Wednesday 17 October 2012

नशा

नशा है मूर्तियाँ गढ़ना भी
जुनून ...जिद्द ...पागलपन
बिना रक्त मांस के एक इंसानी जिस्म
बिना रीढ़ के सीधी खड़ी परिकल्पना
छेनी से उकेरी आँखों मे प्रेम की तलाश
एक निहायत बेमानी कोशिश ,

अनगढ़,अपरिचित ,अपरिपक्व शब्द गूंज उठते हैं
मूर्तियों मे जान है
बावजूद इसके की सांस नहीं है ,

ये खुद को खुदा मानने की पहल है
या फिर खुदा को आईना दिखने की हिकमत
नशा हद से गुजर जाये तो गुनाह हो जाता है
बेशक वो इबादत का ही क्यों न हो !!

            अर्चना राज

अंतर्वेदना

सदियों की सर्द रात तल्खियों सी
अब हड्डियों मे उतरने लगी है
ऐसे ही कुछ गजलें भी
बीते दिनों की उदास  चित्रकारी सी हो गयी हैं ,

स्याह तनहाई जब भी रगों मे
पैठने लगती है कहीं गहरे बहुत
न जाने कहाँ से इक सूरज जनमता है मुझमे
 और लहू मे बिखर जाता है ,

कतरा-कतरा जिस वक्त
तुम्हारे नाम की लकीरों सा होकर जल रहा होता है 
ठीक उसी वक्त न जाने कहाँ से
एक दरिया भी मेरे  जिस्म  मे बर्फ सा उतर  आता है ,

इक हस्सास तस्वीर
अक्सर बूंदों सी गिरती है मेरे माथे पर 
हौले से फिर जख्म उभरता है माजूरी का
और दर्द ग्लेशियर मे तब्दील हो जाता है
हमनफ़ज मेरे !!



               अर्चना राज

Monday 8 October 2012

हौसला

चलो सूरज के कुछ गोले बनाएँ
रख दें उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां सपने अंधेरे मे खड़े हैं मुंह बिसूरे
जहां खुशियाँ फकत इक नाम भर हैं ,

कोई टोली जो गुजरी थी कभी जब जुगनुओं की
तो माँ ने यूं कहा था कसमसाकर
कि बेटा देख ये ही रौशनी है;
यही उम्मीद है ,जरिया है ,हासिल है हमे जो
बढ़ाती हौसला कि वो (खुदा ) नहीं गाफिल है हमसे
बड़ी बेबस सी थी मुस्कान तब उन आसुओं की
जगा था हौसला तब ही मेरी भी कश्मकश मे ,

भले ही हाथ मेरे जल ही जाएँ
बेतरह ये गल ही जाएँ पिघल ही जाएँ
नज़र आए भले ही ठूंठ फिर भी ,

बनाऊँगी मै सूरज को ही जरिया रौशनी का
रख दूँगी उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां इस रौशनी मे वो हँसेंगे -मुस्कुराएंगे
गले मिलकर हजारों खिलखिलाएंगे
पूरे करेंगे पल रहे सपने
जिएंगे वो भी फिर इंसान जैसे
मुकम्मल होंगे जब अरमान उनके ,

होना भी तभी सूरज का यूं साकार होगा
खुशियों मे भी जब उसका कहीं आभार होगा ,

चलो सूरज के कुछ गोले बनाएँ
रख दें उन्हें चुपके से फिर उस स्याह आँगन मे
जहां पगडंडियाँ मंजिल की  स्याही मे खड़ी थीं
जहां अब रौशनी मुस्कान कि हर ओर होगी !!


            अर्चना राज








Thursday 4 October 2012

अनकहा

मौन के धरातल पर विचरते कुछ शब्द
अपनी समस्त भावनात्मक तीव्रता के साथ भी 
अनकहे ही रह जाते हैं ,

आवाज़ की तमाम कोशिशें यहाँ नाकाम नज़र आती हैं 
धूप भी थककर जब बड़ी मायूसी से 
रात की ओट मे अपनी आँखें बंद कर लेती है 
और जब इंतज़ार टूटकर जिस्म के हर गोशे मे 
पारे सा बिखर जाता है ,

इक अधूरी नज़्म का  पन्ना आंधियों  मे बेआवाज फड़फड़ाता है 
और आंसुओं की इक लकीर अनायास ही 
समंदर को चीरती चली जाती है 
अपने जख्म को मोतियों के अंजाम तक पहुंचाने के लिए 
एक पूरी उम्र की कीमत पर भी ,

मानो इंतज़ार अब भी सीपों मे पलता है आजमाइश की इंतहाँ तक 
और शब्दों को आवाज़ के लिए अब भी एक सदी की दरकार है !!



                      अर्चना राज