Friday 17 April 2015

जिन्दगी

रह जाता है कभी कोई अपना होते-होते
चुभता बहुत है कहीं ----शिद्दत से ,
जा नहीं पाता खुद से
और रह भी नहीं पाता पूरी तरह 
कि संस्कार भी बगावत कर देते हैं एक वक्त के बाद ,
अक्स उसका कई टुकड़ों में नज़र आता है
अक्सर ही अहमी चालाकियों में उलझा -खोया सा
पर कई बार उसको नामालूम से पारदर्शिता के झीनेपन की कैद में भी ,
यहाँ सहनशीलता छोटी पड जाती हैं
दर्द लंबा हो जाता है ,
जिन्दगी भावपूर्ण रिश्तों सी असीमित जो नहीं होती !!

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