Saturday 31 March 2012

ये किसका नाम

हवाओं की सतह पर
संदल की कलम  से लिखा
ये किसका नाम है
बिखर रहा है जो आहिस्ता-आहिस्ता
तमाम कायनात में खुशबू की तरह ,

इस अदृश्य नाम का पुख्ता अहसास
जो भर देता है हम सबको
एक अज़ीम पुरसुकून बेचैन धडकनों से ,

समंदर की लहरों में भी जो
अपना निशान छोड़ जाता है
और जिसे खुद में जज्ब कर लेने की खातिर
लहरें लगातार किनारे से टकराती रहती हैं ,

ओस की चादर के फैलने से पहले ही
मानो धरती को उसकी नमी की आहट मिल जाती है
और उसका पोर-पोर अनायास ही
एक अदृश्य बेचैनी में तब्दील हो जाता है
उसके दामन में खुद को छुपा लेने की खातिर ,

ये किसका नाम है जो
तितलियों के पंखों में
सतरंगी लकीरों से लिखा नज़र आता है
और जिसकी छुअन से ही
वो घबराई हुई सी
भागी-भागी फिरती है ,


किसका नाम है ये
जो पक्षियों को भी
 इस कदर विचलित करने लगा है
की वो अँधेरी रातों में भी
इसकी खोज में भटकते रहते हैं
पर जो कभी नहीं मिलता ,

किसका है ये नाम
और किसने लिखा है
क्या कोई जान पाया है अब तक
या समझ भी पाया है
की आँखें मूंदते ही वो जो इक अक्स
नज़र आता है हम सबको
उसी की गहरी खामोश आँखों में
कहीं हमारे ही नामो के शब्द तो नहीं पल रहे
न जाने कब से
और अब एक स्तब्ध कर देने वाले यकीन के साथ
ये अहसास हममे ठहर सा जाता है
की क्यों हवाओं संग संदल की खुशबू
हममे घुलती रहती है
अपनी पुरसुकून बेचैनी का पिटारा खोले !!


            अर्चना "राज "


























Monday 26 March 2012

tumhen yaad hai ??

tumhen yaad hai ??

तुम्हे याद है ..मेरे हम्न्फ्ज़ !!
जब हम तुम दोनों बैठे थे यूँ ही
नदी किनारे ... ख़ामोशी से,

तुमने अपनी मुस्कुराती आँखों से देखा था मुझे;
और तुम्हारी उन आँखों में
न जाने कितने जंगल ; पहाड़ ; पक्छी और दरिया
कुछ कहते से लगे थे मुझे .. अर्थ पूर्ण
और मानो सारी सृष्टि ही विहंस पड़ी थी,

अचानक ही न जाने क्या सूझा तुम्हे
की तुमने गीली मिटटी से अपना नाम
मेरी हथेलियों पे लिख दिया
और मेरी मौन हथेलियाँ
बरबस ही स्पंदित हो उठी थीं,

डूबते सूरज की लालिमा ने भी
पूरी सौजन्यता से .. मेरी हथेलियों को
एक अद्भुत आभा से भर दिया था,

तुम्हे याद है
जब विदा के वक्त .. तुमने आहिस्ता से
मेरी हथेलियों पर लिखे खुद के नाम पर
कंपकंपाती उंगलिया फेरी थीं
और तुम्हारी उद्दाम सी चाह
उनमे तरंगित हो उठी थी;
हम दोनों की नम आँखों में भी ,

रात भर मेरी हथेलियाँ
तुम्हारे नाम की मौजूदगी के अहसास से
यूँ धडकती रहीं मानो वहां तुम खुद हो;
और रात भर संभालती रही मै
तुम्हारे हाथों की छुअन को
अपनी धडकनों में,

सुबह तक तुम्हारे नाम की तपिश ने
जज़्ब कर लिया था
मेरे हाथों की लकीरों में पसरी नमी को ;
और तभी कुछ यूँ लगा की
जैसे गीली मिटटी इक रात की उम्र पार कर
तब्दील हो गई है
सुर्ख मेहंदी की रंगत में ;
और उसकी मोहक सी  खुशबू बिखर रही है
तमाम कायनात में ...आहिस्ता - आहिस्ता ,

