Monday 17 December 2012

हसरतें

सुनो
मुझ पर उँगलियाँ उठाने से पहले ,

अपनी शराफत मे कुछ रौशनी घोलो और नमी भी
फिर अपने हिस्से की शाइस्तगी  तुम रखो
मेरे हिस्से की सियाही मै रखती हूँ ,

जिस्म धागों मे बंधा कोई धर्मग्रंथ नहीं होता
प्रकृति को  जीना कोई त्रासदी नहीं होती
और हसरतें एक उम्र के बाद भी हसरतें ही होती हैं ,

रगों मे उगी धूप किसी साये की तलाश मे है
जिस तरह समंदर को थामना कभी मुमकिन नहीं होता
वैसे ही जिस्म छीली हुई ख़्वाहिशों की कब्रगाह नहीं होती ,

तकलीफ अब लहू मे सुलगने सी लगी है
हमनफ़ज मेरे !!!


             अर्चना राज 

Wednesday 5 December 2012

रुदन

कुछ वक्त पहलू मे गुजारकर जो हर रोज तुम यूं ही चले जाते थे छोडकर मुझे
बिना कुछ पूछे ,बिना कुछ कहे
सोचा है कभी किस कदर सुलग उठती थी मै और क्यों ,

पर हर बार जब चूल्हे की आग से तप आए मेरे चेहरे को अपनी नज़रों से छूते थे
तो क्या समझ पाते थे की उतनी ही खामोशी से पिघल भी जाती थी मै ,

वर्षों बाद तुम्हारा कुछ मौन और कुछ स्पंदन मेरे आँचल के कोरों मे सुरक्षित है
क्योंकि तुम अब मेरी सीमाओं से परे हो ,

अब शामें दहलीज़ तक आकर सहम उठती हैं
दोपहर के बाद अचानक गाढ़ी रात ही मेरे कमरे मे पसर जाती है
मेरे कपड़ों और पावों मे भी
न जाने कैसे ,

तमाम रात सभी दीवारें बोझ से दुहरी होकर मेरे कांधे पे टिक जाती हैं
और कोई कहीं दूर बैठा बांसुरी बजा रहा होता है
रुदन से भरपूर ,

नसों मे अब छाले उभर आए हैं !!!


     अर्चना राज 

Monday 3 December 2012

जाफरानी

जाफरानी इश्क है मेरा - तुम्हारा
यूं तो तन्हा बर्क है बेकैफ है
घुल अगर जाये तो हो अमृत सरीखा ,

दूर तक फैली चिनारों की कतारें
पूरे डल मे जैसे फैली हों बहारें
हर तरफ बस इश्क ही बिखरा हुआ है
है कुरान-ए-पाक और है इश्क गीता
इन हवाओं मे इबादत गूँजती है
हर नज़र लगती है जैसे सूफियाना ,

ख्वाब खुशबू से यहाँ बिखरे पड़े हैं
है सतह रेशम के इक कालीन जैसी
ज़र्रे-ज़र्रे पे मेरी सांसें हैं बेकल
थामने हर चाप जो गूँजेगी तुझसे ,

हैं बड़ी मासूम सी पाबन्दियाँ भी
चिलमने तहज़ीब सी हैं
दायरा दहलीज़ है
बेसबब कमबख्त ये सरहद हमारी
पार जिसके है चमन मेरा तुम्हारा ,

शाम कहवे सी कसैली हो भले ही
रात तो बस खीर सी मीठी ही होगी
 चाँद के झूले मे जब शबनम गिरेगी
हर लबों पे खिल उठेगा फिर तबस्सुम

इसलिए ही जाफरानी इश्क है ये
और रवायत भी यहाँ सदियों पुरानी !!


बर्क ----बिजली

बेकैफ ---- बेमज़ा




 अर्चना राज












Sunday 2 December 2012

काश

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद
यूं रोज़-रोज़ लावे सा मेरा अंजाम न होता ;
कैद कर लेती उस वक्त को मुट्ठी मे किसी सोते सा
जिस वक्त मे धुंध भी तुम्हारी साँसों सी महसूस होती थी ,
रोप लेती उन धडकनों को छुई-मुई के पौधों सा खुद मे
जब दिन का कोई लम्हा अचानक ही बेहद सुर्ख हो आता था
और हरारत बोझिल सी पलकों पे बिखर जाती थी ,

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद
यूं न होता की हर शाम किसी शाख से टूटा कोई पत्ता होती
या हर रात मई सी जला करती मुझमे ,

पढ़ पाती तुम्हारा जहन तो यूं करती कि
सारी कायनात मे कोई दरवाजा कभी बाहर को न खुलता ;
तेरे हर कदम पर मेरा अहसास हिमालय होता
तेरी हर सांस कि दहलीज़ मेरी सांसें होतीं ;
हर सुबह मेरी मुस्कान
हर शाम मेरी ख़्वाहिश होती ,

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद यूं न होता
कि मेरी उम्र हर रोज़ किसी मौत के आगोश मे पलती !!


               अर्चना राज