Wednesday 9 September 2015

सुनो मन

सुनो मन यूँ मत ऐंठो
मत ऐंठो कि इससे टूट जाते हैं ढेरों मधुर राग
क्षुब्ध हो उठती हैं अनगिनत रागिनियाँ
कोमल भाव के कई उच्च स्वर भी ,

कि तुम्हारा इस कदर ऐंठना
आसमां के धैर्य को थका देता है
रुला देता है बादलों की स्वाभाविकता को बेतहाशा
नमी को सुर्ख खुरचा हुआ धुआं बना देता है ,

इस कदर ऐंठने से
रात कुछ और काली हो जाती है
और काला हो जाता है उसकी पुतलियों में
ठुनकती चंचलता का भाव भी ,

तब वो मौसम का नजरिया टीका न होकर
सुकून देते तमाम अहसासों का अंगार कफ़न हो जाती है
बिखर गयी विभिन्न संवेदनाओं की इकठ्ठा नज़र हो जाती है ,

यूँ मत ऐंठो मन
इससे स्वजनित सरलता बाधित होती है
बाधित होता है स्वयं का स्वयं से अनिवार्य स्पर्श भी
ठिठका रहता है जो कम्पन के पाताल में
बड़ा सा एकपक्षीय आइना ओढ़े ,

देख नहीं  पाता तुम्हारी सुकोमलता को
कि जब तुम आनंदित ,प्रफ्फुलित व् बेबाक होते हो
कि जब तमाम ऋतुएं यात्रा से पहले तुम्हे सलामी नज़र भेजती हैं
कि जब समस्त आंतरिक व् बाह्य सौन्दर्य
तुम्हारी एक मुस्कान से छलछलाकर बह उठते हैं
कि जब प्रकृति पूरी उर्जा से तुम्हारे साथ विहंस उठती है ,

इसलिए ही सुनो मन
यूँ मत ऐंठो
कि तुम्हारे ही इस चमत्कृत धरातल पर
खुशियों , संवेदनाओं व् सुकून का आधार निर्धारण होता है !!












Tuesday 23 June 2015

इश्क

सीने की मिट्टी पर दर्ज होती हैं हवाएं
दर्ज होती है तकलीफ
और एक किस्म की बेचारगी भी,
जब जिसम की आखें सूनी हो उठती हैं 
जब उंगलियों से फटे कागज की सी आवाज आती है
जब कोई चाह हो जाती है सोंधी -सोंधी सी
जब तमाम सांसे पकने लगती हैं रात के चूल्हे पर
जब तमाम शिकवे राहतों का सबब हो जाते हैं
जब गले के पास यूँ ही उभर आते हैं कुछ जख्म,
ठीक उसी वक्त हजारों मील दूर बैठा कोई कर रहा होता है
धूप से जवाब -तलब
और कर रहा होता है ख्वाहिश बारिशों की
बिना ये जाने कि किसी के सीने की मिट्टी बारिशों में भी
दरारों सी हो जाया करती हैं।।

Wednesday 17 June 2015

मत करो

मत करो ,
यूँ मत करो कि न बचे कुछ बीच के सेतु सहित
बीच की उर्जा जहां नैराश्य का साधन बने
मतिहीन हो मत यूँ करो ,
रह भी जाए गर अगर रिश्ता कहीं टूटा हुआ
उधड़ा हुआ ..... रोता हुआ हर पल कहीं सहमा हुआ
फिर क्या हो हासिल
कि जिन्दगी पटकी रहे कदमो तले
और अहम् का साम्राज्य हो ,
कुछ नहीं रह पायेगा कुछ नहीं बच पायेगा
गर बच गया ये अहम् कुंठित ,
सो त्याग दो इसको अभी
और फिर करो रचना एक सुन्दर दृश्य की
कि हों जहां खुशियाँ असीमित
हो जहां सपने असीमित
और हो मुस्कान संग उपलब्धियों के
खिलखिलाती रौशनी का साथ हो
आगाज़ हो फिर एक निर्मल भाव का ,
मत करो ,
यूँ मत करो कि न बचे कुछ बीच के सेतु सहित
बीच की उर्जा जहां नैराश्य का साधन बने
मतिहीन हो मत यूँ करो !!

