Monday 1 December 2014

पुनरावृत्ति

ये कौन है ?

घर की साफ़-सफाई के लिए जब नौकरानी आई तो उसके साथ एक छोटी सी लगभग ८-१० साल की बच्ची भी जो देखने में ६-७ से ज्यादा की नहीं लग रही थी ...आई थी ...सांवली सी पर खूब अच्छे से धोये गए कपड़ों को पहने ...तेल लगाकर करीने से बांधे गए बालों के साथ वो शर्मीली बच्ची अपने कपडे में ही अपनी उंगलियाँ छिपाते अपनी माँ के पीछे खडी हो गयी थी  जिसे देखकर ये पूछा मैंने .

मैडम जी , ये मेरी बेटी है ...अब मेरे साथ ही रहेगी ...इतना कहकर आमतौर पर कम ही बोलने वाली गंगा ने उसे वहीँ चुपचाप बैठने का इशारा किया ..वो ख़ामोशी से बैठ गयी पर उसकी नज़रें पूरे घर में घूम रही थीं ..जब उसने मुझे खुद को देखते पाया तो अनायास ही नज़रें झुका लीं .....मैंने पूछा .....बिस्किट खाओगी ? ....वो मेरी तरफ देखने लगी पर बोली कुछ नहीं ..उसकी नज़रें अब अपनी माँ को ढूंढ रही थीं ( शायद सहमती के लिए )

मैंने उसे कटोरी में 4-5 बिस्किट लाकर दिए उसने चुपचाप हाथ बढाकर ले लिया ...सामने रखकर बैठ गयी ...मैंने कहा ...खा लो ...वो एक बिस्किट उठाकर खाने लगी ..खाने क्या लगी बस कुतरने लगी ...फिर मै भी अपने काम में लग गयी और वो वहीँ बैठी रही ..फिर उसकी माँ काम ख़त्म करके जाने लगी तो उसके साथ हो ली ... इसके बाद वो अक्सर मेरे यहाँ आती ...घर के छोटे-मोटे काम कर देती ..फिर आराम से बैठकर खाती और टीवी के सामने पालथी मारकर बैठ जाती ...उसे गाने बहुत पसंद थे ...सुनती और खुश होती .....बचपन का चुलबुलापन पूरी तरह मौजूद था उसमे पर कभी कभी मजबूरी की परतों से ढंका हुआ .

वो आमतौर पर खुशमिजाज़ थी ...हंसती रहती थी पर कहीं गहरे उसे ये अहसास था कि वो गरीब है ...उसकी माँ दिन भर काम करती है तभी पेट भर खाने का इंतजाम हो सकता है और एक छोटा भाई भी तो है जिसकी देखभाल करनी है  ...इस अहसास से शायद वो कुछ जल्दी ही बड़ी होने लगी ...समझदार होने लगी ...मैंने गंगा से कहकर उसका और उसके भाई का दाखिला स्कूल में करवा दिया पर उसे शायद पढने से ज्यादा जरूरी काम करना लगा हो कि वो अक्सर कोई न कोई काम करके कुछ पैसे कमाने कि जुगत में रहने लगी  ....स्कूल से गैरहाजिरी की शिकायतों पर उसने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर जब गंगा को पता चला तो वो बहुत नाराज़ हुयी ...उसकी पिटाई भी कि फिर जब अगले दिन उसे और उसके भाई को स्कूल भेज कर काम पर आई तो गंगा की आँखों में आंसूं थे ...मैंने पूछा , क्या हुआ ? बोली मैडम जी , क्या बताऊँ ....पेट काटकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं ....सोचा थोडा पढलिख लेंगे तो कुछ अच्छा काम मिल जाएगा ....मेरी तरह झाड़ू-बर्तन नहीं करना पड़ेगा पर इस लड़की को तो समझ ही नहीं आता ...मेरे पीछे से किसी न किसी काम पर चली जाती है ...स्कूल नहीं जाती  ,,,शिकायत आती है जब तो मुझे पता चलता है ...कल तो खूब मारे हैं उसको और भेजे हैं स्कूल ..इतना कहकर रो दी ...बच्ची को पीटने का दुःख उसको बच्ची से कहीं ज्यादा हो रहा था पर फिर भी वो कुछ भी करके उसे पढ़ाना चाहती थी जिससे उसे तो कम से कम ये जिल्लत भरी जिन्दगी न जीनी पड़े ...कोई भी ढंग का काम करके इज्ज़त से जी सके ....मैंने कहा ...तुमने मारा क्यों ...समझा देतीं ...तो वो फट पडी ...मैडम जी समझाया तो कितनी ही बार था पर वो समझे तब न ...वो कहती है कि अम्मा ... हम भी काम करेंगे तो तुम्हारा बोझ कुछ तो हल्का हो जाएगा न ....हम पढ़ भी लेंगे और काम भी कर लेंगे ..तुम पप्पू को पढाओ अच्छे से ......अब आप ही बताइये मै क्या करून .......मै सोचने लगी इतनी छोटी सी बच्ची और माँ के लिए इतना प्यार ...मन ख़ुशी से भर उठा ..लगा कि उससे कहूं ..शाब्बाश बेटा ...यूँ ही अपनी माँ का ख़याल रखना पर कह नहीं पायी क्योंकि बात सिर्फ इतनी सी ही तो नहीं थी ...बेशक ये ज़ज्बा जरूरी था पर पढाई तो उससे ज्यादा जरूरी थी न ...इधर गंगा का रुदन चालू था ...आप ही बताइए मैडम ...पप्पू तो लड़का है ..अगर नहीं भी पढ़ेगा अच्छे से तब भी कुछ न कुछ तो कर ही लेगा ...लड़कों के करने के बहुत से काम होते हैं पर अगर ये नहीं पढेगी तो इसका क्या होगा ...कल अगर मेरी तरह इसके भी आदमी ने इसको छोड़ दिया तब .?....तब क्या ये भी मेरी तरह बर्तन कपडे करके ही जिन्दगी पार करेगी ...इतना कहकर वो सिसकने लगी ....मैंने कहा ....अच्छा चलो छोडो ...बच्ची है अभी ,.. समझ जायेगी ..तुम परेशान मत हो ....चलो चाय बनाओ ..मुझे भी दो और तुम भी पी लो पहले फिर काम करो ...वो सिसकते हुए धीरे से उठकर चली गयी चाय बनाने ....और मै उस बच्ची सोनू के बारे में सोचने लगी ...छोटी सी उम्र में ही कितनी संवेदनशील और समझदार  हो गयी है ...अभी से माँ का हाथ बंटा लेना चाहती है ...उसकी चिंताएं बाँट लेना चाहती है पर नहीं जानती कि माँ की चिंताएं ज्यादा व्यवहारिक हैं ....उसकी सोच पर ख़ुशी भी हो रही थी और उम्र व् हालात  पर अफ़सोस भी ....न जाने कितनी ऐसी सोनू ....और गंगाएं हैं हमारे देश में जो एक दुसरे कि जिंदगियों को बेहतर बनाने के लिए अपना आज होम कर देना चाहती हैं पर फिर भी पूरी कोशिश के बावजूद भी मुकद्दर नहीं बदल पातीं ...और ठंडी सांस के साथ मैंने इस विचार को वहीँ छोड़ दिया .

