Monday 27 February 2012

तुम !

तुम
बस वहीँ ठहरे रहो
अपने सुकून की सतह पर
खुशबू की तरह ;

हो सके तो
 एक लिबास सिलो
अपनी साँसों को चुनकर
अपनी धडकनों के धागों से ;

 मै भी वहीँ हूँ
सूरज की सुर्ख ज़मीन पर 
 खलिश का दरिया समेटे ;

मैंने भी बुना है
एक सपना मुहब्बत का
तपिश के धागों से
तुम्हारे लिए ;

 तुम्हारे सुकून और मेरी खलिश को
वक्त के अलाव में
आहिस्ता-आहिस्ता
अभी कुछ और पकने दो ;

फिर हम दोनों ही देंगे
ये सौगात एक दूसरे को
कच्ची मिटटी के घड़े में भरकर ;

तुम्हारे लिबास में मै राधा बन जाउंगी
और मेरे सपने संग तुम मोहसिन बन जाना
हमनफज मेरे !!




अर्चना राज !!







 








 

जिन्दगी !

न जाने क्यों लगने लगा है कुछ यूँ आजकल मुझको
की जिन्दगी ... तेरे पन्नो में कहीं मेरा जिक्र भी  नहीं ,

बुलंदी  हौसलों की कुछ इस कदर बिखरने लगी हैं
की तेरे  दामन में मेरे होने का कोई  मकसद भी  नहीं ,

जीना भी  आजकल; सीने पर इक बोझ सा लगता है
जी लेती हूँ की शायद कुछ पावना अभी  बाकी है तेरा ,

तू बख्श दे गर मुझे उन अज़ाबों के मयखाने से
मै बख्श दूँगी तुझे अपनी बेअसर रवानी से ....  !!!


                                 अर्चना राज !!

जिन्दगी !

जिन्दगी के तमाम किस्से
यूँ ही....हर्फ़ -बा -हर्फ़ बिखरे पड़े हैं;
अनगिनत पीले पन्नो में........

समेटे हुए
कुछ इस कदर गमजदा अहसास
कि गर संवारो इसे
तो अश्कों का इक ताजमहल बन जाय.....!!!!!


                 अर्चना राज !!        

अक्सर

अक्सर बादलों में
इक अक्स नज़र आता है
धुंधला सा ......

बारिश जब भी होती है
न जाने क्यों
तेरी खुशबू सी आती है
उन बूंदों से ......!!!!


         अर्चना राज !!!!!!!

Sunday 26 February 2012

जज़्ब

अपनी पलकों में
जज़्ब हो जाने दो
 मेरे अश्कों को
मेरे दर्द की पेशानी से ;

शर्त बस ये है
 कि तुम्हे भी गुजरना होगा
मेरे आह की ज़मीन से मेरे हमनफज !!


                  अर्चना राज !!

Thursday 23 February 2012

शब्द बनाम मौन

मौन का ये कैसा अंतर्विरोध है शब्दों से
जो नहीं दे पाता कभी कोई संबल
दर्द के विवश ; विस्तृत सैलाब को ,

हमारे अहसास बस यूँ ही
मौन की बैसाखी पर पला करते हैं
और जलते रहते हैं दिन-रात
अंगारों से हमारे अंतर्मन में ;
पर हम उन्हें शब्दों की शक्ल में 
ख्वाहिशों की कलम से
जज्बातों के पन्नो पर नहीं उकेर पाते ;
कर पाते तो शायद घुटन कुछ कम होती
तुम्हारी भी ....और मेरी भी ,

मौन प्रेम की स्वीकारोक्ति का प्रमाण हो सकता है
पर स्निग्ध तरलता के लिए
शब्दों का अलाव भी जरूरी है ,

क्यों नहीं दे पाते हम अपने विवश मौन को
शब्दों का एक मजबूत आधार
जो संभाल सके हमारी तप्त
और अनियंत्रित बेचैनियों को
अपने स्तम्भ से ठहराव के साथ ,

यदि मै अपने मौन को विवशता की कैद से छुडा पाऊं 
और दे पाऊं  उसे शब्दों की अप्रतिम आजादी
जिस पर सतरंगी कलम से तुम्हारा पता लिखकर
उसे हवाओं के हवाले कर दूं 
और जो तुम तक
मेरी बेचैनियों और कामनाओं का संदेशा पहुंचा सके
जिसे पढ़कर शायद तुम भी
कुछ शब्दों में अपने बेचैन रंग भर सको
और उन्हीं हवाओं के हवाले कर सको
मुझ तक लाने के लिए
तभी शायद कुछ करार आये ,