Friday 17 April 2015

जिन्दगी

रह जाता है कभी कोई अपना होते-होते
चुभता बहुत है कहीं ----शिद्दत से ,
जा नहीं पाता खुद से
और रह भी नहीं पाता पूरी तरह 
कि संस्कार भी बगावत कर देते हैं एक वक्त के बाद ,
अक्स उसका कई टुकड़ों में नज़र आता है
अक्सर ही अहमी चालाकियों में उलझा -खोया सा
पर कई बार उसको नामालूम से पारदर्शिता के झीनेपन की कैद में भी ,
यहाँ सहनशीलता छोटी पड जाती हैं
दर्द लंबा हो जाता है ,
जिन्दगी भावपूर्ण रिश्तों सी असीमित जो नहीं होती !!

कवितायेँ

तुमसे
जब भी बातें करती हूँ
मन भीगा-भीगा हो उठता है ,
तारी हो जाता हैं ज़लज़ला साँसों में 
आवाज़ बह निकलती है ,
बेहद मुश्किल से ही फिर सैलाब को
थामना होता है ,
इसलिए मै चुप रहती हूँ .....
अक्सर
मेरे हमनफ़ज !!


वो
चाय पिलाता है पहले
फिर उधेड़ता है बखिया तहों की
एक एक कर ,
बड़े कायदे से फिर मुस्कुराता है
मेहरबानियों जैसा ,
हर बार सोचती हूँ करूंगी कुछ अच्छी बातें
कहूँगी कुछ
जो उसे खुशगवार करे ,
पर हर बार उठती हूँ कोफ़्त के साथ
उसे कोसते हुए .
मन
तू क्यों न हुआ मेरे जैसा
मेरे लिए !!


हथेलियों पर उगने लगे हैं पंख
सतह ज़ख़्मी है
टीसती नहीं पर न जाने क्यों ,
श्वेत कोमल भाव रचती रहती हैं कल्पनाएँ 
उछाह रंग भरते हैं
हौसला भी ,
पर टपक रही सुर्खी
हर बूँद के साथ गढ़ती है एक नयी रूमानियत
एक नयी तस्वीर परछाइयों के पोर्ट्रेट सी
दर्द के दस्तावेज़ सी भी ,
डायरी पीली पड चुकी है ....पन्ने भूरे
कमजोर इतने कि मसल दें गर तो लहू फिसल पड़े ,
श्वेत पंखों में गुलाबियत उतरने लगी है हौले से
ख़ामोशी चीख उठी
पर आवाज़ अब भी बंदिशों पर कायम है !!





















तकलीफ

आहिस्ता से चूमकर आँखों को छू गया
सदियों की तकलीफ कोई ,
हथेलियों की बेचैनियों को थामकर सहलाकर
दुआओं का हाथ हो गया कोई ,
कतरा-कतरा दर्द यूँ रेज़ा-रेज़ा बिखर गया
जब टूटकर बिलखकर कह उठा कोई ,
खुदाया माफ़ करना मुझे मेरे बेहिसपने के लिए
उन आंसुओं के लिए कि जिनका सुकून नहीं
जरिया मै ही था
उन तकलीफों के लिए कि जिनका जानकार नहीं
वजह मै ही था
उस इश्क के लिए कि जिसका गुनाहगार नहीं
इबादत मै ही था ,
वो गिरकर रोता रहा
मैंने दिलासे दिए
दिलजोइयाँ कीं
फिर पलटकर चल दी तमाम उधडे ज़ख्मो को थामे
कि जो रिसने लगे थे अरसे बाद आज फिर से बेपर्दा होकर
कि जिनके फफोले मेरे सीने पर गुलाब की टहनियों से उभर आये थे
कि जिनके दर्द मेरी आँखों में मोतियाबिंद से उतर आये थे ,
किसी के सपनो के टूटने का बोझ अपनी इंसानियत पर लादे
वो एक शख्स देखता रहा दूर तक मुझे
कि जब तक मेरी पीठ पर कूबड़ नज़र नहीं आया
कि जब तक मेरी कमर दोहरी होकर मुझे अपाहिज नहीं कर गयी
कि जब तक मेरी झुर्रियां मेरे कदमो के निशानों में गहरे नहीं पैठ गयीं ,
फिर वो धीरे-धीरे खारी बूँद होता रहा
मै धीरे-धीरे कांच सी रेत ,
समन्दर में आज भी फूल नहीं उगा करते !!