बीच के कुछ सालों में वो पढ़ती रही ..काम भी करती रही ..दरअसल काम ज्यादा करती रही ..पढ़ाई में मन नहीं लगता था शायद उसका तो टालमटोल करके किसी तरह १०वी तक पहुंची ...मैंने उसे बहुत समझाया कि कम से कम १०वी पास करके कोई डिप्लोमा ही कर लो तो ढंग की नौकरी मिल जायेगी ....वो हर बार बड़ी तन्मयता से सुनती और हामी भरती पर जैसी जिसकी तकदीर ...वो १०वी पास नहीं कर पायी और इसी बीच किसी लड़के के चक्कर में आ गयी ...इसका पता तो खैर उसकी मा को भी  तब चला जब वो घर से भाग गयी बिना बताये ...बुरा हो इस मोबाइल सुविधा का कि न जाने अन्दर अन्दर दोनों में क्या खिचड़ी पकी और दोनों बिना बताये घर से भाग गए ....गंगा रोते रोते आई और बताने लगी सब ...ये भी बताया कि लड़का शायद पहचान वालों का ही है ...शादी में मिला था ...उसे शक भी हुआ था पर जब तक वो पूरी खोज खबर लेती तब तक ये काण्ड हो गया ...वो बुरी तरह बिलख रही थी ...मैंने उसे कहा कि सबसे पहले पुलिस स्टेशन जाकर रिपोर्ट दर्ज कराओ ...बदनामी के डर से वो झिझक रही थी पर मेरे समझाने और कोई दूसरा चारा न होने कि स्थिति में वो अपने बेटे के साथ पुलिस स्टेशन गयी और रिपोर्ट दर्ज कराई ...उसके बाद तकरीबन एक हफ्ते के अंदर ही सोनू मिल गयी ...मतभेदों के बावजूद गंगा ने दोनों की शादी करा दी ....लड़के के मा बाप शायद कुछ न मिलने की वजह से असंतुष्ट और नाराज़ हुए इसलिए न तो शादी में आये और न ही बेटे बहू को अपनाया ...आज वो फिर से अपनी मा के साथ है ..इस बार अपने बेरोजगार पति और उसके बोझ के साथ ...गंगा अब अपने दामाद को कोई ऐसा कोर्स करा देना चाहती है जिससे वो अपने पैरों पर खडा होकर अपनी बीवी और बच्चों की जिम्मेदारियों को उठा सके ....बेरोजगारी की झुंझलाहट में उसके पति की तरह उसकी बेटी को छोडकर भाग न जाय ...

कुछ प्रश्न मनोवैज्ञानिक थे  जो कुरेद रहे थे कि क्या सोनू ने जल्दबाजी इसलिए दिखाई थी कि वो अपने हालातों से उब और थक चुकी थी और कैसे भी करके इससे बाहर निकलना चाहती थी या फिर वो इस तरह कुछ ज्यादा ही संवेदनशीलता से अपनी माँ की जिम्मेदारी कम करना चाहती थी या फिर कुछ ऐसा था कि इस उम्र कि ( 17-१८ ) गंध ने उसे सम्मोहित कर लिया था .... पर एक यक्ष प्रश्न अपनी पूरी विभत्सता  व् क्रूरता के साथ गंगा की आँखों में भी था  कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा मैडम जी ??























Monday 17 November 2014

अंतर्मन

हर किसी के पास है एक साक्षी
उदासी के सुरंग में छोर पर दिखती रौशनी सा
या पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर किसी सिद्ध मंदिर सा
जो उम्मीदें जगाता है
हौसला बढाता है और जिद्द भी पैदा करता है लक्ष्य पूर्ति के लिए ,

हर उस पल वो गवाह बनता है जब हिम्मत टूट रही होती है
जब ताकत गीली मिटटी सी हो रही होती है
वो ख़ामोशी से उसे उम्मीद के सांचे में उतार लेता है
गढ़ देता है हथेलियों के नर्म स्पर्श से
धीरे-धीरे मजबूत करता है फिर चुनौतियों की तपिश में ,

वो आइना बनता है अनगिनत गलतियों का फिर सुधार भी
उसकी हर भाषा रच देती है एक नया आयाम
सोपानो की श्रृंखला में हर कदम की सही परख है वो
तो उचित उत्तर भी ढेरों उलझनपूर्ण प्रश्नों का
जीवन के हर पन्ने पर इत्र सा महमहाता है
स्याहियों को इन्द्रधनुष के सुखद रंगों सा कर जाता है ,

हमारा अंतर्मन हमारा सच्चा दोस्त बन जाता है !!

Saturday 15 November 2014

प्रेम ..... अनेक

गैर जरूरी है तुम्हारा आना हर उदास लम्हे में
मायूसी बिखर जाती है
हर कोना कुछ और सिमट जाता है
दीवारें तक चुप लगा जाती हैं
हर कोशिश करती हूँ तब 
मै कहीं दूर चली जाऊं
निकल पड़ती हूँ यादों के जंगल में
तुम्हारा हाथ थामे .... यूँ ही भटकने को
थकने को --- थकते रहने को ,
उदासियों का डर नहीं अब
मुस्कुराहटें मेरे पास है !!

प्रेम ,
तुम विकट हो
हथेलियों में उग आते हो ,
छूने से डरती हूँ किसी को 
कहीं भूलवश संप्रेषित न हो जाए
मेरी दुर्दमनीय तकलीफ उसकी खुशियों में !!



पत्थरों के शहर में रूह सी कैद है सिसकियाँ
आहें गूंजती है जलतरंग सी
इंतज़ार हर बार अगली बार के लिए तैयार होता हुआ सा
और दुआयें
घंटियों सी बजती है और बिखर जाती है दूर तलक शब्दों में घुलकर ,
आओ ------ आ भी जाओ
मुझे प्रेम है तुमसे !!




उगता सूरज बाँध के मुट्ठी रख लूं भीतर 
रहूँ सुलगती मीठा -मीठा 
दिन-भर -हर क्षण !!



प्रेम

पीठ पर ढेरों कमल उगे हैं
हथेलियों में नर्म दूब
आस-पास जंगल है रजनीगंधा का ,
तुम पवन हो जाओ 
कि ये बेहतर है धूप होने से !!

शरारत

शाम के प्याले में शक्कर है सूरज वाली
रात उजाली ,
तपन यहाँ केसरिया है
और शर्म है आँखें काज़ल वाली ,
आओ इसको मिलकर थोडा कहवा जैसा कर लेते हैं
सबसे छुपकर बीच बादलों हम भी थोडा चख लेते हैं !!

अतीत

अतीत की रूह में बेशुमार कांटें हैं
बेशुमार छाले भी ,
ख़्वाबों की कच्ची लोइयां सिंकते-सिंकते सख्त हो गयीं हैं
सख्त हो गया है बिछड़ा मौसम भी 
पीछे रह गए रेत के घरोंदों में फैले हैं ढेरों मखमली कीड़े
छूते ही आदतन सिकोड़ लेते हैं खुद को
खुद को सहेजे रखते हैं विरासत की तरह शाइस्तगी से
बेमुरौव्व्ती से भी ,
राह की दूरियां सदियों के हिसाब से बढ़ती रहीं
हर घटता फासला सुकून को कुछ और दूर कर देता
हर कदम ज़मीन दोगुना होती जाती
खलिश सौ गुना
काली सडक भी काली लकीर सी हो उठती
बजाय काला टीका होने के ,
पर्दों के पीछे बहुत सलाहियत थी देखने की
सामने बेजारी का नाटक
बेचैनी की तमाम जिद्द के बावजूद भी
हर लम्हा अपनी शिकायत करता
अना पाबंदियों की मिसाल बनती जाती
बस टूटता रहता मासूम वक्त गिट्टियों की तरह
इमारत बनते-बनते खंडहर होता रहा
चुभती रही उसकी नोक हर ज़र्रे में बेख़ौफ़ बेपरवाह सी ,
इस कदर कि रूह रो पड़ी
सिसक पड़ी
फिर खामोश हो गयी एक रोज़
कायम है अपने मर्तबे पर तबसे अब तक !!

