Thursday 16 April 2015

लौट आओ बस

लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको पिता का संताप
माँ का मौन से छादित गहनतम दुःख
पीड़ा जहां छलक छलक उठे हर श्वांस सहित 
जहां विलाप को अब स्वर नहीं फूटते
आँख नहीं बहती
नहीं होती हलचल साँसों तक में
दुःख पलता रहता है बस क्रूरतम सौजन्यता से
भेदता रहता है उन तमाम शब्दों के चक्रव्यूह को
जो कभी कहे गए थे चाहे गए थे
पर स्वीकार्य न हो पाए
कभी अनुशासन तो कभी सुधारे जाने की सनक में ,
लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको छोटे भाइ का असमय बड़ा होना
परिपक्व हो पाने की जद्दोजहद लिए
दीन - हीन बालकों सा फफककर रो देना
आंसू पोंछ देना फिर स्वयं ही
पिता को सांत्वना देते देते खुद ही टूट जाना
या माँ की गोद में बिछड़े भाई की खुशबू तलाशना
उस ईर्ष्या के कण को भी कि माँ भाई को ज्यादा चाहती हैं ,
लौट आओ
एक दफे बस
कि देख सको बहन के पर्स में
संभालकर रखे गए मुट्ठी भर चौकलेटों को
कि जो बच्चों को डपटकर छुपाये गए हैं
मामा के लिए
कुछ उन पैसों को जो धीरे से सरक आया करते थे
बंद हथेलियों में बिना किसी के जाने
कि जब विहंस पड़ती बहन की आँखों में एक ख़ास किस्म की ख़ुशी
कि देख सको अब उन्हीं आँखों में शांत परिपक्व पीड़ा
व् जिम्मेदारी के आवरण में प्रयासपूर्वक ढंकी गयी
उग्र वेदना ,
लौट आओ
एक दफे बस प्रिंस
कि मुक्त कर सको इन सभी को
बेहद भयानक किस्म की घुटन से
जो आजीवन इन्हें कहीं जीने नहीं देगी
व् तुम्हारी मृत्यु का सच इन्हें मरने नहीं देगा !!

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