Saturday 18 May 2013

षड्यंत्र

कहीं कोई षड्यंत्र पल रहा है
हवाओं मे
समय के खिलाफ ,

नाउम्मीदी यहाँ घात लगाए बैठी है
दर्द मौकापरस्ती को ,

हर हाथ मे खंजर है
हर नज़र मे लावा
दिल तो यूं भी जला बैठा है ,

गुटबाजी पुरजोर है
असंतुष्टों -अतृप्तों की
आजमाइश भी ---- इंतेहा तक
रफ्तार धीमी है पर ,

कसौटी पर कसे जाने को
हर दांव नियोजित है -----
हर वार भी दृढ़ और सुनिश्चित
फिर भी व्यर्थ ...... न जाने कैसे ,

परंतु समय ------- सावधान
परीक्षाओं का दौर अब भी जारी है अनंतकाल तक के लिए !!

प्रेम शिशु

अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को
बूंद-बूंद प्रेम बरसता है -----रगों मे जज़्ब हो जाने के लिए
लहू स्पंदित होता है
धमनियाँ तड़कने लगती हैं
कि तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से
और पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ
समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए ,

बिजलियाँ खुद मे महसूस होती हैं
तुरंत बाद एक ठहराव भी .... हल्के चक्कर के साथ ,

स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं
लकीरों मे जुगनू उग आते हैं
और नदी नगमे मे बदल जाती है
ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद खामोशी से
एक प्रेम शिशु का खुद मे ,

तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं
और महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना ,

अब और किसी की दरकार नहीं ,
कि बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना
अकेले ही ---------- !!!

प्रेम की तासीर

और तुम लौट आए ,

बेशक मेरे पास तो नहीं ही
कि वक्त का जंगल कभी रास्ता नहीं देता
पगडंडियाँ जरूर होती हैं पर बहुत अव्यवस्थित सी ही
उन पर चलकर वापस मुझ तक ही आना तो नामुमकिन था ,

तुम्हारी आहटों से मैंने तुम्हें पहचान लिया
सांसें सहम गईं थीं
मुझे ये बताने मे कोई गुरेज नहीं कि तुमने मुझे नहीं पहचाना
तुम्हें अपनी स्मृतियों मे तलाश की जरूरत पड़ी
(कहीं कुछ टूट गया मुझमे ),

कुछ मुट्ठी भर नमी जो मुझमे लहर सी जिंदा थी
वो सूख गयी
ताप भी तो इतना कडा था
कि आजमाइश ने आज दम तोड़ दिया ,

मै मुसकुराती रही जख्म को कसकर भींचे
कि कहीं सुर्खियां टपक न पड़ें -----
कैक्टस हरियाने लगा आहिस्ता-आहिस्ता सीने मे ,

अनायास ही बर्फ की चट्टान ने पिघलना शुरू किया पूरी तीव्रता से
और अब हमारे बीच एक उबलती नदी मौजूद थी ,

तुमने देखा और सहम उठे
मैंने देखा और रो दी ,

प्रेम के एहसास जग चुके थे
तासीर अलग थी बस !!!

माँ

माँ बनना और माँ बने रहना दो अलग बातें हैं
सम्मान का बहुत शोर होता है इस शब्द के लिए
बेशक भाव के लिए भी ,

क्या ये जायज़ है ?

पूछिए किसी नाजायज़ (तथाकथित) बच्चे से
क्या उसकी भी माँ उतनी ही महान है जितनी मेरी या आपकी --
वो बच्चा भी क्या ऐसे ही पूजता होगा माँ को जिसे छोड़ दिया गया किसी डस्टबिन में
या किसी पार्क में या फिर असंख्य मंदिरों की सीढ़ियों पर
कभी भिखारियों ----कभी कुत्तों और कभी अनाथालयों की दया पर ,

माँ हमेशा ही महान नहीं होती
क्योंकि वो सर्वसुलभ नहीं होती
उसके लिए भी कुछ कायदे ,दायरे और बेड़ियाँ पूर्वनिश्चित हैं
पहले उनका आंकलन और समीक्षा हो फिर गुणगान किया जाए ,

मजबूरी की शक्ल में माँ को मुक्त नहीं किया जाना चाहिए
( हाँ औरत ही बने रहने पर ये बात अलहदा है )

फिर भी आज एक सलाम उन बच्चों के नाम
जो बिना माँ के ही महान बन पाए
और कुछ संवेदना उन माओं के लिए
जो इन बच्चों के महान होने पर माँ कहला पायीं
पर सबसे बड़ा सम्मान उन माओं के लिए
जो बिना गर्भ के ही उम्र भर अपने अंश को सहेजती ,संभालती रहीं
माँ कहलाती रहीं ----पूरे सम्मान और पूरे हक़ के साथ !!


अर्चना राज़

कविता की बेचारगी

कविता की नसों में आक्रोश है अब --तकलीफ और दर्द भी
कि खुद को गुनगुनाती नहीं वो अब ,
बस जूझती -झगडती रहती है रात-दिन
निपटारा फिर भी नहीं होता ,

बड़ी मनहूसियत के साथ अमलतास उतर आया है उसकी गोद में
शाम के सुरमई आँचल से पीछा छुड़ाकर
जहां हर मुस्कान उसमे किसी अपने को तलाश रही होती है
किसी अपने को समेट रही होती है
कि जिसके न मिलने पर अमलतासों का रौंदा जाना तय है ,

अमलतास का पीलापन कविता की धडकनों में बिखर रहा है
उग रहा है एक जंगल अंतस में बहुत धीरे-धीरे
पर अपना अंतहीन विस्तार लिए ----पूरी तन्मयता से
कविता भी अब गुलाबी न रहकर क्रमशः पीली पड गयी है ,

सामने खडा गुलमोहर टकटकी लगाए देखता है ----महसूसता है
और सिर झुका लेता है मायूसी से
अमलतास का दर्द और कविता की बेचारगी दोनों ही अब उसमे संप्रेषित हो चुके हैं
अनजाने ----अनचाहे पर अनिवार्यता कि शक्ल में ,

खूबसूरत अहसास गुनगुनी खुशियों के बिना मरणासन्न से नज़र आते हैं
अस्तित्वहीनता की परिधि में घिरे हुए भी !!

अर्चना राज़