तुम्हे याद है ;
की फिर जब तुम मिले
तो किस कदर हुलसते हुए
कही थी मैंने तुमसे ये सारी बातें;
पर न जाने क्यों ..अचानक ही
एक सर्द छाया सी गुजर गयी थी ..तुम्हारे चेहरे से ;
और तुम्हारी आँखें सियाही की रंगत में बदल गयी थीं,

तुम्हारे चेहरे पर ;तुम्हारे स्पर्श में
एक साथ कितने ही
प्रश्न उग आये थे ;
कुछ कहा नहीं तुमने
बस एक बार पनीली आँखों से देखा मुझे
और चुपचाप उठकर चले गए थे;
मै भ्रमित सी बस देखती ही रह गयी थी,

तुमने तो उस वक्त ही
हमारे बीच बिखरने वालेदर्द का
एक अनचीन्हा सा आभास दे दिया था मुझे ;
पर जिसका अवश्यम्भावी होना
मैंने आज तक स्वीकार नहीं किया है,

आज तक वो दर्द
राहत का एक किनारा
पाने के इंतज़ार में सिसक रहा है;
और तुम्हारे भीतर उग आये
अनेकों प्रश्नों की वजह जानने की जिज्ञासा
एक निःशब्द चीख की तरह
मेरे चारों और गूँज रही है,

काश ! तुमने मुझे अपना ;
और अपने प्रश्नों का साझीदार बनाया होता
तो शायद
कोई दर्द ; कोई प्रश्न ; या फिर कोई काश !
इस कदर हमारे बीच
नागफनी सा ;खडा नहीं होता,

पर तुमने ऐसा नहीं किया
न जाने क्यों  ?

और अब ये क्यों और तुम्हारा इंतज़ार
मेरी आदतों में शुमार है,

अब तो मेरा वजूद भी
गीली मिटटी से लिखे
तुम्हारे नाम सा हो गया है;
पर इस बार मेहँदी की रंगत ने
उसे एक सीली सी उम्मीद के बोझ से ढक दिया है;
और जिसकी खुशबू तीखी चुभन के साथ
मेरे आस पास तिरती रहती है हर वक्त,

ये सब क्या तुम्हे याद है
या फिर पता भी है   ??
मेरे हम्न्फ्ज़     !!!!!



                               अर्चना "राज "

ishq !

दूर दूर  तक फैले
बर्फ के विस्तृत सीने में इश्क
जब इक ज़ख्म सा उभरा ;

दर्द बेकाबू हुआ
कुछ इस कदर
की बस इक आवाज़ आई
ख्वाबों के चटकने की;

और सर्द अश्कों की रवानी ने
खुद को तब्दील कर लिया
इक बेचैन समंदर में
मेरे हम्न्फ्ज़ .....!!!


अर्चना "राज "

vo mitra !!

vo mitra !!

गुजर चुके कितने ही वर्षों में
मेरी तन्हाई का वो इक अभिन्न मित्र ;
जिसका अक्स हर पल नज़र तो आता था
पर जिसे पहचान नहीं पाती थी मै;
मिल गया मुझे अचानक ही चलते-चलते
जिन्दगी की भीड़ भरी राह घाट में ,

थाम  लिया था
जिसने मेरा हाथ बड़ी ख़ामोशी से
बिना कुछ कहे .. बिना कुछ सुने ;
 साथ ही मेरे बेतरतीब बिखरे अहसासों ;
मेरी तकलीफों और उलझनों को भी;
और कर दिया था मुझे  मुक्त एवम भारहीन;
उस श्वेत पंख की तरह
जो कभी कभी यूँ ही उड़ते हुए
अचानक चेहरे से टकरा जाया करते हैं ,