यकीन मानो ; सदियों सी लम्बी दूरी से भी
उन शब्दों में मै महसूस कर लूंगी
तुम्हारे हथेलियों की वो खुशबू
जो लिखते वक्त ही उनमे रच-बस गयी होगी
या फिर तुम्हारी उस दबी आह का दर्द
जो मेरी याद से तुममे जगा होगा ;
मै जी लूंगी तुम्हारे उस हर पल की
असंयमित बेचैनी और खलिश को भी
जो मेरा नाम लिखते वक्त बेतरतीब लकीरों में
तुम्हारी कंपकंपाती उँगलियों की बेचारगी से उतर आया होगा ,

मै उन शब्दों में
उस बेहिसाब खारेपन को भी महसूस कर लूंगी
जो मेरे नाम के पहले अक्षर के साथ ही
तुम्हारी आँखों में उतर आई नमी का प्रतिरूप होगा ,

तो आओ कुछ यूँ करें
कि इस मौन के ताले को तोड़कर
आज़ाद कर दें
सीने में बेहिसाब घुटते शब्दों को
और उन्हें अहसासों कि स्याही में घोलकर
बिखेर दें अनगिनत ख्वाहिशें तमाम कायनात में ;
और महसूस करें अपने आस-पास शब्दों कि खूबसूरत मौजूदगी
साथ ही  स्निग्ध तरलता की मीठी सी रवानी भी अपनी रगों में ;
आओ आज मौन की तिजारत करें पूरी संजीदगी और शालीनता से
और एक अटूट मित्रता की शुरुआत भी ..शब्दों से तमाम उम्र के लिए
मेरे हमनफज   !!


                अर्चना राज !!













Monday 20 February 2012

प्रेम !!

प्रेम की गंभीरता ही
आदि श्रोत है
प्रेम में दिव्यता का ,

और खुद को साधना
और स्थापित करना ही
स्पष्ट और अमूर्त सत्य ,

इसके मूल में ही
श्रेष्ठता है प्रेम की ;

इसका आभाष होते ही
मै अनायास ही प्रकृति बन गयी
मेरे आदि पुरुष
और तुम शिव ,

यही है शाश्वत सत्य
निर्मल सुन्दर
और
निर्विरोध अखंड प्रेम
सदा के लिए
मेरे प्रिय !!


   अर्चना राज !!





Wednesday 15 February 2012

नदी !

सीने से दर्द की बर्फ
 कुछ यूँ
नजाकत से  पिघली  ;
 रवानी बढ़ती ही गयी 
शाइस्ता अश्कों की
मेरे डूबने तलक ,

न जाने कब इस तरह
 मै औरत से
एक नदी में तब्दील हो गयी
हमनफज मेरे !!


अर्चना राज !!


Tuesday 14 February 2012

अहसासों का बसेरा


लोग कहते हैं कि मेरा घर
अहसासों का बसेरा है ;
वो दरवाजा भी नहीं खटखटा सकते
 क्योंकि मेरे घर के चारों तरफ
मुहब्बतों की क्यारियाँ हैं ;
जिस पर आप ही उग आये हैं
रंग-बिरंगी तितलियों से फूल ;
और न जाने कैसे
यहाँ घुलने लगती है
साँसों में मेहदी की खुशबू भी  ,

बेशक तुम यहाँ मौजूद नहीं हो
पर फिर भी
तुम्हारी नज़रों का कडा पहरा
आगाह कर देता है मुझे
सख्त ज़मीन पर
कदम रखने से पहले ही ;
तुम्हारे आवाज़ की आतिशी विनम्रता
अब भी
मेरे हर शर्म की
चादर बन जाती है
और मै ठहर जाती हूँ
अपनी किसी भी
बेजा चाहत के उभरने  से पहले ही ;
मेरे आँखों में उतरी गहरी उदासी भी
तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श से ही
हमेशा तबस्सुम बन जाया करती है ,

आज भी मेरे घर के बगल की
पहाडी से गिरता वो झरना
तुम्हारे आँखों में उतरी
नमी का सा आभाष देता  हैं ;
उसमे भीगते हुए
भीग जाया करता है मेरा अंतर्मन भी ;
मेरे अहसासों से मेरी रूह तक
कम्पन की इक लहर उठती है
जिसे तुम थाम लिया करते हो
अपने आगोश में हर बार
न जाने कैसे ,