आस्तिकता

सांझ ढलते ही ईश्वर जन्म लेता है
स्वयं में -- सब में
स्वाभाविकतः सहज- सुन्दर
हर आस्था-अनास्था के भेद से परे ,
हम इसे खामखयाली कह सकते हैं
पर नकार नहीं सकते
बहस कर सकते हैं पर ख़त्म नहीं
प्रश्न विश्वास का हो सकता है
अविश्वास का भी
स्वीकार्य व् अस्वीकार्य का भी
परन्तु जिज्ञासाएं
मौलिक रूप में फिर भी सकारात्मक ही रहती हैं,
नियत समय पर तुलसी का दिया दिव्य होता है
उतना ही मनोहारी सुबह का मंत्रोच्चार
या अजान की आवाज़
या मोमबत्तियों का जलाया जाना
या फिर मत्था टेकना भी ,
कि भले ही संस्कारगत हो पर होता अवश्य है
ईश्वर को याद किया जाना
हर अच्छे-बुरे वक्तों में
कि एक वैज्ञानिक ने कभी कहा था बड़ी दृढ़ता से
मै आस्तिक नहीं हूँ ये ईश्वर की शपथ खाकर कहता हूँ !!

स्पंदन

पत्थरों के शहर में मृत्यु सहज प्राप्य नहीं
ढूंढना होता है
कि खुदा रहता है जीवन शिलाओं पर भी ,
चाहे -अनचाहे इसे जीना ही होता है 
पर शिला सा होकर नहीं
कि अपेक्षाओं में स्पंदन अनिवार्य है
किसी शर्त की तरह ,
इसलिए ही मेरे शहर में रूहों का बसेरा है !!

प्रेम में उदासी

प्रेम में उदासी लिखना सहज है,

मन के धागे खोले जा सकते हैं यहाँ
लिखी जा सकती हैं वो तकलीफें जो दरअसल तकलीफें नहीं होतीं
बस अप्राप्य सा कुछ होती हैं कामनाओं की बैसाखी पर ,
वो ढेरों चाहतें -आकांक्षाएं जो व्यक्ति कह नहीं पाता खासकर स्त्री
वो कहा जाता है इन तमाम कविताओं में
कई मायूस हुयी सतहों के साथ ,

फंतासी का ज़िक्र आवश्यक है
कि कभी भी प्रेम संपूर्णतः नहीं मिलता
मिल भी नहीं सकता कि सम्पूर्णता उब पैदा करती है
जबकि कुछ रह जाना ढेरों लालसा
यही लालसाएं प्रेम को जीवित रखती हैं ताज़ा रखती हैं ,

अतृप्त होना आवश्यक है प्रेम करने के लिए
इसलिए भी कि उसे महसूस कर सकें
हर बार परिपक्वता के उच्च से उच्चतर होते सोपानो के साथ
उन चाहतों के साथ भी जो हर दिन के साथ अपनी आकृति बदल लेते हैं
बदल लेते हैं संतुष्टि का पैमाना भी और नजरिया भी ,

प्रेम में ख़ुशी नहीं लिखी जा सकती
प्रेम में उदासियाँ लिखी जाती हैं ,
इन्हें लिखा जाना सहज है सरल है आवश्यक भी
प्रेम जीवित रखने के लिए !!

Sunday 28 September 2014

आखिर कब तक

सुबह-सुबह ये शोर कैसा ...एक तो मुश्किल से रविवार की एक दिन की छुट्टी तो उस पर भी कोई ढंग से सो नहीं सकता ..उफ़ ...बडबडाते हुए निशा ने खिडकी से बाहर झाँका ...अरे,ये क्या ....शर्मा जी के यहाँ इतनी भीड़ कैसी ....शर्मा जी निशा के पड़ोसी थे ...... पिछले कई सालों से दोनों आमने-सामने रहते थे और अच्छे पड़ोसी होने के साथ साथ अच्छे मित्र भी थे .....दिमाग में उमड़ते-घुमड़ते विचारों के साथ ही उसने जोर से अपने पति विबेक को आवाज़ दी .....सोने दो न यार ..क्या तुम भी सुबह--सुबह ...आज तो सन्डे है न ...आज भी तुम और कुनमुनाते हुए विवेक करवट बदलकर फिर से सोने लगा ....अरे उठो भी ..देखो न शर्मा जी के यहाँ कितनी भीड़ इकट्ठा है ..शायद पुलिस की गाडी भी आई है और एम्बुलेंस भी .....क्या ...क्या कह रही हो ..चौंकते हुए विवेक एकदम से उठ बैठा ...हाँ देखो न ...और विवेक ने खिडकी से बाहर देखा ....अरे हाँ ..पर क्यों ...देखना पडेगा ..कहते हुए विवेक बाथरूम की ओर चल पडा ...चंद मिनटों में ही वो शर्मा जी के घर में था .....निशा भी बाहर निकल आई थी ...कॉलोनी की बाक़ी औरतें बच्चे लगभग सभी बाहर ही खड़े थे ...निशा ने उनसे पूछा पर किसी के पास स्पष्ट जवाब नहीं था ....सभी कयास लगा रहे थे  बस ...पता नहीं क्या हुआ होगा ....रीना ने बोला कि सुबह उसने रागिनी को यानि मिसेज़ शर्मा की चीख सुनी थी ..वंदना ने भी हाँ में हाँ मिलाया ...रेखा बोली ..वो तो पुलिस जीप के हूटर की आवाज़ से उठी ...पर दरअसल माजरा क्या है इसका संदेह बना ही रहा ....बातचीत विभिन्न विषयों पर होती रही पर मूल में ये घटना ही थी ...हर कोई किसी न किसी घटना का ज़िक्र कर रहां था ज़हां संदेहास्पद स्थिति में पुलिस आई हो ....तभी पुलिस वाले बाहर निकले और सिपाहियों ने एम्बुलेंस वालों से बात की ...एम्बुलेंस वाले अपना स्ट्रेचर लेकर अन्दर गए और थोड़ी ही देर में एक ढके हुए शरीर के साथ बाहर निकले ...स्पष्ट था कि वो कोई मृत व्यक्ति है पर कौन ...तभी पीछे से मिसेस  शर्मा की चीख गूंजी ...वो भागते हुए बाहर निकलीं ...लोगों ने पकड़ लिया वर्ना टकराकर गिर जातीं ...वो लगातार चीख चीख कर रो रही थीं ....मत ले जाओ ...मत ले जाओ मेरी बेटी को ...क्यों ले जा रहे हो ..कहाँ ले जा रहे हो ...नीलू ..मत जाओ बेटा ...मम्मा को छोडकर मत जाओ ..मै कैसे रहूंगी ...कैसे जियूंगी ....नीलू ..मत जाओ बेटा ....नीलूऊऊऊऊऊ और मिसेस शर्मा बेहोश होकर गिर पड़ीं ..मिस्टर शर्मा भी बुरी तरह बिलख बिलख कर रो रहे थे ...उन्हें भी चुप कराना मुश्किल हो गया था बल्कि जो लोग चुप करने की कोशिश भी करते थे  वो खुद ही रो देते ...स्पष्ट था कि ये नीलू थी जिसके साथ इतना भयावह हादसा हुआ कि उसे ये दुनिया छोडकर ही जाना पडा .....ओह्ह्ह्ह ...माहौल बहुत ग़मगीन हो गया था ...कुछ औरतें मिसेस शर्मा के ऊपर पानी के छींटे डालकर उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रही थीं ...तब तक खबर मिलने पर शर्मा जी के परिवार के लोग जो पास के शहर में ही रहते थे वो भी आ गए ..एक बार फिर दर्द का सैलाब उमड़ा और फिर धीरे-धीरे करके लोग अपने घरों की ओर लौटने लगे . .... अभी तक ये स्पष्ट नहीं हुआ था कि नीलू की मौत कैसे हुयी थी और क्यों ....कारण क्या था क्योंकि वो तो बहुत ही खुशमिजाज़ लड़की थी ...हर वक्त हंसने मुस्कुराने वाली ....पढाई के साथ साथ एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटीज में भी हमेशा बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती थी ..दरअसल वो शर्मा दम्पति की इकलौती संतान थी इसलिए दोनों ने उसके व्यक्तिव निर्माण में पूरा ध्यान दिया था  ..उसकी हर ख्वाहिश पूरी की थी पर बिगड़ने नहीं दिया ...संस्कारी बच्ची थी ....कॉलोनी वालों को भी उससे इतना लगाव हो गया था कि सभी की आँखें उसके जाने से नम थीं और सभी बेहद दुखी महसूस कर रहे थे खुद को ...