जिन्दगी

रह जाता है कभी कोई अपना होते-होते
चुभता है बहुत ---कहीं शिद्दत से ,
जा नहीं पाता खुद से
रह भी नहीं पाता पूरी तरह 
संस्कार भी बगावत कर देते हैं एक वक्त के बाद ,
अक्स उसका कई टुकड़ों में नज़र आता है
अक्सर ही अहमी चालाकियों में उलझा -खोया सा
कई बार उसको नामालूम से पारदर्शिता के झीनेपन की कैद में भी ,
यहाँ सहनशीलता छोटी पड जाती हैं
दर्द लंबा हो जाता है ,
जिन्दगी भावपूर्ण रिश्तों सी असीमित जो नहीं होती !!

शिद्दत

वो लिखती रहती है प्रेमगीत 
रचती रहती है कोई न कोई धुन 
हवाओं में , पर्वत नदी पहाड़ों जंगलों में 
रात के भयावह सन्नाटों और सूरज की तपती धूप में भी ,
वो ढूंढती रहती है प्रेम मिचमिचाई आँखों ,सूखे होठों और 
झुर्रियों से धीरे-धीरे भर रहे चेहरे के साथ --- अनवरत ,
वो महसूसती रहती है प्रेम खाली मन और उदास खामोशियों के बीच
उन सभी जगहों पर जहां प्रेम अक्सर नहीं होता ,
प्रेम के अभाव में भटकती प्रेम को शिद्दत से जीने की चाह लिए एक लड़की !!

दौर ए इश्क

प्रेम के पंख गुलाबी हैं
साँसें सब्ज़ हरारत ली हुयीं ,
सीने में उतर आया है पूरा चाँद
नसों में बिजली
तलवों में तेज़ कसमसाहट 
हथेलियाँ बौराई सी
नज़रें सकपकाई सी
जिस्म में सहमापन बेहिसाब ,
आज मै फिर उम्र के सोलहवें दौर में हूँ !!

Thursday 16 April 2015

छोटी कवितायेँ

बड़ा विकल था रात समन्दर भर - भर आंसू रोया था 
चाँद भी था बेचैन बहुत संग जिसके बादल सोया था 
बारिश थी संग किरणों के जो बौराई सी फिरती थीं 
जाने अब महबूब कहाँ था किसके दामन खोया था !!



सितारों को ज़मीं की बात करने दो 
हवाओं को नमी की बात करने दो 
बहुत जंगल कटे हैं उसके सीने में 
उसे अपनी कमी की बात करने दो !!



ओह्ह सुख
अप्रतिम अद्भुत प्रेम का ,
राग जैसे गा रहा मधुकर स्वयं ही
गीत जैसे लिख रहा मौसम स्वयं ही ,
भेदती हैं सांस को आहट किसी की
रेंगती हैं रक्त में चाहत किसी की ,
भीग मन जाता यहाँ मिटटी सरीखा
भीग तन जाता यहाँ बादल सरीखा ,
ओह्ह सुख
अप्रतिम अद्भुत प्रेम का !!



भीगी सी हंसी उसकी
कल बरस उठी मेरे शहर में
शहर हंस पडा
मै रो उठी ,
गीली वेदना से अभिभूत !!



कई बार उदासियों की सीवन उधड जाती है
सिला जाना जरूरी नहीं होता
पर हाँ ढके रहना चाहिए ,
कि जरूरत देखकर 
खुशियाँ भी मोहताज़ बना देती हैं
खुद का !!


भर अंजुरी वेदना फफक पड़ी खुली हथेलियों में 
कि जैसे रच रही हो चित्रकारी 
तमाम पश्चातापों की ...अधूरी ख्वाहिशों की 
जन्मदाता के मस्तक पर 
सदा-सर्वदा के लिए !!


गुलाबी सरहदों पर ढेरों चिनार सजने दो
उगने दो बुरांश के जंगल विस्तृत ,
हम तुम तो बस परिवर्तित होते रहें निरंतर
कथाओं में प्रेम होकर 
पर्याप्त है !!



जब वो हंस के कहता है
कोई नहीं यार घूम कर आता हूँ
यूँ लगता है कि दरांती का असर ताज़ा है .
कुछ ज़ख्मो में उसके 
तो बाकि के मेरे अश्कों में !!