खुद को चांदनी की तरह
सारी कायनात में
पसरा हुआ महसूस कर रही थी मै;
मासूम दुधमुहें बच्चे की
मुस्कुराहटों सी हो गयी थी मै ;
जी रही थी हर सांस
उसकी  सुरक्षित करने वाली
नर्म मुस्कुराहटों  के साए में ,

पर अचानक ही  कहीं गुम हो गया वो;
उसका होना तो महसूस होता है
पर वो कहीं नज़र नहीं आता मुझे ;
मेरा स्वक्छंद मुस्कुराना
हवा की तरह मेरे अरमानो का भी
पंख लगाकर उड़ना
क्या समझ नहीं पाया वो
या फिर स्वीकार नहीं कर पाया ,

अब तो अहसासों की इस सातवीं परत को भी
मैंने अपनी पीड़ा की पर्ची के साथ
अपनी तकलीफों के बक्से में बंद करके
अपने मन की चौखट में छुपा दिया है ;
और उसके ताले की चाभी
अदृश्य तौर पर आहिस्ता से
उसके ही हाथो में थमा दी है मैंने;
ठीक उसी तरह
जिस तरह ख़ामोशी से उसने
मेरे हाथों को थामा था ,

न जाने वो कभी भी अपनी हथेलियों में
उस चाभी का होना महसूस कर पायेगा या नहीं ;
पर मै प्रतीक्छा करूंगी तब तक
जब तक वो पूरे दिल से मुस्कुराकर
उस ताले को नहीं खोलता;
और मेरे अहसासों .. मेरे अरमानो को
एक खुला आसमान देने का हौसला नहीं रखता
जहां मै उसके साथ मुक्ति को अपने चरम पर जी सकूं ..!!


                                archanaa raj !!

dard

सुलगते दर्द का सुर्ख अँधेरा
जला करता है
शब् भर मुझमे
कुछ इस कदर ;

कि बदल जाती हूँ मै
दरिया-ए- शबनम में
और बिखर जाती हूँ
सारी कायनात में
नाकाम तबस्सुम जैसी ....!!!


शबनम - ओस
कायनात -जहाँ
तबस्सुम - हंसी


                 अर्चना "राज "

चाहत

तेरी चाहत का आइना पिघलकर
जब मेरी रगों में
गर्म तबस्सुम सा बिखरने लगता है ;

नज़र आने लगती हूँ मै भी लोगों को
सुर्ख कांच की
इक बेजान मूरत जैसी;

साँसें तो चलती हैं
पर दिल धडकता नहीं है मेरा ;

जैसे बेचैन से समंदर में
इक मोती .. सदियों तक
ठहरे हुए अश्क सा पलता है ..!!!


                     अर्चना "राज "

बेड़ियाँ

 ठहरो ज़रा
सवालों का सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है 
करो इंतज़ार जवाबों के आने का  ज़रा कुछ और अभी ,

 सवालों को
अभी कुछ और पकने दो
जलने दो
कुछ और सुलगने दो वक्त की भट्ठी में ,

जवाबों की दहलीज़ अभी बहुत दूर है
टिकी है जो हालातों के काँधे पर सर टिकाये ,

संस्कारों औए परम्पराओं की कड़ियाँ
एक-एक कर बांधती रही हैं
अब तक सोच और शब्दों की आज़ादी को
और सिमटते रहे हैं तमाम क्यों
डायरी के पन्नो तक ही
उस दिन का इंतज़ार करते हुए
जिस दिन ये क्यों
वक्त की भट्ठी से निकलकर
या फिर कसी बेड़ियों के धीरे - धीरे बिखरने की उम्मीद में
जवाबों की दहलीज़ के नज़दीक पहुँच जाएँगे  ,

जहां सवाल सिर्फ सवाल होंगे
संदेह के शीशे से बना चश्मा नहीं
और जवाब भी सिर्फ जवाब होगा
शायद की सतह पर बिखरी रेत नहीं 
 जो भी होगा  मुकम्मल होगा  ..आधा- अधूरा नहीं ,

ये सवाल दर सवाल उलझती जिन्दगी 
जवाबों की दहलीज़ कभी न कभी तो पार करेगी ही 
जहां खिली धूप सा यकीन बाहें पसारे खडा होगा 
और जो सभी जनमते सवालों पर आश्वस्ती के 
मुस्कानों को चस्पां कर देगा ,


जिन्दगी फिर किसी सवालों के दायरे में बंधी नहीं होगी
बल्कि उन्मुक्त उड़ान के लिए तमाम आसमान भी 
जहां बाहें पसारे इंतज़ार में ठहरा होगा ...!!