पर कारण क्या था इस दुर्घटना का ये भी रहस्य के घेरे में था ....लोग अपनी अपनी सोच के अनुसार कारण ढूँढने का प्रयास कर रहे थे पर सफल नहीं हुए क्योंकि सच्चाई तो किसी को भी पता नहीं थी न .....पर शाम होते-होते इसका खुलासा हो गया ...कारण जानते ही लोगों में गुस्से की लहर दौड़ पडी ...माहौल बहुत गर्म हो गया और लोग तुरंत इन्साफ किये जाने की मांग करने लगे  ....पुलिस वाले आये ..उन्होंने कॉलोनी के वरिष्ठ लोगों से बात की ...शर्मा जी और उनकी पत्नी का भी बयान दर्ज किया जो अब भी गहरे सदमे में थीं और ये स्वीकार करने को बिलकुल तैयार नहीं थीं कि नीलू ..उनकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं रही ...वो बार बार कहतीं कि ऐसा नहीं हो सकता ..नीलू ऐसा नहीं कर सकती ..वो मेरी बहादुर बच्ची थी ...नीलू वापस आ जाओ बेटा ..हम जी नहीं पायेंगे ..शर्मा जी भी बिलख उठे ...यहाँ तक कि इस दुःख ने पुलिस वालों की अंतरात्मा को भी झकझोर दिया ...उन्होंने शर्मा जी को दिलासा दिया कि वो जल्दी ही उस बदमाश को सज़ा दिलाकर नीलू के साथ इन्साफ करेंगे .....धीरे-धीरे जो कहानी निकलकर सामने आई वो इस प्रकार थी ....करन नीलू के साथ उसके कॉलेज में ही पढता था ......स्मार्ट ..हैण्डसम ...प्रभावी व्यक्तित्व ....नीलू की तरह ही पढाई में अच्छा .....इसी वजह से उन दोनों कि दोस्ती हुयी और धीरे धीरे दोनों पहले best फ्रेंड बने और फिर एक दुसरे को पसंद करने लगे ...गुजरते वक्त के साथ जैसे जैसे प्रगाढ़ता बढती गयी नजदीकियां भी बढ़ने लगीं और अपेक्षा भी .....नीलू इनकार करती तो करण उतना ही जोर देता पर नीलू  कभी इस बात के लिए राजी नहीं हुयी ....शायद इसी वजह से करन ने कुछ ऐसा करने का सोचा जो ठीक नहीं था बल्कि अशोभनीय व् आपराधिक भी था .....एक दिन वो नीलू को लंच के बहाने किसी होटल में ले गया और फिर मौका देखकर उसके खाने में बेहोशी की दवा मिला दी ...और फिर वही हुआ जो करन ने पहले से तय कर रखा था ...अपने दो दोस्तों और होटल के मेनेजर की सहायता से वो नीलू को होटल के ही एक कमरे में ले गया और फिर उसके साथ वो सब कुछ किया जिसके लिए नीलू लगातार इनकार करती रही थी ....इतना ही नहीं बल्कि परले दर्जे की नीचता दिखाते हुए उसने इसे शूट भी करवाया और बाद में उसके दोस्तों ने भी वही सब दोहराया जो करण ने नीलू के साथ किया था ....कुछ घंटों बाद जब नीलू को होश आया तो वो अपने को किसी अनजान जगह पर पाकर चौंक उठी पर सच्चाई जानते ही उसके होश उड़ गए ...वो बुरी तरह करन के सामने रोई गिडगिड़ाई...बहुत मिन्नतें की पर करन का दिल नहीं पसीजा ..उलटे वो हंसने लगा और बोला कि पहले ही मान जाती तो ये सब नहीं होता ..पर तब तो तुम हवा में थी तो लो अब भुगतो ....करन ने धमकी di कि अब वो जब भी चाहेगा नीलू को उसकी बात माननी पड़ेगी वर्ना वो ये विडियो अपलोड कर देगा और mms के तौर पर भी इसका इस्तेमाल करेगा ......नीलू करन का ये रूप देखकर सन्न हो गयी ...उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो गया ...वो बहुत बुरी तरह डर गयी थी ....पर उसने ये बात किसी को नहीं बताई .....महीनो तक करन उसे प्रताड़ित करता रहा यहाँ तक कि कई बार उसके दोस्त भी साथ होते ....नीलू सहती रही ..बर्दाश्त करती रही ......हर बार जब वो विरोध का सोचती तो उसकी आँखों के सामने माँ -पापा आ जाते और वो हर बार मजबूर हो जाती ...लेकिन आखिर कब तक ....एक दिन उसके सब्र का बाँध टूट ही गया और उसने इंकार कर दिया ..करन ने फिर उसे डराया -धमकाया पर वो चुपचाप घर वापस आ गयी .....उस रात सामान्य तरीके से ही उसने सबके साथ खाना खाया ....माँ -पापा के साथ कुछ देर बातें कीं और फिर अपने कमरे में सोने चली गयीं ..कहीं कुछ असामान्य नहीं था कि किसी को कुछ शक होता .....अपने कमरे में जाकर बहुत देर तक वो फोटो अलबम निकालकर देखती रही ...रोती रही ...और जो वो करने जा रही थी उसके लिए माँ - पापा से माफी मांगती रही ...फिर वो उठी और उसने दो ख़त लिखे एक पुलिस को और दूसरा माँ--पापा को जिसमे तफसील से पूरी घटना का ज़िक्र किया गया था फिर उसके बाद उसने खुद को फांसी लगा ली .....उसके इन्हीं खतों को सबूत मानते हुए पुलिस ने सभी आरोपियों को गिरफ्तार किया ....कड़ी पूछताछ के बाद सभी ने अपने जुर्म कबूले और उन्हें जेल भेज दिया गया ...सामान्यतः इन्साफ तो मिल गया नीलू को व् उसके माँ-बाप को पर क्या वाकई इतना पर्याप्त था ? क्या इससे नीलू वापस आ सकती थी या फिर उसके माँ-बाप का दुःख कम हो सकता था ......नहीं ----बिलकुल नहीं ...साथ ही नीलू की एक बड़ी भूल भी उजागर हुयी कि काश अगर नीलू ने थोड़ी हिम्मत दिखाते हुए इसका विरोध किया होता और ये बात उसी समय मा-पिता को बताई होती ..पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज कराई होती और डटकर उनका सामना करती तो आज नीलू जिन्दा होती ....काश ....काश कि उसने ऐसा किया होता ....काश कि उसने अपने ऊपर कुछ भरोसा किया होता पर काश ........बस काश ही रह गया .....अनुत्तरित ....निराश .

एक प्रश्न और था जो पूरी ताकत के साथ सामने खडा था कि आखिर कब तक ...कब तक ये लोग ...ये समाज लड़कियों और स्त्रियों के विरुद्ध ही खड़े रहेंगे ...कब तक सिर्फ महिलाओं को निशाना बनाया जाता रहेगा ....कब तक हमारी बेटियाँ डर और खौफ के साए में जीती रहेंगी ..कब तक समाज हर गलती के लिए लड़कियों को ही दोषी मानता रहेगा ...कब हम सक्षम हो सकेंगे कि उन्हें निर्भय व् सम्मानजनक स्थिति मुहैय्या करवा सकें ..कब तक हमारा समाज कलंक के साथ जीता रहेगा ....कब तक असली रावण का सम्पूर्ण खात्मा हो सकेगा ..कब तक .....कब तक ??????

