी की तमाम उलझनों के बाद भी ,
पर्याप्त होता है एक स्पर्श भर ही मौजूदगी का किसी के
कि जिससे घुल जाती है घुटन की ठंडी सफेदी
कि जिससे धुल जाते हैं आँखों के ढेरों जाले
कि जिससे पिघल जाते हैं दर्द के दावानल कई,
ताप कच्चे मोम सा हो जाता है फिर
जिससे रच लेते हैं हम ढेरों राहत से भरे भाव -अक्स
कल्पनाओं के क्षितिज पर मुस्कुराते ठहराव- अक्स
और कुछ थोड़े से रगों में सरगोशी के लिए बेचैन -अक्स ,
समाधान अक्सर आविष्कारों में नहीं प्राकृतिक सहजताओं में छुपे होते हैं !!

बेचैन मन

उलझने की हद तक इश्क करो
तब तक जब तक की उनकी गांठें मजबूत न हो जाएँ
और उन पर एक अलीगढ़ी ताला कसकर न जड़ा जा सके
जब तक उन्हें उन आलों में सुरक्षित न रखा जा सके
जहां से उन्हें उतार पाना लगभग नामुमकिन हो 
या फिर उस अलगनी से कसकर न बाँध दिया जाए
जो कमरे के एकदम किनारे के अंधेरों में कितने ही सालों से
चुपचाप लटक रही है ऐसे ही चुनिन्दा किस्सों को संभाले ,
इश्क करो तब तक जब तक कि
बौराये आम की टहनी सूख कर किसी नवेले चूल्हे में भभक न पड़े
या फिर कदम्ब के ढेरों फल इमली के स्वाद में न बदल जाएँ
तब तक भी कि जब तक धूप अपना मीठापन मुझमे बिखेरने से बाज़ आये
हवाएं अपनी आवारगी छोड़ शराफत से एक जगह थम जाएँ
नदी बहते-बहते हिमालय के शिखर तक जा पहुंचे
और मेरा आँगन एक बार फिर कच्ची मिटटी की आतिशी महक से भर जाए,
इश्क करो तब तक भी कि
जब तक कि मेरी रूह सात जन्मो का सफ़र तय कर वापिस मुझ तक न लौट आये
कि जब तक मौसमों का सलीका हिमाकत में न बदल जाए
कि जब तक फूलों की खुशबू अब्र में न घुल जाए
कि जब तक ये महुए का नशा इंसानी उम्र की औषधि न बन जाए
तब तक ----- तब तक इश्क करो मुझसे
मेरे बेचैन मन !!

धर्म बनाम अधर्म

मै धर्म के विरुद्ध हूँ
मै अधर्म के भी विरुद्ध हूँ
पर मै आंसुओं के करीब हूँ
मै दर्द के करीब हूँ
मै मुस्कान के करीब हूँ ,
धर्म मुझे आंदोलित नहीं करता न ही प्रेरित
अधर्म भी नहीं
पर आंसू दर्द और मुस्कान मुझे कंपा देते हैं ,
कंपा देता है मुझे किसी बच्चे का मासूमियत से तकलीफ सहेजना
फिर भी मुस्कुराना
हंसना - खेलना किसी सीले से बंद कमरे के अंधेरों में जोर से आँखें मीचे
ये मानते
कि वहां भी एक नदी है जो बह रही है कल-कल उसके चारों ओर
तेज़ी से चक्कर काटते
जिसमे वो खुद भी उतनी ही तेज़ी से गुलटियाँ मार रहा है
धार के विपरीत पूरी ताकत लगाता फिर भी हार-हार ही जाता
पर वो खुश है कि ये हार उसने खुद चुनी थी
उसके मन ने चुनी थी
कि ये हार उसे ले जाती है उसकी प्रिय नदी और ढेरों दोस्तों के बीच
बेशक बंद अंधेरे कमरे के सीलेपन के बीच आँख मीचे हुए ही क्यों न हो ,
धर्म मुझे छू नहीं पाता
कि उसका कट्टर व्यवहार व्यक्ति को मानवता से दूर कर देता है
दूर कर देता है उसे दिलों के साझेपन से
और दूर कर देता है आंसुओं के पार झांककर दर्द में कहींगहरे उतर आने केहुनर से
उसे बांटकर ख़त्म कर देने के हुनर से
कि जब कोई शमीम किसी विक्टर से लिपटकर रो सके
कि जब कोई हरमीत कौर किसी आशीष त्रिपाठी को उतनी ही शिद्दत से भाई कह सके
जैसे वो अपने दलजीते को कह पातीहै ,
धर्म मुझमे संवेदनाएं नहीं जगाता
सामान्य शिष्टाचार भी नहीं
कि जब किसी धार्मिक पर्व के बीच
कोई बच्चा प्रसव से तडपती माँ की सहनशीलता को तोड़ता
उसकी गरिमा पर आघात करता सड़क किनारे ही पैदा हो जाता है
या फिर इन्हीं आयोजनों के बीच कोई शख्स अपनी अंतिम यात्रा पर भी
क्यू में नज़र आता है
धर्म के छिछोरे उन्माद के बीच अपनी बारी के इंतज़ार में नज़र आता है
जलाये या दफनाये जाने को आतुर ,
धर्म यदि ये है तो मै इसके विरुद्ध हूँ
तथाकथित धर्मावलम्बियों की परिभाषा के अनुसार मै अधर्म के भी विरुद्ध हूँ
पर उस पवित्र आस्था के निकट
मै सिर ऊँचा किये खडी हूँ
कि मै उसके बन्दों के आंसुओं ,दर्द व् मुस्कान के करीब हूँ
वो सह्रदय है मेरे प्रति
फिर भी यदि आप चाहें तो मुझे काफ़िर कहें बेशक !!