                  अर्चना "राज "


















 







 










Sunday 25 March 2012

jindegi

jindegi


जिंदगी के कदम
     थमकर चलते हुए भी
आज हमारे साथ हैं ,

वो लम्हा भी साथ है
  जब हम एकाकी होते थे .....

हाथ पकडे पर खुद में खोये हुए

 मीलों चलने तक तलाशते
     इस जीवन का सच .....

और अंत में
       बेचारगी से हंस देते ,

प्रश्नों के उत्तर से कतराती
  मौन आँखें ,

शर्मिंदा न होने देने की कोशिश
   कितना बेचारा कर जाती ,

इनसे बचने के लिए हम
     एक बार फिर
जिन्दगी की रंगीनियाँ पाने
    दौड़ पड़ते ........

इन्हीं थमकर चलते कदमो से            !!!

           अर्चना" राज "

yaaden

yaaden

मुट्ठी भर धुप 
      अंतस में उजाला कर गयी ;

दिल को
        अहसासों से  भर गयी ;

तुम्हारी याद आई .............
बहुत ...........................बहुत .........................

गीली आँखों में जो
       दर्द की तरह समां गयी........

     तुम्हारी आँखें
खामोश ....ताका  करती  थी ;

      तुम्हारी आँखें
कितनी ही बातें किया करती थीं;

सोचते ..........गुनते .............सहेजते
कब शाम हुई...............
----------------------
रात भी ढल गयी ...
-----------------------
और जो देखा तो..........

चांदनी सिमटी पड़ी थी

आकाश की बाहों में ...........................
..................
एक दर्द ........
................
अब अन्तेर्मन में........
.................

तैर गया .............बिखर गया............

मै हंस दी ...............

उन्ही गीली आँखों से ...................!!!!!!!!!!!!


                             अर्चना "राज "

Monday 19 March 2012

सप्तपर्णी

सप्तपर्णी के सातों पत्ते
तुम्हारे अदृश्य नाम की तपिश से भी
सुलगने से लगे हैं ,
फिरती रहती है हर वक्त
मेरे आस-पास
उन पत्तों की चिकनी चमकीली
पर सहमी सूरत ,

उसकी छाँव में बैठे हुए 
मैंने ही तो लिखा था
 हर एक पत्ते पर तुम्हारा नाम
अनायास ही
बस अपनी उँगलियों के हलके दबाव से ,

सहलाए जाने की नमी ने ही बस उसको संभाल रक्खा है
वरना तो वो कब का झुलस गया होता ,

तुम्हारे नाम की तपिश को झेलना भी क्या आसान होता है
सम्पूर्ण ताकत भी चुकने लगती है
तुम्हारे नाम के  अहसास को  जीते रहने में ,

अक्षरों की रेखाएं तो
लिखते वक्त ही सुलग उठी थीं
पर बेहद मीठे अहसास भी जन्मे थे
बिखर गए थे जो मेरे अंतर्मन तक
और मै सराबोर हो गयी थी उसकी  नारंगी तपिश में ,

अधमुंदी पलकों से देखा मैंने
उन पत्तियों को कंपकंपाते हुए
और थाम लिया फिर इसके सहमेपन को
अपनी हथेलियों में भींचकर ,

तुम्हारे नाम की वो तप्त रवानगी
अब  मुझमे बिखरने लगी है
बेपनाह दर्द में डूबी मेरी आहें भी जिसे
अब लौटा नहीं सकतीं  ,
क्योंकि अब वो
मेरी हर संभव कोशिश के दायरे से बाहर है ,

तुम्हारा नाम
जो अब तक
सप्तपर्णी के चिकने चमकीले पत्तों की सतहपर ही
 दहकता रहा था 
उसकी आंच अब मेरे अहसासों में भी सुलगने लगी है 
हमनफज मेरे ....!!