Thursday 14 August 2014

बच्ची 2

मेमसाब छुट्टी चाहिए ..गाँव जाना है ...बहादुर ( नौकर ) माँ से बोला ...माँ उसकी तरफ बिना देखे ही कहती हैं ..जाओ साहब से पूछ लो ..वो कहें तो चले जाओ पर हाँ दो दिन में लौट आना ....बहादुर हिचकते हुए बोला ..आप ही कह दें ..हमें डर लगता है ....माँ बोलीं ...अभी जाओ ..अच्छे मूड में हैं साहब कुछ नहीं कहेंगे ...बहादुर चुपचाप सिर झुकाए चला गया ..वो बहादुर को देखती रही ..कभी मा को भी ..लगता जैसे सबके अन्दर पिता का एक खौफ पल रहा है ..उसे कारण समझ नहीं आता ..वो और उलझ जाती तभी एक तेज़ आवाज़ ...चटाक ....चटाक ...अरे ये क्या ..वो भागकर गयी ..देखा तो पिता बहादुर को पीट रहे थे ..वो दोनों हाथों से चेहरा छिपाए खुद को बचाते हुए रो रहा था ...माफ़ कर दीजिये साहब ..नहीं जाउंगा और ये कसकर एक लात पिता ने उसकी पीठ पर मारी ...वो बिलबिलाता हुआ भाग गया ....छुट्टी चाहिए ...जब देखो तब छुट्टी ...चले आते हैं जब तब छुट्टी मांगने ..उसने पिता को गुस्से में कहते सुना.....ये इतना गुस्सा क्यों करते हैं वो मन ही मन सोचने लगी ...बेचारा बहादुर ...उसे कितनी चोट लगी होगी ..कितना दर्द हो रहा होगा उसका मन सहानुभूति से भर उठा ...वो दौडकर देखने गयी सर्वेंट क्वार्टर की तरफ तो देखा माँ पहले ही उधर जा रही थीं साथ में सोमनाथ था शायद ..दूसरा नौकर ...उसके हाथ में दवाई थी दुसरे हाथ में एक गिलास भी ...पानी होगा माँ ने कहा बहादुर दवा खा लो फिर आराम करो ...आज अंदर मत आना ..काम हो जाएगा ...बहादुर डबडबाई आँखों से देखते हुए बोला ..जी मेमसाहब ...माँ वापस आ गयीं ...उसे लगा जैसे माँ का चेहरा उतरा हुआ है ..वो इस बात से उदास थीं कि उनकी वजह से ही बहादुर को मार पडी पर वो किसी से कुछ कहती नहीं थीं ...शायद कह नहीं सकती थीं ..वो क्यों बर्दाश्त करती थीं उसे समझ नहीं आता ....अब ये कौन हंसने लगा जोर-जोर से ....सिर मानो दर्द से अब तो फट ही जाएगा ...सुबह कब होगी ...नींद नहीं आती ढंग से ...जब लगता है सो लूं तभी कोई कान के पास आकर खिल-खिल हंसने या रोने लगता है ...मर्दुआ ...कब ये सब ठीक होगा ....अरे रे ..ये कौन है ...मेरे बगल में आकर कौन सोया ...दिखा तो नहीं कोई ...दरवाज़ा भी बंद है ...ओह्ह दम घुटने लगा जैसे कोई मुंह बंद करके धीरे -धीरे रेत रहा हो गर्दन नहीं सांस .........

नहीं नहीं नहीं ...हम नहीं जायेंगे ...चलो न ...तुम्हें अन्दर घुमा के लाता हूँ ..कभी गयी हो ..नहीं ..कुतुहल और डर दोनों एक साथ ...अन्दर तो भूत है .....कोई भूत-ऊत नहीं है कहकर ___ भैया ठठाकर हंस पड़े ...डरपोक कहीं की ...ऐसा कहो न कि डर लगता है इसलिए नहीं जाना .....मै नहीं डरती किसी से ...तो चलो फिर ..उनकी आँखें चमक उठीं ...चलिए पर अन्दर ही अन्दर माँ का कहा याद आ रहा था कि सामने वाले खाली घर में मत जाना ..वहां भूत है ...उसने मन ही मन मा से माफी मांगी उनकी बात नहीं मानने के लिए फिर ____ भैया का हाथ थाम अकडकर चलने लगी .....गेट तो खुला ही था ...___ भैया ने पीछे वाली आंगन की दीवार के सामने छोटी सीढ़ी रक्खी थी जिस पर चढ़कर अन्दर जाया जा सकता था ....___ भैया ने पहले उसे चढ़ाया और धीरे से आंगन में उतार दिया फिर खुद कूद पड़े ...धप्प ...वो चौंक गयी भैया जोर से हंस दिए ...मैंने कहा था न डरपोक कहीं की ...मै नहीं डरती उसने गुस्से से कहा पर कसकर उनका हाथ भी पकड़ लिया ...__ भैया बोले चलो अन्दर चलते हैं ..उसने सहमी हुयी आवाज़ में कहा ..नहीं अब घर जायेंगे ..अंदर अँधेरा है ...भैया ने कहा ....धत्त , अभी कहाँ अँधेरा है अभी तो सूरज भी नहीं डूबा फिर मै तो हूँ न ....वो हिम्मत करके उनके साथ अन्दर गयी ....__ भैया एक एक कमरा दिखाते रहे ...अचानक उसे लगा कि भैया का हाथ उसकी पीठ और कमर पर है ....अनकस लगा तो उसने हटा दिया ..भैया ने फिर उसे गोद में उठा लिया ....उसने कहा छोडिये मै खुद चलूंगी ...भैया हंसने लगे बोले नीचे गन्दा है और सामान भी बिखरा पडा है तुम्हारी फ्रॉक फट गयी तो तुम्हारी माँ तुम्हें डांटेंगी....उसने भी सोचा कि फिर ठीक है लेकिन भैया घबराये जैसे क्यों दिख रहे ...पसीने-पसीने हो रहे ...उसने पूछा ...अब आपको डर लग रहा है क्या ..वो जल्दी से बोले नहीं तो ..क्यों ...तो फिर इतना पसीना क्यों आ रहा आपको ...अरे वो तो बस ऐसे ही ...तुम्हें उठाया था न ..तुम इतनी मोटी जो हो कहकर हंस दिए ....वो गुस्सा हो गयी ....जाइए कट्टी... मै आपसे बात नहीं करूंगी ...आप गंदे हैं ....अरे तुम तो नाराज़ हो गयी ...अच्छा चलो ...कुछ खेलते हैं ...यहाँ....इस गंदगी में ......मै तो नहीं खेलूंगी वो बिचक गयी .....अरे रुको भी ...मै ये सब साफ़ कर देता हूँ फिर ......खेलना है तो बाहर चलिए वहां खेलेंगे ..मज़ा आएगा .....यहाँ अच्छा नहीं लग रहा ...मुंह बनाते हुए उसने कहा ....उन्होंने कहा ..बस एक बार मेरे लिए ...खेल लो न ....वो माँ गयी ....____ भैया ने थोड़ी सी जगह साफ़ की और कहा कि एक काम करो तुम आँख बंद करके यहाँ लेट जाओ....अरे लेटो तो .....ये एक नया खेल है ...अच्छा कहकर वो लेट गयी ...आँखें बंद रखना ..चीटिंग नहीं ....उसने खूब कसकर आँखें बंद कर लीं ...__ भैया उसके पेट पर गुदगुदी करने लगे ...वो खिल-खिल कर हंस दी ...वो और गुदगुदी करने लगे ..वो और हंसने लगी ...जोर-जोर से कि तभी ये क्या ....वो कुछ कहने को ही थी कि भैया ने कसकर उसके पैर पर हाथ रख दिया अब उसने अपनी आँखें खोलीं ...वो डर गयी ..कैसी तो लाल लाल आँखें थीं भैया की ..उसने हाथ से उन्हें हटाना चाहा तो उन्होंने कसकर घुड़क दिया ...वो बहुत डर गयी ....आज ये भैया को क्या हो गया है ...मुझे डांट क्यों रहे हैं ...माँ ...माँ ...वो चिल्लाना चाह रही थी पर आवाज़ नहीं निकली ....भैया ने पूरी ताकत से उसके मुंह को बंद कर दिया था ...गों ...गों ...गों .....उसकी आँख से आंसू निकलने लगे ....वो दर्द से कराह उठी ....भैया अपनी पूरी ताकत लगा रहे थे पर उसने भी हार नहीं मानी ...विरोध करती रही ...अंत में ___ भैया ने एक थप्पड़ कसकर उसके गाल पर मारा और धमकाते हुए कहा कि इसके बारे में अगर किसी से कुछ कहोगी तो बहुत बुरा होगा ...बहुत पिटाई करूंगा ....वो थर-थर कांप रही थी ...बेहद डरी सहमी हुयी थी ...उसने खड़े होने कि कोशिश की पर नहीं हो पायी ...दुबारा कोशिश की तो गिर पडी ..फिर भैया ने उसे एक झटके से पकडकर दीवार के सहारे खड़ा किया ..अपने हाथों से उसका चेहरा ठीक-ठाक किया और घुड़ककर बोले चलो ...याद है न मैंने क्या कहा है ...उसने रोते हुए सिर हिला दिया ....रोना बंद करो अब ...पर उससे तो चला ही नहीं जा रहा था ....बहुत दर्द हो रहा था ....मै नहीं चल पाउंगी उसने रोते हुए कहा ...क्यों ..क्यों नहीं चल पाओगी भैया गुस्से से बोले ....बहुत दर्द हो रहा है उसने भाररती सी आवाज़ में कहा ....अच्छा और भैया ने उसे गोद में उठा लिया फिर वैसे ही अन्दर की तरफ रखी सीढ़ी से उसे पार करवाया और वहीँ खड़ा करके गुस्से से बोले ...अब यहाँ से अपने घर चली जाओ ....और मेरी बात याद रखना उन्होंने फिर चेताया .....अब तक सूरज डूब चूका था ...हल्का अँधेरा उतर आया था ....वो डरी सहमी धीरे धीरे कांपते हुए अपने घर की तरफ चलने लगी ...बीच में दो बार गिरी ..चला नहीं जा रहा था ...पता नहीं भैया ने क्या किया था कि इतना दर्द हो रहा था .....क्यों किया ....माँ पूछेंगी तो क्या जवाब दूंगी और अगर पिता ने पूछ लिया फिर ...कहीं कोई नौकर न देख ले नहीं तो सबको पता चल जाएगा ...वो धीरे-धीरे यही सब सोचते हुए घर की तरफ बढ़ती रही ....सबसे बचते-बचाते अपने कमरे में पहुँच ही गयी .....घन-घन थप-थप घन -घन थप-थप ...हे भगवान् ये कौन है जो एक साथ दरवाज़ा भी पीट रहा है और हथौड़ा भी चला रहा .....अरे बस करो ...तोड़ ही दोगे क्या दरवाज़ा...खोलती हूँ न ...और तुम हथौड़ा पीटना बंद करो नहीं तो सिर के दो टुकड़े हो जायेंगे पर घन-घन थप-थप घन-घन थप-थप --------------------