इस अह्सांसों के बसेरे में
जीती हूँ तुम्हे ही हर सांस ;
तुम्ही को ओढती - बिछाती हूँ
तुम्हीं से बातें करते
लड़ते-झगड़ते
दिन कब बीत जाता है
पता ही नहीं चलता मुझे ;
तुम्हीं से रूठती और मान जाती हूँ ,

दरअसल अहसासों की मिटटी से बने इस घर को
तुम्हारे ही प्रेम से रंग दिया है मैंने ;
हमारी चाहतों की जमीन पर ख्वाहिशों के फूल उगा रक्खे हैं मैंने ;
जिनसे हमारे रूहानी इश्क की खुशबू
हवाओं में तैरती रहती है हर वक्त ;
और ये जादू तो केवल
इश्क के बेइन्तहां.. बेचैन
ख्वाहिशों  का ही असर हो सकता है न ;
और यही हो सकता है बस
हमारे इश्क और
हमारे अहसासों का बसेरा
मेरे हमनफज !!

Thursday 9 February 2012

वो पहाड़ !

बंद आँखों के गलियारों से
अब भी गुजर जाता है
बचपन का वो हसीन मंजर
जब बरामदे की जाली से दिखता था
ठीक सामने एक विशाल पहाड़ ;
जिस पर नज़रें बारहा ठहर जाती थीं
उमगने लगता था यूँ ही कुछ सीने में
बेमतलब सा
और जब ठंडी हवाओं के छूकर गुजरने भर से
रूमानियत गुदगुदाया करती थी ,

तब उम्र नहीं थी कि
उस पहाड़ के तल्ख़ दर्द के पाताल में उतर सकूं
और समझ सकूं
कि पहाड़ के जिस्म से उगा
वो लहराती पत्तियों वाला दरख़्त
दरअसल मिटटी के गीले दर्द कि
हरी पैदाइश भर है ,

बस उस दरख्त की
तटस्थ मुस्कुराहट ही नज़र आती
पहाड़ के मौन दर्द का तो
अनुमान भी नहीं होता था ज़हन में ,

उगते सूरज की पहली किरण
पहाड़ पर जब हर तरफ बिखरने लगती
और वो अंगडाइयां लेता हुआ
आहिस्ता-आहिस्ता जगता
तब भी उन उनींदी आँखों से
रात का अलसाया दर्द छलक उठता;

रात भर  उसने दर्द के प्यालों से
जो हमजोलियाँ निभाई थीं
वही अब उसकी आँखों में
 सुर्ख रंगत सा नज़र आता ,

दिन भर की तमाम गतिविधियों के दौरान भी
उसकी वो बेचैन निगाहें टिकी रहतीं
बेहद ग़मगीन सी
मेरे घर के ठीक सामने से गुजरती हुई सड़क पर
जो न जाने कहाँ से आती थी
और न जाने कहाँ तक जाती थी ,

दोपहर की तेज़ धूप में भी
जो बेतरह जलाया करती थी उसे
बेहद पुरसुकून अंदाज़ में ;
वो लगातार निर्निमेष आँखों से
उस चमकती काली सड़क को ही निहारा करता ;
मै देखती उसे यूँ ही चुपचाप
और कभी-कभी  अनजाने ही
उसकी ख़ामोशी मेरे अश्कों में झलक उठती
बे-वजह .. बे - मकसद ,

गोधूली में जब हर कोई
वापस लौटता अपने आशियाने को
तब भी वो पहाड़
चुपचाप टकटकी लगाए रहता
उसी धूल भरी सड़क पर
मानो कोई समाधिस्थ योगी
अपने इष्ट के इंतज़ार में
सदियों से बिना पलक झपकाए बैठा हो ,

ख़ामोशी से उस पहाड़ को देखते हुए
अनगिनत प्रश्न उठा करते मन में
कि ऐसा क्यों है ?
क्यों इस पहाड़ के अंतस में
एक बेचैन लहराता सा
समंदर नज़र आता है ?
क्यों इसकी आँखें
सुर्ख सन्नाटे को जिन्दा रखती हैं ?
क्यों नहीं ये भी बारिश में खुद को
खुल कर भीग जाने देता ?
क्यों नहीं ठंडी हवाओं कि सिहरन
अपने अन्दर महसूस कर पाता ?
या फिर बसंत में भी
इस पर उगा दरख़्त
क्यों इस कदर
सूना ही रहता है
न इस पर रंग बिरंगे फूल आते हैं
न ही पक्छियों का जमावड़ा और उनका शोर गुल
मधुर स्वर लहरी सा सुनाई देता है ?

