Monday 3 March 2014

बदलाव

कुछ ख़ास लम्हों को मैंने कभी नहीं जिया
पिता के साथ को कभी नहीं जिया
कभी नहीं जी मैंने उनकी हंसी उनका उत्साहवर्धन
जैसा सब जिया करते हैं
बेटियों के लिए जैसे पिता हुआ करते हैं
मैंने जी है उनकी उदासीनता उनकी उपेक्षा
उनका होना कि वो मुझे नकार नहीं सकते
सिर्फ इसलिए ही वो मुझे स्वीकार भी नहीं करते ,

पर कुछ ख़ास लम्हों को मैंने जिया है
बड़ी शिद्दत से
जैसे कलियों का उदास होना
या मौसमो का रो पडना
पक्षियों की खामोशी या बसन्त का एकाकी होना
डूबती लालिमा का दर्द और फिर चाँद का बोझिल होना
खाली-सूनी आँखों से ---- बेआवाज़
एक लम्बे समय तक,

आज फिर महसूसती हूँ वही सब
और रो पड़ती हूँ
कि ख़ास लम्हे हुबहू वही हैं
पर आँखें बदल गयी हैं
आज ये पीड़ायें
मेरी जगह मेरे पिता की हो गयी हैं !!

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