बच्ची

मै कभी बच्ची नहीं रही ..

अभी भी हो ..और रहोगी

अचानक ही हिलोर उठी उसमे फिर शांत भी हो गयी खुद ही .ऐसा नहीं था कि उसका बचपन कभी था ही नहीं पर हाँ बचपन जैसा नहीं था ...तब भी थी वो एक गंभीर उदास एकाकी जीव भर ही ....
चलो रहने दो ये कैसे मुमकिन है कि बचपन हो पर फिर भी न हो ..वो धीरे से मुस्कुरा दी और चली गयी बिना कुछ कहे .
रात भर कोई खिल -खिल कर हँसता और फिर रोने लगता कानो के ठीक पास ....बार बार उठती देखती झटकती चादर और पाती खुद को पसीने से तरबतर ....उठकर पंखा तेज़ करती ...उफ़ ये गर्मी ....बारिश भी तो नहीं हो रही कमबख्त कि पीछा छूटे वो बुदबुदाती फिर चारपाई की तरफ बढ़ जाती ...अचानक महसूस होता कमरे में कोई और भी है उसके अतिरिक्त ...आँख गडा-गडा देखती पर कोई नहीं दिखता ..कोई तो नहीं है ...पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि हर वक्त कोई पीछा करता रहता है ..सोते जागते उठते बैठते खाते पीते हंसी ठिठोली करते ...कौन है ये जो घूरता रहता है ....मन होता कभी कि खूब तेज़ दौड़ लगाऊं अँधेरे में वहां तक जहां से कुछ चमकीला सा दिखता है तो कभी लगता कि समय का चक्र पकड़ के उल्टा घुमाऊं पूरे जोर से ...फिर से वापस वहा तक पहुंचूं जहां एक बड़ा सा खिल्ला ठोका हुआ है मन के भीतर ..जहां जब कुछ कहूँ और कोई न सुने तो जोर से चिल्लाऊँ..इतना तेज़ कि फिर कोई और भी न बोल सके ...जहां सबकी तरह मेरे पास भी हों नए खिलौने या फिर कुछ भी ऐसा जो दोस्तों को दिखाकर रूतबा जताया जा सके ...उस ख़ुशी और संतोष कि तो तुलना ही नहीं की जा सकती पर जहां मै हमेशा दूसरी तरफ थी ...अब फिर से सिरदर्द बढ़ने लगा ...सोना ही होगा वरना खोपड़ी फट जायेगी ..आँख मूँद कर करवट लेती हूँ ....चारपाई फिर मिमियाती है ..फिर ऐसा लगा जैसे कोई फिक्क से हंस पडा रोने जैसा ......सपने भर सारी रात वो गुडिया ही सजाती रही माने बताती रही मा को कि चूड़ी गुलाबी चाहिए लाल नहीं ...लाल अब कोई नहीं पहनता ...मांग टीके में कोई हरा रंग भी भरता है क्या .... साडी भी चटक गुलाबी ...माँ सब करती ...यही इकलौता सुख उसके बचपन का .....उफ़ पंखा इतनी आवाज़ क्यों करता है ..दिखाना ही पडेगा ....तभी ड्राईवर आया अन्दर पिता का सामन लेकर ...वो समझ गयी पिता आ गए हैं ...अब यहाँ रहना बेकार ...वो चिल्लायेंगे कुछ कहेंगे मा को और फिर मा जवाब देगी और दोनों में लड़ाई शुरू ...कितना लड़ते हैं ये लोग ..क्यों लड़ते हैं वो नहीं समझ पाती पर वहां से खिसक लेती ..पिता से डर लगता उसे ...पहले नहीं लगता था पर उस दिन जो उसने मजाक में पौधा उखाड़ दिया तो पिता कितने गुस्से हो गए ..बरामदे में पटककर पैर से चेहरा दबा दिया ....बहुत जोर से दर्द हुआ ..सैंडल जो पहनी थी उन्होंने ..उतार देते ..कम से कम कान तो न कटता और न ही इतना खून निकलता ...उस दिन भाइ बहुत जोर से चिल्लाये पिता पर ..बड़ा अच्छा लगा ...जब पिता ने भी तुरंत अपना पैर हटा लिया और चुपचाप बाहर चले गए .....उसे लगा कि शायद पिता भाइ से दबते हैं ...उनके सामने वो कुछ नहीं कहते ..कहते तो हैं ही पर ज्यादातर नहीं ....उसने सोचा कि अगर अब पिता ने कभी उसे मारा तो वो भाइ से शिकायत करेगी पर कुछ ही दिनों में वो भ्रम भी टूट गया जब पिता ने उसे बिजली वाली लम्बी तार को मोड़ मोड़कर छोटा बनाकर उसे पीटा था ....एकदम छनछना गयी थी वो ..चमड़ी उधड आई थी ...केवल इस बात पर कि पिता ने मा के सिर पर लोहे की सरिया से मारा था और उसने मा को कसकर रोते हुए पकड लिया और पूछा था कि आपने क्यों मारा ......उस समय भाई नहीं थे पर बाद में जब आये तो उसने भाइ को भी मजबूर ..कसमसाकर रोते हुए देखा था ...उसे लगा भाई भी शायद पिता का कुछ नहीं कर सकते ..वो सबसे दूर--दूर रहने लगी ....न न ऐसा नहीं कि वो खेलती कूदती नहीं या उसके दोस्त वगैरह नहीं थे ...सब था पर कहीं न कहीं वो उन सब से छुपती-छुपाती रहती कि कहीं कोई कुछ पूछ न ले और उस पर भी अगर कोई पूछता कि कल तुम्हारे घर से रोने की आवाज़ आ रही थी या फिर तुम्हें चोट कैसे लगी या फिर तुम्हारी मा के चेहरे पर ये निशाँ कैसा ...वो एकदम भौंचक सी हो जाती मानो काटो तो खून नहीं कि इसे कैसे पता या फिर क्या जवाब दूं ..वो धीरे-धीरे सबसे कटने लगी हालांकि मा ने कुछ बहाने तैयार करवाए थे जैसे पढाई नहीं की तो भाई ने मारा या फिर मा फिसल कर गिर गयीं या फिर ..या फिर ...या फिर .........उफ़ फिर से ये कौन हंसने लगा खिल-खिल कर कान के पास बिलकुल रोने जैसा ....अब बर्दाश्त नहीं होता और हलके हलके नींद के झकोरे उस पर छाने लगे .