ईश्वर हंस पड़ा

बारूद के ढेर पर खड़े शहर हंस रहे थे
मुस्कुरा रहे थे
जीवन की तमाम उर्जाओं से लथपथ ,
नहीं जानते थे खत्म बस होने को हैं 
नहीं जानते थे विनष्ट बस होने को हैं,
हर क्षण रच रहे थे ढेरों कविता
गा रहे थे सुरीले नज़्म
कर रहे थे बेहतरीन चित्रकारी
भर रहे थे मानव को असीम तृप्तिबोध से ,
ईश्वर स्तब्ध हो उठा
चकित भ्रमित आशंकित भी
फिर धीरे ---धीरे परिवर्तित करने लगा
बारूदों को
मिटटी में जल में वायु में
सौंप दिया शहर को फिर
शहर खिलखिलाया उन्मुक्त होकर
झडने लगे ढेरों बीज ख़ुशी के
ज़ज्ब होने लगे मिटटी के सीने में ,
एक रोज़ वहां कुछ फूल उगे
नीले-पीले लाल- गुलाबी
और असंख्य हो बिखरते रहे
समस्त धरा पर ,
इस बार ईश्वर हंस पड़ा
नम आँखों से !!

जीवन

आसमां के ज्यादर सलेटी पर कुछ सफ़ेद हिस्सों के बीच
समस्त अधिकार के साथ पैठे बादल के छोटे से भव्य पीले हिस्से में
रहता था एक जोड़ा गौरैया का ,
कभी - कभी उनके पंखों के फडफडाने का तीव्र भान सा होता
मानो छूटने की पुरजोर कोशिश होती 
पर हर बार नाकाम सी ,
एक की आँखों में छटपटाहट के आंसूं उतर आते
पर दूसरी में जिद्द का स्वाभिमान
अंततः पंखों के एक दुसरे के स्पर्श मात्र से
भर आई ताकत के साथ मानो एक आखिरी कोशिश
और वो निकल आते हैं उस बेहद खूबसूरत स्वर्ण कैद सरीखे ही
बादल के छोटे से टुकड़े से
जहां होना शायद कभी उनका स्वाभाविक चुनाव था
या फिर पारम्परिक बाध्यता
पर अब उसे सह पाना लगभग असह्य था ,
मुस्कुराती आँखों के साथ
ज़ख़्मी जोड़े अब अपनी अनंत यात्रा पर हैं
उल्लासित पवन से
साथ है बेशक ढेरों खारापन
बेहद तकलीफ
पर साथ ही है अगाध प्रेम ,विश्वास व् मुक्ति का सुख भी
अथाह-------------,
ये पर्याप्त है
जीवन को जीवन सा जीने के लिए !!

प्रेम यातना सहित

प्रेम
हो तो हो पूरी यातना के साथ
वरना न हो ,
यातनाएं मजबूत बनाती हैं गाहे-बगाहे 
यहाँ वर्गभेद नहीं होता
और नहीं होती कोई सीमा रेखा
अपने तमाम कठिनतम विस्तार के बावजूद भी ,
यातनाओं की पोटली में कैद होती हैं छोटी छोटी तकलीफ की बूँदें
छोटे छोटे अनजिए अनछुए ख्वाहिशों के पल
छोटे समयान्तरों का रूठना कसकना फिर मान जाना ,
यातनाओं की ज़मीन हीरे सी होती है
उतनी ही सख्त पारदर्शी और अमूल्य भी
इसे सहेजा जाना चाहिए
प्रेम में सम्मानित विरासत की तरह ,
इसलिए ही
प्रेम हो तो हो पूरी यातना के साथ
वरना न हो !!