पर अब जब तुम अचानक
बिना कुछ कहे सुने
मुझे यूँ एक प्रश्नचिन्ह सा
तनहा छोड़ गए हो
तब मै ये समझ पाई हूँ
मेरे हमनफज
कि कैसे सिर्फ एक अहसास
एक पूरी जिन्दगी पर
दर्द के अब्र सा छा जाता है ;
कैसे वो किसी के अस्तित्व के
मायने बदल देता है;
कि कैसे एक दर्द
किसी की खुशियों और उम्मीदों पर
अमरबेल सा पसर जाता है
शेष उम्र भर के लिए ,

अब वो पहाड़ और मै
एक ही दर्द के साझीदार हैं
शायद अनंतकाल तक ...!!


                 अर्चना राज !!













































Monday 6 February 2012

पोर्ट्रेट !

कोरे कैनवास पर
ये कैसा पोर्ट्रेट उकेरा है तुमने ;
मानो  पूरा दर्द ही बिखेर दिया हो
अपनी नाउम्मीदगी और हताशा के संग ,

खूबसूरत तो बेइंतहाँ  है पर
ये कैसी अदृश्य पारदर्शी चादर से ढंकी दिखती है ;
क्या इसे तुमने अपने लहू के
अलग - अलग रंगों से सजाया है;
अनगिनत भावों को
कई तरह की पेंसिल से
रेखाएं दी हैं तुमने;
और क्या तुम्हारा ब्रुश भी
घायल फाख्ता के परों से ही बना है ,

अहसासों को एक बड़े प्रश्नचिन्ह की तरह
तुमने आँखों में उतारा  है
तो चेहरे की बेहिसाब पर छुपी हुई लकीरों में
बड़ी खूबसूरती से
अपने अंतस की वीरानियां भर दी हैं तुमने,

सुर्ख प्यारे होठों पर
ये कितने तहों की
पपड़ियाँ जमाई हैं तुमने
जैसे हर बार आहों का उफान
थमता गया हो
शब्दों में परिवर्तित होने से पहले ही ,
और उसकी तकलीफ
रोती रही है सीने में
जहां तरलता अब भी फूट फूट पड़ती है 
निरंतर
इक गर्म सोते सी,

उसके आँचल में
ये कितने कांटे उगाये हैं तुमने
या फिर अपनी निराश तल्खियों को ही
भूरे  रंग का जामा पहना दिया है
चुभते हुए सवालों की तरह
जिसका जवाब भी तुम्हे  नामालूम सा
हर वक्त तुम्हारे ज़हन में कसकता रहा
सिसकता रहा ,

हथेलियों की जगह
बर्फ का एक टुकड़ा रख दिया है तुमने
लगातार पिघलता हुआ
पर फिर भी जस का तस
वैसे का वैसा ही ;
शायद इसी वजह से तुमने कभी
स्पर्श की तपिश महसूस नहीं की
क्योंकि ये सहमी हुई बर्फ
कभी पूरी तरह पिघल ही नहीं पायी
और तुम्हारा इंतज़ार
बूँद दर बूँद विस्तृत होता चला गया ,

उसके तलवों को
जलती रेत की शक्ल दी है तुमने
जिसकी जलन सदियों तक उसे तपाती रहेगी
तुम्हारी अधूरी ख्वाहिशों की तरह ,

उसके जिस्म को
तुमने इस कदर बेचैन जिद्द से उकेरा है
मनो अब भी तुम्हें
उनमे एक स्निग्ध्ह तरलता का आभाष मिलता हो
या फिर अब भी तुम
उसकी अतृप्त लहर को
सांस दर सांस जी लेना चाहते हो ,

इन सबके लिए रंग तो तुमने
न जाने किन किन स्याह समन्दरों
दर्दीली घाटियों और सूखती पंखुड़ियों से
जबरदस्ती छीन कर इकट्ठा किया है;
तभी तो ये इस कदर
अद्भुत नज़र आता है
तुम्हारी जिन्दगी के मास्टर पीस  जैसा !!


                 अर्चना राज !!