तुम हो

मै प्रेम में हूँ
वो खुद से कहती
पर फिर पाती खुद को संभ्रम में ,
लम्बी बार-बार दोहराई जाने वाली प्रक्रियाओं से 
अंततः बोझिल व् उदास हो वो थक गयी
और छोड़ दिया ये कहना ,
बरसों बाद बेहद अनपेक्षित
पर एक बार फिर उसने सुना खुद को कहते
मै प्रेम में हूँ
और अब आश्चर्य तो देखिये ,
इस बार वो सचमुच प्रेम में है
गहन गंभीर गरिमामय प्रेम की नदी में
हर सांस -सांस डूबी
एक संभ्रांत सुसंस्कृत महिला ,
क्या ये चरित्रहीनता है ?



देर तक सूरज पका आज फिर
शक की देगी में
अंगीठी उम्र जितनी लम्बी थी
आंच सांस जैसी घुटन लिए कसी हुयी,
टुकड़ा-टुकड़ा चांदनी बदलती रही
कोयले में
सितारे भी चिंगारी होते रहे
पर मौसम बारिशों का था
सो धूएँ की ढेरों गंध सीली ही रही ,
सूरज बेशक खूब पका हो देर तक
पर स्याह नहीं हुआ
न ही फीका
कि इस बार उसकी मुस्कान पारिजात सी थी
खिली-खिली और बेतरह बिखरी,
इस बार शक ने उसे सुगन्धित कर दिया था
आश्वस्त भी प्रेम के प्रति
जैसे तुम्हें
मेरे हमनफ़ज !!




चुप्पियों के दौरान
कशमकश की रस्सी थामे
कोई उस पार उतर गया,
कोई रह गया वहीँ पर 
बनने को राह का पत्थर
या फिर शिलालेख सा ही कुछ,
अब ये वक्त को तय करने दो
उसकी नियमावली के अनुसार।।




कभी ठहरकर कभी बरसकर
वो लिख रहा है
बस चंद लम्हे मोहब्बतों के,
हर एक लम्हा उदास है कुछ जरा सा टूटा 
मगर खनकता,
उन्हें समेटूं उतार लूँ खुद में
जैसे कोई नदी उतरती समंदरों में
विलीन होने हदों से आगे,
फिर कोई बादल है आज भी
देखो इतना तनहा
था जैसे ठिठका वो बरसों पहले
उसी सङक के उसी मोङ पर
कि जैसे तुम हो।।