प्रेम पुनः

कोई फ़िक्र नहीं वो कहता और हंस देता
उसकी आँखों में मीठी सी ढेरों धूप उतर आती
चेहरे पर भोर की निर्मल उजास
मानो सुख मन भर उतरा आया हो उसकी छाती में ,
सख्त दिखती नर्म उँगलियों से
छूता रहता अनायास ही मेरी उँगलियों को
मुस्कुराता हौले से फिर समूचा ही भर लेता मुट्ठी में
हथेली पुरजोर कसमसाती शिथिल हो जाती फिर विवश होकर
कि उनमे कोई जादू सा उतर आता मंत्रबिद्ध करने को मानो ,
ट्रेन की खिडकियों से हम झांकते प्रकृति को
समय कि सुइयों को धीमा चलने का निवेदन लेकर
कभी कुल्हड़ की चाय कभी दूरियों का ज़िक्र करते
बरबस सूख आये होठों पर धीमे से नया आइना रखते
उलझती नज़रों में फिर टूटी हुयी कोर भर उदासी झलक उठती ,
अनजाना सा होकर ही फिर निकल गया वो मानो पहचानता नहीं
कि मेरे आँचल का शफ्फाक सुनहरा होना बेहद प्रिय है उसे
कि मेरे नाम का बेदाग़ होना बेहद प्रिय है उसे
पर मै रो पडी फफककर जो दूर से देखीं उसकी गीली आँखें
जो दूर से देखा उसका यूँ मायूस होना अखबार की व्यर्थ ओट लिए
या फिर वहीँ पुल पर रेलिंग थामे ,
मन भीग - भीग उठा अथाह सुख महसूस कर किन्तु
कि प्रेम अब भी सोंधा है अब भी ताज़ा है वैसे ही मुझमे प्रिय
अपनी पूरी कमनीयता से तुम्हारे लिए !!

मै हूँ स्त्री

मै हूँ स्त्री 
मुझमे रहती है एक नदी 
और रहता है प्रेम 
दोनों ही व्यवस्थित दोनों ही व्यस्त 
अपनी अपनी परिकल्पनाओं के निर्वाह में ,
भयंकर एकरसता व् उब से उपजे समय में
दोनों परिवर्तित होते हैं
बदल लेते हैं अस्तित्व एक-दूजे से ,
प्रेम विगलित हो नदी हो जाता है
नदी हो उठती है उदासी ,
इस एक वक्त मै स्त्री काष्ठ कि हो जाती हूँ
भाव व् अभिव्यक्ति से परे ,
कुछ पलों के मनबहलाव की वेदना के साथ दोनों
फिर लौट आते हैं अपनी -अपनी निजता में
बिना किसी अपराधबोध के
परिकल्पनाओं के निर्वहन हेतु ,
मै स्त्री फिर स्त्री हो जाती हूँ
पर कहीं कहीं रह जाते हैं मुझमे काष्ठ के बारीक कण
चुभते रहते हैं समय-असमय
भरती रहती हूँ मै यातना से धीरे-धीरे अपना अंतर्मन
रिसते-रिसते एक दिन मै स्त्री स्वयं नदी हो जाती हूँ
और प्रेम हो जाता है जल का मीठापन !!

मदमस्त होली

देखा उसने स्वप्न 
कि एक दफे मुस्कान उतरकर 
रंग से भरकर 
चली ठुमकती सड़कों पर जैसे बौराई ,
वहीँ कहीं पर ठिठका था भर ग्लास 
कि जैसे हास बेशरम हो ठंडाई
लगा पकड़ने रेशम जैसा आँचल उसका
भर झल्लाई भले लिया फिर थाम कि उसका हाथ
गले में माला जैसे ,
थोड़ी दूर खड़ा था कोई भर मुट्ठी में भंग
कि जैसे गीत कोई मलंग
जो नाचे भर अंगनाई बजा के चिमटा
लिपट-चिपट कर लोट लगाकर
घर -आँगन की मिट्टी से श्रृंगार रचाकर
फ़ैली बांह लिए दौड़ा उस ओर
कि मानो वही प्रेयसी बचपन वाली
खडी हो टेसू के फूलों का हार बना कर
लज्जा से चितवन का मोहक साज़ बनाकर
भर के जिसको अंक
हो सके औघड़ शिव सा
कर दे उसको प्रकृति की सुन्दरतम कृति सा ,
कि तभी बगल से गुजरी टोली जोर का पूरे शोर मचाकर
होली है भई होली है बुरा न मानो होली है
टूट गया फिर स्वप्न कि टूटी सब उम्मीदें सारे सपने
भर पिचकारी मारी जब मिलकर सबने
और ठूंस दिया मुंह भर गुझिया का स्वाद अनूठा
देखा उसने कहीं पर मगर नहीं था कोई
टीस गया कुछ आँखों में
भर आया पानी
बंद आँखों से पहला टीका लगा के उसको
दूजे में फिर भर गुलाल चिल्लाया कसकर हो जोगनिया सरररर !!!!!