                     अर्चना "राज "








































 

Thursday 15 March 2012

इंतज़ार ....!!

कहाँ हो तुम....
खोजती रहती हैं मेरी आँखे
तुम्हारी परछाइयों के सिरे तक को भी
अनंत में आँखें गडाए----पर तुम नज़र नहीं आते ,

बाट जोहती रहती हूँ मै---पल के सौवें हिस्से में भी
तुम्हारे आने की; टकटकी लगाए
सडक के उस आखिरी किनारे तक ,

गतिहीन सी हो जाती हैं साँसें
जब अनायास ही सिसक उठता है दर्द मेरा;
अब तो पथरीली ज़मीन पर भी
मेरे कदमो के निशान गहराने लगे हैं ,

हवाओं संग कितने ही संदेशे भेजे तुमको
और जुगनुओं संग ज़ख्मो का दस्तावेज़ भी
जिससे अँधेरे के हवाले का बहाना भी शेष न रहे ;

सख्त इम्तहान से गुजरा है इंतज़ार मेरा
और खुश्क आँखें  ख़ामोशी से बस बिलखती रही हैं ,

एक रोज हवाओं ने कुछ मोतियों को
हिफाजत से मेरे दुप्पट्टे में समेट दिया ;
मै सारी रात उन्हें महसूसती रही
कि कहीं ये मेरे वही तमाम अश्क तो नहीं
जो तुम्हारे सर्द अहसासों में अब तक पलते रहे थे;
या फिर मेरी चाहतों को ही तुमने
अपनी विरक्ति का सफ़ेद जामा पहना कर
लौटा दिया है वापिस मुझको ,

एक दिन मेरे ज़ख्मो के दस्तावेज़ भी
बैरंग वापस लौट आये ..अनछुए से;
जुगनुओं कि रौशनी भी तुम्हारी उपेक्षा से मृतप्राय सी थीं;
 मै स्तब्ध रह गयी फिर भी स्वीकार लिया इन सबको
आहत भाव के साथ
क्योंकि इनमे अब भी तुम्हारे नज़र की तासीर बाकी है
बेशक वो उपेक्षा से ही क्यों न जन्मी हो ,

समेट लिया है इन सबको तुम्हारी ही अमानत समझकर
पर न जाने क्यों अब भी टिकी रहती हैं
मेरी धडकती नज़रें
सडक के उस आखिरी किनारे पर...!!




                   अर्चना "राज "

































































Wednesday 7 March 2012

मत घेरो मुझे
बहने दो सारी फिजां में
जीवन फैलाने दो
हवा हूँ मै, 

मत रोको मुझे
धडकने तो खुद में
 प्यार बनकर
एक अहसास हूँ मै ,

मत बांधो मुझे
किलकने दो ..बहकने दो
निर्मलता जगाने दो
नदी हूँ मै ,

मत कैद करो मुझे
स्वक्छंद उड़ने दो
विचरने दो
विस्तृत नीले आकाश में 
उम्मीदों की उड़न बनकर
श्वेत पक्षी हूँ मै ,

मत समेटो मुझे
फैलने दो
थिरकने दो लबों पर
ख़ुशी का .
उमंगों का प्रतिरूप बनकर
हंसी हूँ मै ,

मत भागो मुझसे
पलने दो खुद के जहन में
सवाल बनकर
उत्सुकता बनकर
जागृत चेतना हूँ मै ,

मत पोंछो मुझे
बसने दो हर आँखों में
सपना बनकर .. कविता बनकर
उमंगों को  सजाने दो
एक औरत हूँ मै
रचयिता हूँ मै !!


        अर्चना "राज "