Tuesday 22 July 2014

नींद

नींद हिस्सों में आती है
क़र्ज़ की तरह ,

एटीएम मयस्सर नहीं यहाँ
कि जितना चाहा बटोरा
और छक के सो गए ,

चाँद के कटोरे में !!

प्रेम

मै चुप हूँ कि शोर ज्यादा है यहाँ ,

रौनकों का शहर है
संजीदगी नहीं पायी जाती ,

मेरी उदासियों में भी तासीर जिन्दा है मगर
उसी को ढूंढ लेती है
जो मुझ सा दिखता है यहाँ ,

कोई दिल्लगी कहता है
हिकारत से
तो कोई महसूसता है
सिहरकर
फिर कह उठता है
प्रेम इसे ,

प्रेम और उदासियाँ साथ-साथ पलती हैं
खिलखिलाहटों से बहुत परहेज़ है इसे अब भी !

सृजन

सपनो का टूटना फ़िक्र की बात नहीं
टूट ही जाते हैं अक्सर ,

इनका पलना जरूरी है
कुंद होने से बचने की खातिर
इनका बिखरना भी उतना ही जरूरी है
कि हर सृजन की शुरुआत
टूटे स्वप्न की बदसूरत किर्चियों से ही होती है ,

समेटने में हथेली ही नहीं सीना भी छलनी हो जाता है
सुर्ख धार दर्द की कलम के हिस्से आती है
फिर लिखा जाता है कोई सूत्र वाक्य जीवन का
अपनाया जाता है
व्यक्ति तब बनता है इन्सा सही मायनों में
हर तकलीफ और दर्द की सतह से ऊपर
रचता हुआ जिन्दगी का काव्य-गद्य!!

मृत्युगंध

मृत्युगंध तीव्र है
चुम्बकीय भी ,

सावधान मनुष्य
उम्र तनिक भी जाया न हो,

सत्य व् असत्य दो पहलू भर हैं
मात्र जीना ही सुखद है
सुंदर भी ,

सम्पूर्ण हो ये आवश्यक है
जीवन हेतु
स्वयं हेतु !!

मुल्तवी

चाँद सहमा रहा बादलों में
जैसे बूँदें चिपक गयी हों हथेली से
हवाओं में थरथराहट कंपकंपा उठी
सीने में बेचैनी
प्यास उतर आई रूहों तक
पर मिलना फिर मुल्तवी हो गया
जो उसने कहा
मै लौट कर आता हूँ !!

सज़ा

एक टुकड़ा उदासी तुम्हें देती हूँ
नोंचकर खुद से ,

जियो इसे और जानो
मेरी उम्र की वो इबादत
जो तुम्हारे बगैर तुम्हारे साथ
पूरी की मैंने !!

नाम

यूँ लगता है हथेली में शाम उतर आयी है
कुछ गुनगुनी
कुछ महकी -महकी सी ,

हवाएं बरबस ही चंचल हो उठी हैं
मौसम आवारा ,

कि मानो इनको भी भनक लग गयी हो
मेरी लकीरों में
अनायास ही छुपाये गए
उनके नाम के पहले अक्षर की !!

चुनाव

प्रेम रक्त कण सा
तुम देह भर ,

चुनाव सहज नहीं
पर ह्रदय में धार है दर्द की
मैंने प्रेम चुना ,

तुम अब भी वांछनीय
महत्वपूर्ण
पर इतना नहीं कि मर जाऊं तुम्हारे बिना !!

आवश्यकता

रचने के लिए आवश्यक हैं पात्र
भाव से परिपूर्ण
बेशक समाप्ति पर तोड़ना ही क्यों न पड़े ,

अनेक कालजयी रचनाएं स्थापित हैं अब भी
लथपथ ह्रदय पर
आगे भी क्रम निरंतर होगा
आगे भी आंसू लहू होगा !!

प्रेम पुनः

जब भी मेघ बरसे
धो लो अंतर्मन
जीवन ,

कर लो साफ़ सुथरा
चमकदार ,

कि हो सके फिर से नया प्रेम
हर बार !!

विद्रोह

सिगरेट शराब देह तुम्हारे लिए ही क्यों सुविधाजनक हो
ओ पुरुष ----मेरे लिए क्यों नहीं
कि अब जियूंगी मै भी स्त्री जीवन की तमाम वर्जनाओं को
खुलेआम ,
प्रकृति इच्छाओं में भेद नहीं करती
फिर समाज क्यों
कि यदि नैतिक हो तो सभी के लिए
अनैतिक भी तो सभी के लिए
बिना किसी भेद के ,
दुभाषिये के चश्मे से मापदंडों को अस्वीकार करती हूँ
तुम भी करो स्त्री
बढ़ो एक कदम और बंधन मुक्ति की राह में !!

Monday 24 March 2014

समय

समय को काटकर रख लो तिजोरी में
कि ये काम आयेंगे तब
बदन से सांस जब निकलेगी अंतिम
ज़रा मोहलत मिलेगी देखने की
कि आया कौन है
दरअसल कौन -कौन है
मेरी अंतिम घड़ी में
जो मुझसे प्रेम करता है
कि या फिर वो जो करना चाहता है तस्दीक
मेरे साँसों के रुकने की !!