धीमी हवा

हवा भी सांस हो पाने से पहले
कुछ ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से
सीने में मेरे फिर वो उतरती है,
घिरी धङकन भी रहती है यूँ अब
संशय के घेरे में
घिरी श्रद्धा भी रहती है यूँ अब
जैसे अंधेरे में,
कहीं कोई जहर ही हो न शामिल
अब दुआओं में
कहीं ढेरों असर ही हो न कामिल
अपनी मांओं में,
ये डर लगता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को
यही चिंता है अब मुझसे जियादा
मेरे ईश्वर को,
कहीं भूले से भी न चूक हो जाये
कभी उससे
हवाओं के किसी दूजे के हिस्से को
मुझे सौंपे,
रहे घुलता फिर वो सदियों तलक
कालिख के दरिया में
सिसकता ही रहे सदियों तलक
आंसू के दरिया में,
कि जो मुझसे भी हो सकती है ऐसी भूल
फिर कैसे
कोई इंसान सारी उम्र रह सकता है पाकीजा
वही इंसान कि जिसको भी मैंने खुद बनाया है
वही इंसान कि धरती पे जो बस मेरा साया है,
इसी अहसास से शायद हवा पहले ठिठकती है
झिझकती है सहमती है
बङे धीरे से सीने में मेरे फिर वो उतरती है।।

लम्हा भर

अनगिनत शामों के
तमाम हसीन लम्हों को कुचलकर
किसी ने लिख दिया है उसीसे
आंसू,
कहीं दूर कोई एक और शख्स
लिख रहा है अब तक
बस प्रेम
बच गयी यादों को थामे,
दोनों अपने -अपने दर्द को समेटे लङ रहे हैं
खुद ही खुद से।।



हर बात मेरी हर बार रही
आधी -आधी,
पूरे थे अहसासात मगर
पूरे थे सब जज्बात मगर,
मैं यूँ थी कि
जिस राह चली वो राह रही
आधी -आधी।।



आखिर कब

कहते हैं कि मेरा देश आज़ाद हुआ है
यूँ लगता भी है
कि ये लालकिला अपना है
ये ताजमहल ये मांडू ये पटना शहर अपना है
कि अपना है यूँ तो कश्मीर भी 
कन्याकुमारी और फूलों का शहर अपना है ,
ये राज अपना है तख़्त ओ ताज अपना है
सरकार अपनी है अधिकार अपना है ,
बरस बीते मगर न जाने कितने ये सोचते
ये ढूंढते करते खोज -बीन
कि जो लडे आजादी को वो कौन थे
किस प्रान्त किस भाषा के थे
भारत माँ के किस हिस्से किस आशा के थे ,
कि अब भी दिख जाता है कोई ये साबित करता हुआ
कि वो भी अपना है तब भी था
कि आज़ाद भारत ही जिसका अंतिम सपना था
कि जिसको कह देता है कोई विकृति से
कि अच्छा साबित करो
या फिर जाओ अपने प्रान्त और वहा ठोको दावा
और कोई दास हो उठता है आहत
होता है आहत एक और व्यक्ति भी
फिर उतार देता है चित्रपट पर
एक दास ...बेहद ख़ास दास की दास्तान सरेआम ,
आहत दास थोड़ी राहत थोड़ी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा उठते है
हंसकर कहते हैं
मेरे देश तू आज़ाद दिखता तो है पर महसूस कब होगा ??

प्रेम

एक दफे हथेली पर एक ज़ख्म उभरा
हलकी लालिमा लिए पर सब्ज़
हलकी हलकी टीस देता
कभी मीठी तो कभी नुकीली सी
कुछ दिनों बाद उनमे एक बिंदु नज़र आया 
जैसे आँख हो किसी की
या फिर कोई बहुत छोटा सा कैमरा हो
जो हर पल कैद कर रहा हो मुझे
कि मेरे हर लम्हे पर जिसकी नज़र हो ,
एक रोज़ अचानक ही भूरा हो गया
फिर स्याह और स्याह फिर धीरे-धीरे सूख गया
रह गया उस जगह ज़ख्म की याद दिलाता
बस एक कौला मांसल गोल घेरा
और रह गयी कुछ बेहद टीसती यादें ,
तुम्हारा जाना इस कदर तो जरूरी नहीं था न
हमनफ़ज मेरे !!