लौट आओ बस

लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको पिता का संताप
माँ का मौन से छादित गहनतम दुःख
पीड़ा जहां छलक छलक उठे हर श्वांस सहित 
जहां विलाप को अब स्वर नहीं फूटते
आँख नहीं बहती
नहीं होती हलचल साँसों तक में
दुःख पलता रहता है बस क्रूरतम सौजन्यता से
भेदता रहता है उन तमाम शब्दों के चक्रव्यूह को
जो कभी कहे गए थे चाहे गए थे
पर स्वीकार्य न हो पाए
कभी अनुशासन तो कभी सुधारे जाने की सनक में ,
लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको छोटे भाइ का असमय बड़ा होना
परिपक्व हो पाने की जद्दोजहद लिए
दीन - हीन बालकों सा फफककर रो देना
आंसू पोंछ देना फिर स्वयं ही
पिता को सांत्वना देते देते खुद ही टूट जाना
या माँ की गोद में बिछड़े भाई की खुशबू तलाशना
उस ईर्ष्या के कण को भी कि माँ भाई को ज्यादा चाहती हैं ,
लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको बहन के पर्स में
संभालकर रखे गए मुट्ठी भर चौकलेटों को
कि जो बच्चों को डपटकर छुपाये गए हैं
मामा के लिए
कुछ उन पैसों को जो धीरे से सरक आया करते थे
बंद हथेलियों में बिना किसी के जाने
कि जब विहंस पड़ती बहन की आँखों में एक ख़ास किस्म की ख़ुशी
कि देख सको अब उन्हीं आँखों में शांत परिपक्व पीड़ा
व् जिम्मेदारी के आवरण में प्रयासपूर्वक ढंकी गयी
उग्र वेदना ,
लौट आओ
एक दफे बस प्रिंस
कि मुक्त कर सको इन सभी को
बेहद भयानक किस्म की घुटन से
जो आजीवन इन्हें कहीं जीने नहीं देगी
व् तुम्हारी मृत्यु का सच इन्हें मरने नहीं देगा !!

Friday 13 February 2015

तीन कवितायेँ

वर्जनाओं से परे भी जीवन है
दरअसल वर्जनाओं से परे ही जीवन है
वर्जनाएं कुंठित करती हैं
बाधित - अवरोधित करती हैं समरसताओं को
स्वाभाविकताओं को 
पनपने लगती है व्यर्थ किस्म की निष्क्रियता
जकड़ लेती है जीवन को कसकर
श्वांस को भी
जकड़ती रहती है तब तक
जब तक कि उसकी मृत्यु न हो जाए
पर मार नहीं पाती उसे
क्योंकि तब भी बची रह जाती है एक बूँद ख्वाहिशों की
तृष्णा की
यहीं से महसूस होता है खुद का जिन्दा होना खुद को ,
संस्कारों
तुम चाहो तो मुझे चरित्रहीन कह सकते हो
किन्तु अब मै मुक्त हूँ तुमसे !!


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पागल मनवा तोड़े है भीतर ही भीतर 
हर आला हर ताला 
खोल के झटपट फिरा करे है इहाँ उहाँ 
होके मतवाला ,
मार झपट्टा पकड़ के जुगनू मुट्ठी भर 
खूब हँसे है खिल खिल खिल खिल पेट पकड के
छाय रही घनघोर उदासी चिहुंक उठी जब देखे उका
आंखन में भर भर उजियारा
आँचल में से खोल के कुंजी पकड़ के नटई ठूंस दिया फिर वापस उका
जैसे हो भूसा का गारा
एक एक कर फिर लगई रही ताले पर ताला खूब ठुनककर
पैर पटककर
अब निकलो
अब निकलो तो देखूं तोका
कैसे बाहर अब आवत हो
कैसे सबसे बतियावत हो
कैसे खुशियों को चिरिया का बान धराकर
हाथ पकडकर मुस्कावत हो
इहाँ हमारा राज़ चलत है
बात चलत है
चलत है हमरी ही ठकुराई
कहकर बुढ़िया बनी उदासी बईठ रही
ख़म ठोक के मन के दरवज्जे पर !!