सुकून

जिस्म होने से इनकार है मेरा
मेरी मान्यताएं मेल नहीं खातीं इससे ,

मै रूहों की दुनिया में खो जाना पसंद करूंगी 
कि उनकी शरारतें लुभाती हैं मुझे
उनका भोलापन आकर्षक है
समर्पण अद्वितीय ,

रूहानियत स्वयं में अप्रतिम सुकून है
यहाँ जुड़ने को समझौतों की दरकार नहीं होती !!

Friday 21 March 2014

घटना

तुम्हारी मौत एक घटना मात्र है ,

कुछ संवेदनाओं
कुछ अफ़सोस
कुछ ऐलान
कुछ प्रश्नों
कुछ आक्षेपों
कुछ सफाइयों के लिए
जो समाज और सरकार में जन्मेंगी
सीमित समय तक ,

परन्तु कुछ से बहुत ज्यादा
उस पीड़ा व असुरक्षा के जन्म की भी
जो तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार की निजी होगी ,

उन्हें सैनिक बनना होगा
जूझने के लिए
जीवन की तल्खियां तमाम उम्र तक
लम्हा दर लम्हा ,

तुम्हें ढेर सी उदासियों और गर्व के साथ सलाम
तुम्हारे परिवार को हौसले की झूठी सीख का सन्देश भी ,

भीतर की लडाइयां बाहर से ज्यादा खतरनाक होती हैं
भीतर के दुश्मन भी
नीति और राजनीति भी !!

चिड़िया

चिड़िया होना चाहती हूँ ,

फुदकना
चहकना
स्वतंत्र उड़ना चाहती हूँ ,

बंदिशें नहीं
रवायतें नहीं
ख्वाहिशों को जीना चाहती हूँ ,

सारा आसमां पंखों में समेट
गर्व को महसूसना चाहती हूँ ,

सारी सृष्टि आशियाना हो
ये अहसास करना चाहती हूँ ,

स्त्री होने पर ये मुमकिन नहीं
इसलिए ही
चिड़िया होना चाहती हूँ !!

tishngee

अंधेरों में तिश्नगी फूट-फूट पड़ती है
किसी साजिश की तरह
अँधेरा कम नहीं होता कभी
रचता रहता है षड्यंत्र हर बार नए से ,

वो हर बार सफल
मै असफल हो जाती हूँ
वो बढ़ता रहता है
मै घटती रहती हूँ
अंजुरी से फिसलकर
समन्दर हो जाने के लिए ,

कि किसी की हार यहाँ समन्दर सी भी हो सकती है
गंभीर --गहरी --वेगवान-----
अनियंत्रित और खारी
जिस पर कभी फूल नहीं उगते !!

aurten

औरतें झूठ बोलती हैं ,

दरअसल हमारी पीढी की औरतें झूठ बोलती हैं
जब वे कहती हैं कि वे खुश हैं ,

छिपाना चाहती हैं वे
खुद के कमतर आंके जाने को
हर रोज़ आहत किये जाते मन को
अनायास ही भर आयी उन आँखों को
जिन्हें वे चुपके से नज़र बचाकर पोछ लिया करती हैं
किसी के देखने से पहले ,
बिना कहे ही समझ जाती हैं वे समाज की कुत्सित रवायतों को
परिवार की चेष्टाओं में छिपे अनगिनत निषेधों को ,

औरतें क्यों झूठ बोलती हैं
पीड़ा सहती हैं
क्यों अपमान के बावजूद भी मुस्कुराती हैं
क्यों खुद को पुरुषों से हीन मानकर संतुष्ट रहती हैं
जबकि पुरुषों के अस्तित्व का सच भी इनके उन्ही अंगों से जन्मता है
जहां पुरुष सबसे ज्यादा प्रहार करता है !!

Wednesday 19 March 2014

mai hoon

फ़िक्र मत करो
मै हूँ हमेशा ही
तुम्हारे लिए
तुम्हारे साथ ,

फ़िक्र मत करो
मै तुम्हारे देर रात तक घूमने पर प्रश्न नहीं करूंगी
मै जानती हूँ कि देर रात तक घूमना सुकून से भर देता है
कि देर रात दोस्तों का साथ जिन्दगी को नयी दृष्टि नए अर्थ देता है
कि देर रात उम्मीदों के साथ ही विश्वासों को भी पुख्ता करता है ,

फ़िक्र मत करो
कि मुझे नहीं है कोई ऐतराज़ तुम्हारे छोटे कपड़ों पर
कोई कुछ भी कहे पर मै जानती हूँ
यही छोटे कपडे शालीनता को बोझ होने से बचा लेते हैं
यही छोटे कपडे चिड़िया होने का सा अहसास कराते हैं
यही छोटे कपडे आत्मविश्वास से लबालब भर देते हैं ,

फ़िक्र मत करो
मुझे ख़ुशी है कि तुम अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए कटिबद्ध हो
सिर्फ जी पाने भर के लिए नहीं
मुझे खुशी है कि तुम्हारे सपने जीवित हैं और स्वछंद भी
मुझे यकीन है तुम्हारे हौसलों पर कि तुम उनमे खूबसूरत रंग भर लोगी ,

फ़िक्र मत करो
कि तुम्हारी कोई भी गलती कभी भी इतनी विकट नहीं  हो सकती
कि हम मिलकर उसे सुधार न लें
तुम्हारा कोई भी कदम इतना विपरीत नहीं हो सकता
कि हम उसे मिलकर सही दिशा न दे सकें
तुम्हारा कोई भी फैसला इतना व्यर्थ नहीं हो सकता
कि हम उसे मिलकर एक नया आयाम न दे सकें ,

फ़िक्र मत करो मेरी बच्ची
कि मै हूँ
तुम्हारे जीवन के हर पड़ाव में घटित होने वाली 
तमाम किस्म की घटनाओं में
तुम्हारी प्रथम सहयोगी हमराज़ व् तुम्हारी अभिन्न मित्र
इस आश्वस्ति के साथ
कि इन सबमे हमारे साथ हैं शामिल तुम्हारे पिता भी !!

Monday 3 March 2014

असमंजस

धरती असमंजस में है
तपन की जगह ये नमी कैसी
अभी तो अन्तस पूरा सूखा भी नहीं था
और बादल फिर से बरस उठे
कि ज़रा तो थामा होता खुद को
नियंत्रित किया होता
पूरी सूख जाने पर मै स्वयं करती तुम्हारा आह्वान
बाहें फैलाए
और भर लेती साँसों को तुम्हारे सोंधेपन से
अंतर्मन सराबोर हो जाता
पर तुम ठहर नहीं पाए
मै जी नहीं पायी सम्पूर्ण प्यास !!

बदलाव

कुछ ख़ास लम्हों को मैंने कभी नहीं जिया
पिता के साथ को कभी नहीं जिया
कभी नहीं जी मैंने उनकी हंसी उनका उत्साहवर्धन
जैसा सब जिया करते हैं
बेटियों के लिए जैसे पिता हुआ करते हैं
मैंने जी है उनकी उदासीनता उनकी उपेक्षा
उनका होना कि वो मुझे नकार नहीं सकते
सिर्फ इसलिए ही वो मुझे स्वीकार भी नहीं करते ,

पर कुछ ख़ास लम्हों को मैंने जिया है
बड़ी शिद्दत से
जैसे कलियों का उदास होना
या मौसमो का रो पडना
पक्षियों की खामोशी या बसन्त का एकाकी होना
डूबती लालिमा का दर्द और फिर चाँद का बोझिल होना
खाली-सूनी आँखों से ---- बेआवाज़
एक लम्बे समय तक,

आज फिर महसूसती हूँ वही सब
और रो पड़ती हूँ
कि ख़ास लम्हे हुबहू वही हैं
पर आँखें बदल गयी हैं
आज ये पीड़ायें
मेरी जगह मेरे पिता की हो गयी हैं !!