कवितायेँ

खुद की मिटटी को रगड़कर बारिशों से
भाव गूंधा
फिर गढे कुछ शब्द कोमल ,
दोस्त लिखकर मुट्ठियों से भाप दी 
बन गया पर वो मुहब्बत
फिर गढ़ा विश्वास को
पर हो गया वो भी समंदर
अंत में मैंने गढ़ी ईमानदारी
पर बदलकर हो गया वो दर्द की तकलीफ जैसा ,
हंस पड़ी आँखें मेरी फिर हंस पडा बादल भी सारा
बह गया फिर गूंधी मिटटी का खजाना
मै भी कुछ-कुछ बह चली
रह गयी कुछ ,
बारिशों से अब मुझे है खौफ आता
प्रेम भी कुछ
कि मै बंटी दोनों में ही हूँ
हूँ फिर भी जीवत !!



शाम ने थोडा उचककर बादलों को छू लिया
फिर हुयी सिहरन अज़ब सी
बाँध तोड़े बह चला वो
ढह चला वो ,
रच दिए कितने ही सागर और नदी
जैसे कि लिखता कोई पागल कवि ,
यूँ ही तुम भी हो रहो मेरे लिए
बस बांह खोले आँख मूंदे
छू तो लो बस !!




उदासी को निचोड़कर भर लिया है बोतल में
जब-तब छुआ करती हूँ
तब भी जब मन हंस रहा होता है
और तब भी जब मौसम हंस रहा होता है ,
कभी - कभी दिन के खाली पन्ने पर कुछ उकेर देती हूँ
गुडहल का लिसलिसापन मिलाकर
या चांदनी की कुछ पंखुड़ियां चिपकाकर ,
कभी-कभी रात में भी धूप चुनती हूँ
तमाम सितारों के झुण्ड गर्मी में बदल देती हूँ
तमाम बेचैन बिखरी किरणों को कैमरे की फ़्लैश लाइट में ,
इन चुनिन्दा पलों में सहेजी उदासी खूब काम आती है
कि जब अक्स खुलकर मुस्कुरा रहा होता है
उदासी अंतस में सहारे सी हो जाती है !!





कई दफे उदासी बड़ी सूखी सी महसूस होती है
खुरदरी और दरकी हुयी भी ,
हर दफे तोड़कर रख लेती हूँ खुद में हर टुकड़ा उसका
साल बीतने तक भर जाता है हर एक गोशा 
पूरे गले तक ....पूरे नशे तक ,
इंतज़ार रहता है बस सावन का कि जो बरसे
तो भिगो दूं भर दूं हर दुकड़ा हर दरार
कि डूब जाए हर उदास लम्हा फिर रूमानियत में
उम्र भर के लिए
भिगोती हूँ भरती भी हूँ हर बार
न जाने कैसे पर रह जाता है फिर भी अछूता
एक कोना मन का ,
कि उसके लिए बारिश शायद बेवजूद है बेमायने है
कि उसके लिए राहत नहीं बूँद भर भी
इस उम्र में या अनेक उम्रों तक
कौन जाने !!





कल बेहद उदास थी रात
सागौन से टिकी पडी रही खामोश
उधेड़ती रही खुद को सितारों के क्रोशिये से
तब तक जब तक कि ज़ख्म जलने नहीं लगे
तब तक भी कि जब तक उनमे कुछ सोंधापन नहीं जागा ,
लिपटी रही तमाम मीठे लम्हाती सिक्कों के साथ
बीच-बीच में टूटी भी फिर खुद ही खुद को जोड़ा खुद से
खुद ही खुद का स्पर्श किया और उनींदी हो चली
भोर की राहतें सूरज की मुस्कुराहट में तब्दील हो उतर रही थीं
अलविदा कहने हौले से ,
रात ओस में बदल गयी और छुप गयी
नुकीली घास के नीचे
कि मिटटी बांह खोले थी उसे खुद में संजोने को ,
रात के दर्द भर हिस्सा जल उठा मिटटी का
पर वो हंस पड़ी माँ के से सुकून से और थामे रखा उसे दिन भर
देती रही थपकियाँ ... सहलाती रही दुलराती रही
फिर कर दिया विदा शाम ढलने पर ,
कि आज फिर बेहद उदास है रात
कि आज फिर टिकी पडी रहेगी सागौन से
चुपचाप ...... खामोश !!