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बेहद सीली सी रातों का जाम पड़ा है 
और पडी है ढेरों सी पीली तन्हाई 
ज़ख्म रखे हैं पहलू के खाली हिस्से में 
टीस रहा है कुछ रह रहकर 
यूँ कि जैसे अमलतास पर कोई चिड़िया फुदक रही हो 
चहक रही हो छाल को उसके रेशा करके
रेज़ा करके
सिसक रहा है कोई बाँहों के घेरे में अर्धचन्द्र सा
मुट्ठी बांधे तारों की
इसे घोलकर पारे सा जो पी जाऊं मै
जी पाऊं फिर सारी रातों का कुछ हिस्सा
जी पाऊं फिर ओर छोर तक प्रेमिल किस्सा
खुद को भी मै प्रेम बना लूं
कर पाऊं जो !!




























Thursday 12 February 2015

एक बार फिर


नीला पानी अक्सर भूरा नज़र आता है 
सलेटी भी 
तलछट टूट टूटकर घुलती जो रही है अनवरत , 

यूँ तो समंदर शांत ही था कभी 
मौन सहज 
पर अंतस की वेदना उबलती रही शताब्दियों तक 
भीतर ही भीतर 
चरम वेदना के प्रसव से जन्मा फिर 
बेचैन ह्रदय का आदिशिशु 
फिर जन्मी क्रमशः एक यात्रा युवा होने की 
कुछ और युवा 
कि रच सके शहद सरीखी साँसों से मीठा आफताब 
कर सके रचना सुन्दर महकते स्वप्न की 
गढ़ सके शिल्प अपार मानवता के 
एकत्रित कर सके रेतयुग्मों को भविष्य के टाल हेतु ,

हर कोशिश निरंतर कुछ और थका देती 
निचोड़ती रहती अंतस का रस तब तक 
जब तक की संवेदनाएं 
शून्य की परिधि के भीतर सिमट नहीं जातीं 
हौसले की सतह खो नहीं जाती 
ख्वाहिशों की पोटली गल नहीं जाती ,

अंततः समन्दर का शहद धीरे-धीरे नमक होने लगा 
युवावस्था ज़र्ज़र रोगयुक्त वृद्ध 
इस तरह नियति ने अपना ने रंग बदला ,

परन्तु नियति फिर रंग बदलेगी 
फिर जन्मेगा कोई महान आदिशिशु 
युवावस्था के ज़ज्बे से 
करने परिवर्तित अतीत की असफलताओं को 
नीले पानी की आत्मा पर लिखेगा 
सुदर प्रेमयुक्त जीवन समस्त ह्रदयों के लिए 
तब समन्दर एक बार फिर गमक उठेगा 
मीठेपन की सोंधी गंध से !!

Friday 30 January 2015

शुक्रिया ईश्वर

यही वक्त है यही लम्हा
कि जब टूटा था कुछ बहुत ख़ामोशी से
पूरे शोर के साथ
दहल उठा था तब वक्त मासूम चुप्पी से
कि दर्द ज्यादा एकत्रित था यहाँ घनघोर क्रंदन से भी
सहज नहीं था सहेजा जाना साँसों को
कि सहज नहीं था साँसों में उजास भर पाना
ज़ख्म भी तब सहम सहम कर रिसते
कि तब आंसूं भी मानो हौसलों की चट्टान थामे खडा था
कोर्निया के पीछे हीरे सा
लम्बी सिंदूरी रेखा मांग भर दमकती यकीन सी
तो खुले बालों में जब तब बिखराव का कम्पन होता
खुद ही संभल भी जाता फिर
हर रोज़ इबादत नंगे पैरों से नापी जाती
झलक जाती जो पत्तों के दोनों में सुनहरी जिद्द जैसी
कि दर्ज होती हर रोज़ बस एक ही दुआ ईश्वर के ख्वाबगाह में
जो झिंझोड़कर जगाती उन्हें वक्त बेवक्त और विवश कर देती आशीर्वाद के लिए
ईश्वर कभी झल्लाता ,पैर पटकता, क्रोधित होता पर अंततः सिर झुका देता
कि हिम्मत नहीं थी उसमे भी दुआओं को नकारने की
उन्हें खारिज करने की ,

फिर एक रोज़ लौट आई दियों में रौशनी जगमगाती
कि लौट आया मीठा पानी
कि लौट आया उम्मीदों का चप्पू
कि लौट आयी मुस्कान की हरारत भी ,

आज जिन्दा है एक बार फिर हर हंसी हर सुख हर सुकून
ईश्वर को दी गयी चुनौती के अंजाम पर उसमे आस्था सहित
शुक्रिया ईश्वर !!