Sunday 5 February 2012

dhoop

धूप...
तुम बिन तरसता है मन ;
मायके में पसरी पड़ी हो
पिया घर आती क्यों नहीं ,

धूप...
तुम बिन तरसता है मन;
वहां आम के पत्तों से
लिपट -चिपटकर
बचकर -छनकर
आ जाती हो ;
पूरे आँगन में
निढाल प्रियतमा सी
छा  जाती हो;
जबरन कमरों में सरक जाती हो ,
खिडकियों को धकेलकर
उनके बीच से होते हुए
मेरे बिस्तर पर छा जाती हो ;
तुम्हारी ही थपकियाँ
सुलाती हैं मुझे ;
तुम ही तो छूकर
जगाती मुझे,

पर धूप ....
पिया घर आती क्यों नहीं;
यहाँतुम बिन तरसता है मन ;
छूने को बेकल
पाने से मजबूर ;
तुम्हें झांकती - ताकती रहती हूँ मै;
बाट जोहती ..... अब आओगी ...
शायद अब तो आ जाओ ...
पर तुम
बगल की छत से गुजर जाती हो
बिना देखे - बिना पलटे
किसी मानिनी की तरह ,
और मै
फिर अगले दिन की राह देखती हूँ ,

क्या तुम मुझसे रूठी हो
या फिर आना नहीं चाहती
मेरे पास - मेरे घर ...
यहाँ न आम के पत्ते हैं
न आँगन
न खिड़की की जाली है
न सोने को वक्त...
क्या इसीलिए तुम नहीं आती हो ,

तो फिर ठीक है .. न आओ
पर मै तुम्हे चाहती रहूंगी
अँधेरे की तरह ..
अपना कर्तव्य पूरा कर
हर रात जिसके आगोश में सिमटने को
तुम बेचैन सी दौड़ी चली जाती हो ,

कभी तो अँधेरा और मै
एकाकार होंगे ;
और तुम मेरे आगोश में
सोने आओगी
तब सारी  अभिलाषाएं पूरी होंगी ,
पर धूप
अभी तो तुम बिन तरसता है मन ...!!!


           अर्चना राज !!

Wednesday 1 February 2012

क्यों आये तुम ?

क्यों आये तुम ?
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मेरी नाउम्मीद चाहतों में
हौसलों की उडान भरने ;
बेचैन हसरतों में
मुस्कान की रागिनी फ़ैलाने ;
क्यों आये तुम .....?

मैंने तो मान लिया था
कि अब यूँ ही जिन्दगी मेरी
उबलते पानी की शक्ल में पलेगी
और आहिस्ता - आहिस्ता भाप में बदलकर
इक रोज ख़ामोशी से गुम हो जायेगी ;
बिना किसी शोर के
बिना किसी को जताए ,

मैंने तो ये भी सोचा था
की हर बदलते मौसम के साथ
मै कुछ और बिखराव
कुछ और दर्द
अपने अहसासों की गठरी में
तब तक समेटती रहूंगी
जब तक मेरे अरमानो में
थोड़ी भी साँसें बाकी हैं ,

हर तन्हाई में
जब - जब कोई अहसास जागा
और एक साथ
न जाने कितने तितलियों की सिहरन
मैंने महसूस की
पूरी सख्ती से उन सबको मै
कांच की एक बड़ी सी बोतल में
बंद करती गयी ;
बोतलों पर बोतलें भारती गयीं
और मेरा अक्स हर बार
कुछ और बदरंग होता गया ,

अब तो आईने ने भी
मेरे चेहरे की लकीरों का
हिसाब रखना शुरू कर दिया है
और क्रूर ख़ामोशी ने
मेरे कभी-कभार
बेसाख्ता उभरते अहसासों पर
सख्त पहरा लगा रक्खा है ,

ऐसे में क्यों आये तुम
क्यों एक खामोश झील में
तमाम कंकड़ यूँ ही उछाल दिए तुमने
मुस्कुराते हुए ;
क्या  एक बार फिर से
उसी पुराने रास्ते से गुजरने की
अज़ीम ख्वाहिश लेकर
या फिर इस बार
अपने कदमो के निशानों को
तमाम उम्र के लिए
उस झील में
दर्द का सैलाब उठाने के लिए ,
ये तो लाजिमी नहीं था न हम्न्फ्ज़ मेरे
फिर क्यों आये तुम .......??



  अर्चना राज !!