उदास काला चश्मा

उसी शहर का उदास काला चश्मा है ये
जहां ख्वाब खिलते थे
इस कदर चमकीले कि नंगी आँखों से देख पाना
संभव नहीं था
इसलिए ही रात के कुछ उधार के धागों से बुना है इसे ,
जब - तब पहन लेती हूँ
जब उदास होना चाहती हूँ रोना चाहती हूँ
छिछली सतह पर दौड़ना चाहती हूँ
कि यादों के पैरहन में एक जोड़ा भर गुलाबी टांका
देखना चाहती हूँ
एक जोड़ी पैर जितना हाथों जितना
या फिर गहरी कटीली नज़रों जितना
कि जिसमे रस भर-भर कर तीखापन सजाया गया था ,
तब भी पहन लेती हूँ
जब कोई पुरानी तारीख किसी किताब के कवर से
मेरी तकलीफ में उतर जाती है
जब कोई पुराना दोस्त चुपचाप मेरे होने में
किसी और को तलाशने की कोशिश करते हुए भीग उठता है
कि कई दफे वो ज़िक्र किसी और का और उम्मीद किसी और की करता है ,
उदास काला चश्मा
कई मायनों में हमसफ़र से बेहतर है
कि ये कुरेदता नहीं कभी छीलता भी नहीं
साथ होने पर बस साथ भर होता है
कभी -कभी भावुक हो सहलाता है दुलराता है
जो ये भी न कर सके
तो बस मेरी पलकों को थामे रखता है
कम्पन की हर प्रक्रिया को छुपाकर
बनाये रखता है मुझे
गर्वीली सजीव जिंदादिल संतुष्ट स्त्री ,
ये मेरा उदास काला चश्मा
थोडा-थोडा अब भी रखता है मुझे
उसी शहर में
जहां चमकीले ख्वाब अब भी खिला करते हैं
पर जहां अब रात ने उधार देना बंद कर दिया है !!

दर्ज

सीने की मिट्टी पर दर्ज होती हैं हवाएं
दर्ज होती है तकलीफ
और एक किस्म की बेचारगी भी,
जब जिसम की आखें सूनी हो उठती हैं 
जब उंगलियों से फटे कागज की सी आवाज आती है
जब कोई चाह हो जाती है सोंधी -सोंधी सी
जब तमाम सांसे पकने लगती हैं रात के चूल्हे पर
जब तमाम शिकवे राहतों का सबब हो जाते हैं
जब गले के पास यूँ ही उभर आते हैं कुछ जख्म,
ठीक उसी वक्त हजारों मील दूर बैठा कोई कर रहा होता है
धूप से जवाब -तलब
और कर रहा होता है ख्वाहिश बारिशों की
बिना ये जाने कि किसी के सीने की मिट्टी बारिशों में भी
दरारों सी हो जाया करती हैं।।






मत करो

मत करो ,
यूँ मत करो कि न बचे कुछ बीच के सेतु सहित
बीच की उर्जा जहां नैराश्य का साधन बने
मतिहीन हो मत यूँ करो ,
रह भी जाए गर अगर रिश्ता कहीं टूटा हुआ
उधड़ा हुआ ..... रोता हुआ हर पल कहीं सहमा हुआ
फिर क्या हो हासिल
कि जिन्दगी पटकी रहे कदमो तले
और अहम् का साम्राज्य हो ,
कुछ नहीं रह पायेगा कुछ नहीं बच पायेगा
गर बच गया ये अहम् कुंठित ,
सो त्याग दो इसको अभी
और फिर करो रचना सुन्दर दृश्य की
कि हों जहां खुशियाँ असीमित
हो जहां सपने असीमित
और हो मुस्कान संग उपलब्धियों के
खिलखिलाती रौशनी का साथ हो
आगाज़ हो फिर एक निर्मल भाव का ,
मत करो ,
यूँ मत करो कि न बचे कुछ बीच के सेतु सहित
बीच की उर्जा जहां नैराश्य का साधन बने
मतिहीन हो मत यूँ करो !!