Saturday 24 January 2015

ऋतुराज बसंत

गीत गायें हम मिलन के डाल पर झूले सजाएं
खुद ही साँसों में उतरकर श्वांस चन्दन हम बनाएं
कि हो गया है आगमन ऋतुराज का ,

रंग रहा है आज ईश्वर खुद ही मानो इस धरा को
अद्वितीय है ये छटा है जो भा रही है वसुंधरा को
राग हैं जागे रगों में और स्पंदन हो रहा है
आज मानो फिर से सरसों गीत यौवन गा रहा है ,

चंद्र भी है गुनगुनी सी धुप ओढ़े शर्म की
सूर्य जैसे सुर्ख घूँघट में हथेली नर्म सी
कंपकंपाती धडकनों में हो रहा मधुकर प्रफुल्लित
गा रही धरती भी होकर राग सरगम सम्मिलित ,

हर नज़र में प्रेम की है ताजगी छलकी हुयी
हर छुवन जैसे पवन की गुदगुदी महकी हुयी
हर कली चटकी हुयी है हर लहर मदहोश है
श्वांस चंदन आस कंचन हर सफ़र मधुमास है ,

स्पर्श भर ही भर दे कम्पन सा सिहरकर व्यक्ति को
शब्द भर ही रच दे कवी की प्रेम रचना शक्ति को
भाव विह्वल हो उठे सृष्टि बसंती राग से
हो सृजन होकर मुखर प्रकृति के हर समभाग से ,

कि हो गया है आगमन ऋतुराज का !!

उम्मीद

पीली सी आँखों में खाली शाम पडी थी
अलसाई मुरझाई सी
बिना किसी सपने को थामे ,

उतर रहा था एक परिंदा पर धीरे से
उम्मीदों की मुट्ठी बांधे
हुआ सुनहरा शर्बत जैसा
लगा फैलने शोर था अब चहुँओर
कि जैसे हो मंजीरा
या ढोलक की थाप हो कोई
या फिर कोई सारंगी हो
मदमाती सी गूँज उठी है सांस कि जैसे आस हो कोई
पर्वत पीछे प्रेम को भींचे
मधुर किलकती रास हो कोई ,

लेकर अंगडाई फिर शाम हुयी मतवाली
बाहों में भर ढेरों कंगन पैरों में छनकाती पायल
चली आलता संग लिए नाखूनों पर
सपनो के दामन को खुद में भींच लिया
सींच लिया फिर सूखा पौधा
पडा था जो बरसों से बस यूँ ही एकाकी
फूल लगे हैं खिलने उस पर
सरसों हो या रजनीगंधा
कुछ गुलाब है कुछ है गेंदा
कुछ थोड़े जो सूख गए थे बरसों पहले
उनमे भी अब प्यास जगी है जीवन की
उनमे भी अब आस जगी है प्रियतम की
कि लगी बिखरने खुशबू अब है
लगी बरसने प्रीत भी होकर मीत कि जैसे हो दीवानी
सपने भी अब फूट रहे हैं निर्झर सरिता के सोतों से
निर्मल होकर कोमल होकर जीवित होकर
हँसते -हँसते !!

Thursday 8 January 2015

मुक्ति

मृत्यु चमकीला सितारा 
बांह खोले है खड़ा 
उस पार आनन् पर क्षितिज के ,

रो पड़ी धरती समझकर मिलन अंतिम 
हंस पडी प्रकृति सहज कर कष्ट अंतिम ,

चल पड़े हैं कदम जैसे गति पवन हो 
खींचता गह्वर में पर कि मन विकल हो ,

मै मगर अब मुक्त हूँ जीवन के सुन्दर स्वप्न से 
आत्मा संयुक्त है अब मृत्यु प्रेम  के जन्म से ,

हो रहा सब कुछ समाहित बादलों की गोद तक 
हो रहा अप्रतिम सुख अब आंसुओं के छोर तक ,

कि मृत्यु चमकीला सितारा 
बांह खोले है खड़ा 
उस पार आनन् पर क्षितिज के 
अंक कर लेने को व्याकुल !!