प्रेम कवितायेँ

रात की उनींदी आंखों ने कुछ गुनाह लिखे
कर दिया मुहब्बत के हवाले उसे
रख दिया वैसे ही वक्त की लाइब्रेरी में
जिंदगी के बाकीे अहम दस्तावेजों के साथ,
अब गुनाह भी इन प्यासी गलियों का किस्सा है
अब शर्म भी इस अजीम अहसास का हिस्सा है,
सुबह की धूप ने कुछ और सियाह कर दिया है उसे
फेर दी है मनहूसियत की कूची उसपर
बोझ फलक तक है
तकलीफ हलक तक
पर निजात दिखती नहीं कहीं,
कि यूँ ही डूबे रहना है तमाम उम्र तक
सिर झुकाए
दर्द का वाहियात बोझ उठाये
लिखते रहना है एक गीत मुहब्बत का
जिसकी एक पंक्ति इबादत की हो
एक माफी की
हमनफज मेरे।।



कुछ शब्द रात के माथे पर खुदे है
कुछ चाँद के सीने पर
कुछ सितारों के आँचल पर
तो कुछ परछाई के भीतर,
तासीर सबकी पर एक सी
थोड़ी गरम, थोड़ी तीखी
कुछ कसैली सियाह सी,
कि मानो इश्क ने खुद को
कहवे सा बना डाला है
पीती हूँ जिसको घूँट -घूँट मैं
पीता है जिसको घूँट -घूँट वो,
जिन्दगी की तरह जीने के लिए।।



शाम की हथेली में दर्द घिस दिया है
शाम पीली हो उठी
कि जैसे शादी में हल्दी की रस्म ,
शाम खुद ब खुद निखरने लगी 
शाम खुद ब खुद डरने लगी ,
शाम भ्रम में थी
दर्द और हल्दी के बीच ,
अमूमन तकलीफ कम हो जाती है हल्दी के बाद
पर यहाँ जायका कुछ कसैला निकला
कुछ क्या बेहद ,
शाम धीरे-धीरे स्याह हो उठी
मानो आज दर्द ने कब्ज़ा लिया हो
तमाम पीले सुकून को
जो कभी अमलतास सा होता था
तो कभी सूरजमुखी सा ,
शाम फिर भी हंस रही है
चाँद काला पड गया है !!












ओक वृक्ष

खामोश निढाल शाम थककर टिक गई
Oak tree के सीने पर
तरंगित हो उठा तना,
उदासी बूंद -बूंद घुलती रही उसमें 
अगन तहों तक जलने लगी उसमें
पर वो मुस्कुराता रहा,
टपक उठीं कुछ बूंदें क्यारियों तक भी
जो अनगिनत रंगबिरंगे फूलों की खुराक हो उठीं
फूल खिलखिला उठे.... दमक उठे
कभी -कभी किसी का दर्द किसी की उर्जा हो जाता है,
आह्लादित अनियंत्रित हो वे लिपट गये
शाम की हथेलियों से
कुछ उसके चेहरे तक भी पहुंचे
बस चूमा भर ही था कि मुरझा कर गिर गये
अचानक अपनी ही पत्तियों पर
ताप कङा था,
दर्द अब भी बूंद- बूंद Oak tree में भर रहा था
Oak tree अब भी शाम पर मर रहा था,
अंतत: मुक्त हो शाम हँस पड़ी
हँस पङा Oak tree भी,
शाम अब भी आती है गाहे -बगाहे
ढेरों दर्द ढेरों उदासियां समेटे
उङेल देती है Oak tree के सीने में
अपनी अंतिम बूंद तक
Oak tree हर रोज तकलीफ से भर उठता है
फिर भी मुस्कुराता है
हर रोज इंतजार करता है शाम के आने का
जो भर देती है उसे
असीम अगाध अनंत मीठी गरम तकलीफ से
अप्रतिम गरिमा से,
जाती हुई शाम पर कभी नहीं देख पाती
Oak tree की सूखी श्वेत आंखों को
बोझ से झुक आयी डालियों को
या फिर उसकी जङो पर घिर आए
खारे पानी के गहरे कुएं को,
Oak tree अब भी हर शाम मुस्कुराता है
कुआं हर रोज कुछ और गहरा जाता है।।